हक प्रकाश haq parkash [Hindi-unicode] बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश

हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” उर्दू  के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर,  उर्दू  हिन्दी उस जमाने की सत्यार्थ प्रकाश नेट में उपलब्ध है,

लेखक : मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी

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हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश

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Response “Light of Truth” to Swami Dayananda Saraswati
by Ahmaddiya community
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Pdf
https://archive.org/details/ResponseLightOfTruth

कल की सत्यार्थ प्रकाश पर लिखी गयी हक़ प्रकाश
आज की सत्यार्थ प्रकाश पढ़ कर लिखी गयी “चौदहवीं का चाँद पर एक दृष्टि”

http://chaudhvin-ka-chand.blogspot.com/2011/06/chaudhvin-ka-chand.html

विषय सूची

  1. प्रकाशक की ओर से।
  2. हक प्रकाश पर एक समीक्षा
  3. कुछ पुस्तक के बारे में
  4. भूमिका
  5. हक प्रकाश ब जवाब सत्यार्थ प्रकाश
  6. कुरआन के बारे में स्वामी जी की राय
  7. आपत्ति कर्ता के मुकाबले में जवाब देने वाले की राय
  8. निष्पक्ष और भले लोगों के लिए यही गवाही काफी है।

  1. प्रकाशक की ओर से

सत्य और असत्य की जंग और आपसी कटुता का इतिहास बड़ा ही प्राचीन है बल्कि यह कहना सही होगा कि जब से इस्लाम का जन्म हुआ है उसी समय से इस पर आरोप प्रत्यारोप और तोहमतों का कार्य हो रहा है ।सत्य धर्म की शिक्षाओं को अज्ञानता , टेढी सोच , स्वार्थ , दुर्भावना और दुश्मनी व नफरत की बुनियाद पर लान तान का निशाना बनाया गया ।|नफ्स के गुलामों ने अपनी हठधर्मी के नशे में इस्लाम के तथ्यों को दुनिया के सामने संदिग्ध बना कर प्रस्तुत करने की बार बार नाकाम कोशिशें कीं ।लेकिन अल्लाह के कानून के अनुसार यथा आवश्यक्ता हर युग में ऐसे इस्लाम के बहादुर और सूरमा पैदा होते रहे जिन्होंने अपने ज्ञानात्मक , लेखों और वक्तव्यों की योग्यताओं को काम में लाकर इस्लाम और मुसलमानों पर होने वाली असत्य आपत्तियों का भरपूर जवाब दिया है जिन्होंने हर प्रकार कीसाजिशों को उखाड़ फेंका ।उनकी जबान व कलम से निकले हुए शब्द कुरआन व हदीस से शक्ति ग्रहण करके इस्लाम विरोधियों के विरोध और उनके नास्तिक एवं अधर्मवाद के झोंपड़े पर कड़क दार बिजली बन कर गिरे और उसे जलाकर भस्म कर दिया ।इसी क्रम की एक अहम कड़ी का हिस्सा यह किताब “ हक प्रकाश भी है जो आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती की किताब सत्यार्थ प्रकाश के अध्याय 14 का जवाब है जो जवान व कलम के प्रख्यात मनाजिरे इस्लाम अल्लामा अबुल वफा सनाउल्लाह 3 । अमृतसरी की प्रसिद्ध किताब है । अल्लामा सनाउल्लाह अमृतसरी १५२५ ही इस दौर के लिए बहुत ही शक्तिशाली सत्य की आवाज साबित हुए । जिस समय इस्लाम के विरुद्ध हर ओर से भ्रम एवं संदेहों की तेज आंधियां चल रही थी और नबी करीम सल्ल0 के व्यक्तित्व और आपकी पाक जात को रंगीला रसूल लिखकर दागदार बनाने की कोशिशें की जा रही थी । अब्दुल गफूर की किताब ” तकें इस्लाम का सहारा लेकर इस्लाम पर कीचड़ उछालने की नापाक कोशिशें हो रही थीं । ऐसे समय में जरूरत थी एक सतर्क व दृढ जबान व कलम की और ज्ञान एवं उच्च कोटि के विद्वान की जिसके द्वारा नित नए फ़ितनों का सर कुचला जा सके और इस्लाम दुश्मन विचारों एवं दृष्टिकोणों का निवारण हो सके और इस्लाम की सुरक्षा की जा सके । अल्लामा अबुल वफा सनाउल्लाह अमृतसरी अपने दौर के महान मुजाहिद थे | वे इस्लाम दुश्मनों के लिए नंगी तलवार साबित हुए । उन्होंने समय समय पर उठने वाले फित्नों का हर मौके पर ज्ञानात्मक मुकाबला किया । ईसाइयों की आपत्तियों के जवाब , इस्लाम व मसीहियत , तकाबुल सलासा और इसी प्रकार की दूसरी किताबें अल्लामा के जिन्दा कारनामे हैं । आप इस्लाम विरोधियों से दो दो हाथ करने में कभी पीछे नहीं रहे । और इस्लाम विरोधियों से मनाजिरे करके सत्य का बोल बाला किया । | आज फिर इसी प्रकार के फितने सर उठा रहे हैं । इस्लाम दुश्मन तत्वों का इस्लाम के विरुद्ध हमला बड़ी तेजी के साथ शुरू हो गया है । नास्तिकों और आपत्ति करने वालों की ओर से इस्लाम की हकीकी शिक्षा का स्वरूप बिगाड़ने और उसके बारे में प्रोपगंडे और गलत फहमियों को बढ़ावा देने की सारी कार्रवाइयां चल रही है मीडिया व समाचार पत्रों ने इस्लाम के विरुद्ध गलत विचारों व दृष्टिकोणों का प्रचार एवं प्रसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । ऐसे हालात में अल्लामा सनाउल्लाह साहब की तर्क पूर्ण , शाहकार और इल्मी किताबों के प्रकाशन का महत्व बढ़ गया है । यही कारण है कि हमने इस महत्वपूर्ण किताब को हिन्दी भाषा में प्रकाशित करने का कदम उठाया है । | हमारा उद्देश्य यही है कि मुसलमान और गैर मुस्लिम भाई इस | किताब का अध्ययन करके सत्य और असत्य का फर्क जान सके और इस्लाम व पैगम्बरे इस्लाम पर निराधार लगाए गए आरोपों का सतर्क जवाब पढ़ सकें ।

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2. हक प्रकाश पर एक समीक्षा
शैखुल इस्लाम सनाउल्लाह अमृतसरी निस्सन्देह एक हक परस्त विद्वान थे। अल्लाह ने आपको वह सोच एवं ज्ञान प्रदान किया था कि वे एक ही समय में समस्त इस्लाम दुश्मन संगठनों से मुकाबला करते रहे। कादियानियत, ईसाइयत, आर्यसमाजी, सनातन धर्मी, बहाई अर्थात वे सारे तत्व जो इस्लाम को चुनौती देने का साहस करते थे। शैखुल इस्लाम ने सब का सतर्क जवाब दिया। दोस्तों ने ही नहीं स्वयं दुश्मनों ने भी इस बात को स्वीकारा। इस मैदान में कोई उनका मुकाबला नहीं हो सकता। आज भी देखिए तो हैरत होती है कि एक व्यक्ति बिल्कुल अकेले किस तरह ऐसा चौमुखी हमला कर सकता था । उनका समाचार पत्र ”अहले हदीस” अपने समय का महत्वपूर्ण पर्चा था और गैर मुस्लिमों में भी वह उतना ही लोक प्रिय था जितना मुसलमानों में।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म में सुधार का बीड़ा उठाया। वे हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे न अवतार वाद में विश्वास रखते थे इस प्रकार उन्होंने हिन्दू धर्म को उसके मूल की ओर लौटाने का प्रयत्न किया ताकि वह करोड़ों देवी देवताओं के अकीदे से निकल कर एकेश्वरवाद की ओर आए जो सारे धर्मों की असल बुनियाद है। स्वामी जी ने एक पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश लिखी जो आर्य समाज की बाइबिल बन गयी। उन्होंने इस किताब में हिन्दू धर्म के उसूल, रीति रिवाज और अकीदों पर बहस की और हिन्दू समाज में फैले हुए गलत अकीदों का सुधार करने का यत्न किया। साफ़ सी बात है कि इससे किसी को मतभेद नहीं हो सकता था बल्कि यह एक बड़ी अच्छी कोशिश थी लेकिन इसी किताब में उन्होंने अन्य धर्मों पर भी आपत्ति व्यक्त की और उनको बुरा और गलत बताने की कोशिश की।

सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय में उन्होंने इस्लाम पर तीर चलाए और कुरआनी शिक्षा को निशाना बनाया। चूंकि स्वामी जी अरबी जानते नहीं थे इस लिए व्याकरण संबंधी नियम एवं इन भाषाओं, मुहावरों और भाषा से अनभिज्ञता के कारण शब्दों का सही अर्थ व भाव समझने से विवश रहे इसके बावजूद उन्होंने इस्लाम पर आपत्तियां व्यक्त की और उनको अपनी पुस्तक में शामिल किया। इस प्रकार अपनी कौम को उन्होंने अपने ज्ञान एवं जानकारी से प्रभावित करने की कोशिश की लेकिन मुसलमानों को उनकी इस कार्रवाई से तकलीफ पहुंची। विरोध एवं रोष भी व्यक्त किया। पहले यह पुस्तक देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई थी इसलिए गैर हिन्दी हलकों में यह परिचित नहीं हो पायी, हा शैखुल इस्लाम जैसे विद्वान ने जो उस दौर में भी देवनागरी से भली प्रकार परिचित थे इसका नोटिस लिया और इसका जवाब लिखने का इरादा किया। इसी बीच स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश का उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित कर दिया और किताब सारे हलकों में पहुंच गयी और फिर हर ओर से इस पर आपत्तियां होने लगीं।

शैखुल इस्लाम साहब अल्लामा अमृतसरी “हक प्रकाश” की भूमिका में लिखते है : – जब तक किताब देवनागरी में थी इसकी आम शोहरत न थी हमने देवनागरी में भी इसका अध्ययन किया था उसी समय से हमारा विचार था कि जितना कुरआन से इसका हिस्सा संबंधित है उसका जवाब उर्दू में दिया जाए। उस समय इसका जवाब देने में यह परेशानी थी कि देवनागरी से उर्दू में अनुवाद भी हमें ही करना पड़ता। अल्लाह की शान कि यह काम चूंकि उसे हम से ही कराना मन्जूर था अतः इसका सबब भी अल्लाह ने आर्यो ही को बनाया कि उन्होंने इस किताब का अनुवाद देश की लोकप्रिय और जन सामान्य भाषा उर्दू में करके हजारों प्रतियां प्रकाशित कर डालीं। इस बात को कहना कोई जरूरी नहीं कि स्वामी के सवालात आम तौर पर गलत फहमियों पर टिके हुए हैं इसलिए कि सत्य को स्वीकार करने से बहुधा गलत फहमी ही रोक बनती है । ( पृष्ट 4-5 )

शैखुल इस्लाम अमृतसरी ने किताब में मुहक्किक और मुदकिकक के शीर्षक लगा कर स्वामी जी की आपत्तियों को प्रस्तुत। करके उनका सतर्क जवाब दिया है और साबित किया है कि स्वामी जी की आपत्तियां अरबी भाषा के उसूल व नियम से उनकी अनभिज्ञता और गलत फहमी की वजह से सामने आयी हैं इसी के साथ शैखुल इस्लाम ने हिन्दुओं की किताब से हवाले नकल करके अपनी बात स्पष्ट कर दी है, इससे शैखुल इस्लाम की दूरदर्शिता और सूझ बूझ और अन्य धर्मों की धार्मिक पुस्तकों से उनकी गहरी जानकारी का अन्दाजा होता है।

हक प्रकाश के प्रकाशन से मुसलमानों में वह बेचैनी और परेशानी दूर हो गयी जो स्वामी के निराधार और बेतुकी आपत्तियों के कारण पैदा हो गयी थी क्योंकि यह बात स्पष्ट हो गयी कि स्वामी जी की आपत्तियां उनकी अज्ञानता और जानकारी न होने का नतीजा हैं। आर्यों की ओर से शैखुल इस्लाम की किताब के अनेक जवाब लिखे गये जैसा कि भूमिका से स्पष्ट है। दयानन्द तमर भास्कर, सत्यार्थ भास्कर, दयानन्द सभा व प्रकाश आदि।

लेकिन असल बात यह है कि वे शैखुल इस्लाम की आपत्तियों का सतर्क जवाब नहीं दे सके यह इसलिए कि शैखुल इस्लाम की पहुंच उनकी धार्मिक पुस्तकों तक थी वे संस्कृत और देव नागरी भाषाएं भली प्रकार जानते थे और चूंकि सारे धर्मों के धार्मिक ग्रंथों पर गहरी नजर थी इसलिए ऐसे-ऐसे नुक्ते प्रस्तुत करते थे कि उनका जवाब आसान नहीं होता था। इस प्रकार शैखुल इस्लाम अमृतसरी ने इस्लाम के बचाव में बह मूल्य साहित्य उपलब्ध किया और उस दौर में जो मुनाजिरों का दौर था इस साहित्य का बड़ा महत्व था। आज के बदले हुए हालात में जबकि बहु संख्यक के राजनीतिक प्रभाव व सत्ता के कारण दूसरे धर्मों के लोग (अल्प संख्यक) बचाव करने की स्थिति में आ गए हैं। इस लिट्रेचर के महत्व व कुद्र और अधिक बढ़ गयी है ताकि मुस्लिम समुदाय की नयी नस्ल जो तेजी से प्रभावित हो जाने का शिकार रही है हकीकत से अवगत हो सके और किसी प्रकार के प्रभाव में आने के वातावरण से बाहर आए।

3. कुछ पुस्तक के बारे में

1 – हक प्रकाश बाजवाब सत्यार्थ प्रकाश, एकेडमी की ओर से प्रस्तुत की जाने वाली आठवीं पुस्तक है। हक प्रकाश मौलाना मरहूम की एक शाहकार किताब कहलायी जाने की हकदार है और यूं भी उनकी किताबों में इस को एक प्रमुख और महत्वपूर्ण दर्जा हासिल है। चूंकि मौलाना मरहूम को अल्लाह ने इस्लाम के विरोधियों से ज्ञानात्मक और लेखों व वक्तव्यों की सतह पर मुकाबला करने और तब्लीग के लिए भेजा था इसलिए मुनाज़रा से असाधारण दिलचस्पी एक स्वभाविक बात थी, यह किताब हक प्रकाश जो कि स्वामी दयानन्द सरस्वती संस्थापक आर्य समाज की किताब सत्यार्थ प्रकाश के अध्याय 14 का मुसलमानों की ओर से सतर्क जवाब है। किताब के अध्ययन से आर्य समाज और हिन्दू धर्म से संबंधित पर्याप्त जानकारी हासिल की जा सकती हैं ।

2 – कुछ लोगों को आज के दौर में इस प्रकार के विषय संबंधी चीजें पसन्द नहीं हैं बल्कि इस्लाम का मात्र परिचय या सकारात्मक अन्दाज के लिट्रेचर के प्रकाशन के पक्ष में हैं यद्यपि गहरी नजर से देखा जाए तो दोनों प्रकार के लिट्रेचर की सदैव जरूरत रही है और रहेगी। इसका अनुमान उन लोगों को हो सकता है जो गैर मुस्लिमों में इस्लाम के प्रचार का काम करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आज मुनाजरों का दौर नहीं है लेकिन इस्लाम के प्रचार के बारे में हक प्रकाश, मुकद्दस रसूल, ईसाइयों को जवाब, तर्के इस्लाम, तकाबुल सलासा, इस्लाम और मसीहियत और तफसीर सनाई जैसी किताबों से गैर मुस्लिमों के भ्रम एवं सन्देहों को दूर करने के लिए बहुत सा मैटर उपलब्ध हो जाता है कि आज के दौर की लिखी हुई सैकड़ों किताबों में ऐसा मैटर नहीं मिल सकेगा, सनाई लिट्रेचर का अध्ययन गैर मुस्लिमों में तब्लीग करने वाले लोगों के लिए अत्यन्त जरूरी है।

3 – और वैसे भी आज जबकि सरकारी मदरसों में शिक्षा प्रणाली सैक्यूलर है लेकिन फिर भी पाठयक्रम में बहुसंख्यक समुदाय की सभ्यता एवं संस्कृति, विचारों एवं दृष्टिकोणों की गहरी छाप है जबकि हमारी नयी नस्ल इस्लाम धर्म और इस्लामी सभ्यता एवं संस्कृति से अनभिज्ञ है और इस अनभिज्ञता ने उनको हीन भावना का शिकार बना दिया है अत एवं इस्लाम के विरोधियों को इस कमजोरी के कारण बेजा लाभ उठाने का सुनहरा अवसर जुटा दिया है।

शुद्धि संगठन किसी न किसी रूप में आज भी जीवित है। इस्लाम के खिलाफ लिट्रेचर विशेष रूप से आर्य समाज की ओर से खुल्लम खुल्ला प्रकाशित हो रहा है यहां तक कि आजादी से पूर्व की प्रतिबन्धित पुस्तकें, जाली नामों और पतों के साथ प्रकाशित की जा रही हैं इसका जीवन्त उदाहरण बदनाम जमाना किताब “रंगीला रसूल” है जो हिन्दी भाषा में प्रकाशित करके चोरी छुपे बेची जा रही है और सरकार की सी आई डी या खुफिया विभाग इस पर ध्यान नहीं दे रहा है।

जहां तक सत्यार्थ प्रकाश का संबंध है इसका चौदहवां अध्याय मुसलमानों के लिए सबसे अत्यधिक दिल को चोट पहुंचाने वाला है। इसका अनुमान हक़ प्रकाश में दिए गए मैटर से लगाया जा सकता है। इतने अपमान, तिरस्कार और तुच्छ वाक्य और घटिया शैली दुनिया की किसी किताब की नहीं हो सकती जो कि सत्यार्थ प्रकाश की है। आजादी से पूर्व सिन्ध में इस पर पूरी तरह पाबन्दी लग चुकी थी और उसी दौर में पंजाब में इस प्रकार का आन्दोलन चल रहा था।

आश्चर्य की बात है कि हिन्दुस्तान के मुस्लिम रहनुमा और इस्लाम का दर्द रखने वाली संस्थाएं और स्वयं सरकार का जिम्मेदार स्टाफ़ आज तक क्यों खामोश हैं ? यह उल्लेखनीय और विचारणीय बात है कि इस किताब में न केवल मुसलमानों के विरुद्ध मैटर है बल्कि सिखों और दूसरे हिन्दू समुदायों के अलावा इस किताब के खंडन भाग में ईसाई धर्म का खंडन और अपमानजनक बातों पर आधारित तेरहवां अध्याय भी है क्या ही अच्छा होता कि अल्प संख्यक आयोग इस समस्या पर भी ध्यान दे क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में अल्प संख्यकों के धर्मों के विरुद्ध अध्यायों का अलग-अलग पुस्तिकाओं के रूप में भी विभिन्न भाषाओं में छाप कर गांव देहात और शहरों में बांटा जा रहा है ।

यह भी एक अटल हकीकत है कि देश वासियों को इसी वजह से इस्लाम के बारे में भ्रम पैदा हो रहा है और इस प्रकार का विषैला लिट्रेचर देश की प्रगति एवं निर्माण व उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने का एक स्थाई जरिया बना हुआ है। हिन्दू मुस्लिम एकता के आवाहक महात्मा गांधी ने अपने समाचार पत्र “यंग इन्डिया” में इस पुस्तक को “निराशा” जनक किताब कहा और इसके लेखों पर अपनी “नापसन्दीदगी” व्यक्त की थी ।

4 – सत्यार्थ प्रकाश की शताब्दी ( सौ साला उत्वस ) 22 से 25 मार्च तक दिल्ली के राम लीला ग्राउंड में बड़ी धूम धाम से मनाया गया। देश विदेश से भारी संख्या में आए हुए लोग शरीक हुए। इस अवसर पर इस “हक प्रकाश” पुस्तक का प्रकाशन सराहनीय और एक अच्छा कदम है ।

वस्सलाम,अबु राशिद बिन हाजी मुहम्मद सुलैमान, 10 मार्च 1979 ई०

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4. भूमिका

पहले मुझे देखिये

स्वामी [1] दयानन्द जी ने एक किताब “सत्यार्थ प्रकाश” देवनगरी

में लिखी थी जिसमें सारे प्रचलित धर्मों [2] का खंडन और अपनी मामूली समस्याओं को बयान किया था। किताब के चौदह अध्याय हैं। इनमें से चौदहवें अध्याय में कुरआन पर आपत्ति की है। जब तक यह किताब देवनागरी में थी जन सामान्य की भाषा न होने के कारण प्रसिद्ध न थी। हमने इसका हिन्दी में भी अध्ययन किया था। उसी समय से हमारा विचार था कि जितना कुरआन से इसका भाग संबंधित है उसका जवाब उर्दू में दिया जाए, उस समय इसका जवाब देने में यह परेशानी थी कि नागरी का अनुवाद भी हमें ही करना पड़ता।

अल्लाह की शान चूंकि यह काम अल्लाह को हम से कराना मन्जूर था। इसका ज़रिया भी उसने आर्यों को ही बनाया कि उन्होंने इस किताब का अनुवाद उर्दू में करके हजारों प्रतियां प्रकाशित की । फिर क्या था एक हमारी स्वंय की राय, दूसरे दोस्तों ने भी जो इस नाचीज़ को इस काम के लिए योग्य समझते थे। इसका जवाब देने के लिए जोर डाला जाने लगा अतएव अल्लाह का नाम लेकर मैने इस काम को आरंभ कर दिया और फिर अल्लाह ने इस काम को पूरा भी करा दिया।

इस बात को बताना कुछ जरूरी नहीं कि स्वामी जी के सवाल पूरी तरह गलत फहमी पर आधारित हैं इसलिए कि सत्य को स्वीकार करने से सदैव गलत फहमी ही रोक बना करती है वर्ना सत्य की समझ भली प्रकार मन मस्तिष्क में आ जाए तो फिर किसी सत्य को चाहने वाले के दिल से विरोध नहीं हुआ करता। हां, इस बात का दुख अवश्य है कि इस जवाब से पहले स्वामी जी की तेज जबानी और अल्पज्ञान के मुकाबले हिन्दुओं की शिकायतें सुनकर हम उनको धार्मिक पक्षपात और अकारण की दुश्मनी पर आधारित और अतिश्योक्ति वाला समझा करते थे मगर जब हम पर बीती तो हमें बड़ा भारी दुख हुआ कि हमारी यह पुरानी राय गलत साबित हुई जिससे भविष्य में हम हिन्दुओं की शिकायत को वाजिबी मानने को मजबूर हैं ।

स्वामी जी ने कुरआन शरीफ का उर्दू अनुवाद नागरी में कराकर बिना सोचे समझे आगे पीछे देखे बिना जो कुछ दिल में आया लिख मारा। यद्यपि उन्होंने अनुवाद का नाम नहीं बताया मगर अन्दाजे से मालूम होता है कि जिस अनुवाद पर स्वामी जी ने बुनियाद रखी है । वह शाह रफीउद्दीन साहब का शाब्दिक अनुवाद है जो उर्दू भाषा के कायदे व व्याकरण, मुहावरे व अरबी भाषा के स्पष्ट अर्थ पर आधारित नहीं है। इसके अलावा स्वामी जी इसमें अपनी ईजाद (अविष्कार) से भी बाज़ न रहे अतएव पाठक जगह जगह इसे प्रतीत करेंगे।

स्वामी जी ने सवालों पर नम्बर भी लगाए हैं कुल नम्बर 159 हैं। मगर हम इनके लिए उनकी वकालत में एक नम्बर और ज्यादा करके पूरे 160 कर देंगे। यदि हमारे समाजी दोस्त कहते तो ऐसे नम्बरों की संख्या हम हज़ारों तक उनको पहुंचा देते। काश स्वामी जी बजाए 159 नम्बर के केवल 59 बल्कि इनमें से भी 9 के अंक को उड़ा कर केवल 5 सवाल ही ऐसे करते जिनको विद्वान उचित सवालों का नाम दे सकते।

चलिए जो कुछ स्वामी जी से हुआ वह यही 159 या हमारी वकालत की मदद से 160 नम्बर हैं जिनको हम ज्यों का त्यों उन्हीं के वाक्यों में पूरा पूरा नकल करके जवाब देंगे।

स्वामी जी ने जैसा कि हमारे पाठक देखेंगे यह तरीका रखा है। कि पहले कुरआन शरीफ का शाब्दिक अनुवाद लिखते हैं फिर अपना नाम आपत्ति कर्ता लिखकर उस पर आपत्ति करते हैं । इसी लिए हमने जवाब देते हुए “आपत्ति का जवाब” शीर्षक लगाकर जवाब दिया है।

चूंकि स्वामी के अधिकांश सवाल ऐसे भी हैं जो वैदिक धर्म या आर्य समाज के सम्पूर्ण धर्म के भी विरुद्ध है इसलिए सामान्यता हमने उनकी आपत्तियों का जवाब देकर बाद में भी शोधपूर्ण जवाब दिए हैं।

स्पष्ट रहे कि हमारे हवालों में सत्यार्थ प्रकाश से तात्यर्प प्रमाणिक उर्दू अनुवाद प्रकाशित प्रतिधार्मिक सभा पंजाब है। चूंकि यह अनुवाद अनेक बार छपा है और आर्यों ने किसी विशेष लाभ के लिए प्रथम एडीशन के पृष्ठों की समानता नहीं रखी। की

[[सत्यार्थ प्रकाश 14:73 अब हिन्दी में 3 लाइन में रह गयी ]

इसलिए पाठक गणों की आसानी के लिए अध्याय नम्बर सहित भी लिखेंगे और ऋग्वेद आदि भाष्य भूमिका का केवल भूमिका से तात्पर्य अनुवादक बाबू निहाल सिंह आर्य निवासी कर्नाल हैं अतः जिस सज्जन को हमारे हवालों या वेद के अनुवाद में संदेह हो वह प्रत्यक्ष में हम से जवाबी कार्ड भेजकर मालूम करें हम उनको स्वामी जी की किताब से ही वे हवाले दिखा देंगे। और यह भी स्पष्ट रहे कि हमने इस जवाब में किसी समाजी लेखक को सम्बोध नहीं किया क्योंकि हम जानते हैं कि जितनी इस्लाम से दूरी हुई है इसलिए उनके चेले वही कहें तो उनका दोष नहीं।

पहले एडीशन में यह किताब ईशवरीय किताब के साथ इसलिए लगायी गयी थी कि इसमें आर्यों से वाद विवाद था मगर दूसरे एडीशन से दोस्तों की इच्छा के अनुसार उसको अलग कर दिया गया और उसका नाम भी इसी के हिसाब से “हक प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश” प्रस्तावित हुआ।

पहले एडीशन पर आर्यों में एक असाधारण जोश पैदा हुआ। इसके जवाब देने का विज्ञापन भी निकला, बल्कि रिसाला आर्य मुसाफ़िर में थोड़ा बहुत जवाब भी निकला । लेकिन अन्त में वही बात सामने आयी – – कि

हबाब बहर को देखो यह कैसा सर उठाता है

तकब्बुर वह बुरी शै है कि फौरन टूट जाता है

हम इन्तिज़ार में थे कि पूरा जवाब सामने आए तो दूसरे एडीशन में इस ओर भी कृपा हो जाए मगर अफसोस कुछ नम्बरों में जो अभी आरंभ ही हुए थे कि उत्तरदायी आलोप हो गए। सितम्बर 1902 ई तक जवाबुल जवाब की भनक तक न आयी बल्कि पांचवे एडीशन (जुलाई 1924 ई0) तक भी उनकी आवाज न आयी।

दिल की दिल ही में रही बात न होने पायी

हैफ सर हैफ मुलाकात न होने पायी

जितना लेख आर्य मुसाफ़िर रिसाला में छपा था उसका जवाब उन्हीं दिनों में रिसाला अनवारुल इस्लाम सियालकोट में तुरन्त निकल गया था फिर भी कुछ बातों का जवाब जो इस नाचीज़ से खास संबंध रखती हैं समय समय पर दिया जाएगा। जवाबुल जवाब के वाक्य से पहले मोअय्यद (मददगार) का शब्द होगा। जैसे कि स्वामी के वाक्य के सिरे पर शब्द मुहक्किक आपत्ति का शब्द मिलेगा। मोअय्यद (मददगार) ने जवाब की भूमिका में मुझ पर आरोप लगाया है कि सत्यार्थ प्रकाश लिखे हुए 26 साल हो गए, अब तुम्हें जवाब सूझा। मगर अफ़सोस कि उन्होंने यह नहीं समझा कि 26 साल यदि गुजरे हैं तो नागरी ही में गुजरे हैं लेकिन जब देश की सामान्य भाषा उर्दू में आप लोगों ने इसका जलवा दिखाया तो जवाब की जरूरत भी महसूस हुई फिर तुरन्त कर्ज उतारा गया।

इसके अलावा यह आरोप तो स्वामी जी पर भी है कि कुरआन को उतरे हुए तेरह सौ साल हुए और अब स्वामी से बड़ी मुश्किल से यह बन पड़ा जो आगे आता है। यदि यह कहा जाए कि स्वामी जी तो पैदा ही अब हुए हैं वे तेरह सौ साल पहले किस प्रकार कुरआन पर आपत्ति व्यक्त करते तो निवेदन यह है कि यह नाचीज़ भी तो स्वामी जी के जमाने के बाद ही व्यस्क और ज्ञान की प्राप्ती तक पहुंचा है। यदि मुझे उनसे मुलाकात का अवसर मिलता तो शायद उनको सत्यार्थ प्रकाश लिखते हुए चौदहवां अध्याय लिखने की जरूरत न पड़ती।

इस जवाब के “हक प्रकाश” की सूरत में प्रकाशित होने के बाद स्वामी दर्शना नन्द [3] को जवाब का ध्यान आया अतएव उन्होंने अपनी मासिक पत्रिका मुबाहसा के एक दो नम्बरों में जवाब देना आरंभ किया। उसे देखकर हम लम्बे समय तक इन्तिज़ार करते रहे कि स्वामी जी खत्म करें तो इसके जवाब का फैसला तीसरे एडीशन में कर दें मगर अफ़सोस कि स्वामी दर्शना नन्द भी एक दो कदम चलकर ऐसे गिरे कि दुनिया सिधारे जाने तक इधर का रुख न किया।

प्रिय पाठको ! आर्यो के मिशन में जितनी धार्मिक पुस्तकें होती हैं। व्यक्त करने की जरूरत नहीं मगर हक प्रकाश के जवाब पर साहस न जुटा पाना क्या कारण रखता है ? यही उनका ज्ञान भी इसी बात का फैसला करता है कि स्वामी दयानन्द जी की आपत्तियां कुछ खास महत्व नहीं रखतीं। भवदीय

भवदीय लेखक अमृतसर ।

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[फुटनोट 1- स्वामी बड़ा सम्मानित शब्द है। आर्य समाज हमारे पैगम्बर हजरत मुहम्मद मुस्तफा ﷺ का नाम केवल मुहम्मद लिखते और एक वचन के कलिमे से बयान करते हैं जैसे लिखते हैं ‘मुहम्मद’ पैदा हुआ, मुहम्मद कहता था यह एक सामान्य दर्ज के लोगों के लिए है मगर हम उनके गुरू को इज्जत ही से याद करेंगे क्योंकि इस्लाम का यही आदेश है ।
(2-)हिन्दुओं ने अपने लेख के बारे में इस किताब के अनेक जवाब दिए हैं अतएव कुछ के नाम ये हैं। दयानन्द तमर भास्कर, सत्यार्थ भास्कर, दयानन्द सुभावे प्रकाश, ईसाइयों के जवाब का नाम है सत्यार्थ प्रकाश]

[3- आह ! आज ये बुजुर्ग हम से सदैव के लिए बिछड़ गए हैं। आर्यों में बड़ी खूबी के आदमी थे देवरया जिला गोरखपुर के बाद विवाद में यही सज्जन हमारे मुकाबले में थे। कडवी कसीली बात करना, दिल दुखान। जो दूसरे बहुत से आर्यों की आदत है इनमें न थी।]

//////////आपत्ति 1 से 24 तक बढ़ाया गया है पीडीएफ़ देखें /////

आपत्ति नंबर 1  और उसका उत्तर 

क़ुरआन सुरह फ़ातिहा आयत : 1

“आरंभ अल्लाह के नाम के साथ क्षमा करने वाले कृपालु के”

(आयत : 1)

आपत्ति – 1

मुसलमान लोग ऐसा कहते हैं कि यह कुरआन अल्लाह का कलाम है लेकिन इस कथन से मालूम होता है कि इसका बनाने वाला कोई दूसरा है क्योंकि यदि खुदा का बनाया हुआ होता तो “आरंभ अल्लाह के नाम के साथ ऐसा न कहता बल्कि” आरंभ वास्ते हिदायत मनुष्यों के ऐसा कहता ।

यदि मनुष्यों को नसीहत करता है कि तुम कहो तब भी ठीक नहीं क्योंकि उससे गुनाह का शुभारम्भ भी अल्लाह के नाम से होना सादिक आएगा और उसका नाम भी बदनाम हो जाएगा यदि वह क्षमा और दया करने वाला है तो उसने अपने प्राणियों में मनुष्यों के आराम के लिए दूसरे जानदारों को मारकर कठोर यातना देकर और जबह कराकर गोश्त खाने की (मनुष्य को) इजाज़त क्यों दी ?

क्या वे जानदार, बे गुनाह और ईश्वर के बनाए हुए नहीं हैं ? और यह भी कहना था कि “ईश्वर के नाम पर अच्छी बातों का शुरारंभ” खराब बातों का नहीं । ये शब्द उलझे हुए हैं । क्या चोरी, व्याभिचार, झूठ बोलना अधर्म कामो का शुभारम्भ भी ईश्वर के नाम पर किया जाए ? इसी कारण देख लो कि कसाय आदि मुसलमान गाय आदि की गर्दन काटने में भी “बिस्मिल्लाह” पढ़ते हैं (अर्थात ईश्वर का नाम लेते हैं ) जब इसका यही मतलब है तो बुराइयों को भी मुसलमान ईश्वर के नाम पर करते हैं और मुसलमानों का ईश्वर दयावान भी साबित नहीं होता क्योंकि उसकी दया उन जानवरों व जान दारों के लिए नहीं है और यदि मुसलमान इसका मतलब नहीं जानते तो इस कलाम का उतारा जाना बेकार है । यदि मुसलमान इसका अर्थ और करते हैं तो फिर इसका असल अर्थ क्या है ?

[ आरंभ अल्लाह के नाम के साथ ऐसा न कहता बल्की आरंभ वास्ते हिदायत मनुष्यों के ऐसा कहता” मेरी बात पर गौर करे इससे पहले की हम सनाउल्लाह साहब का जवाब रखें कुछ बातें साफ कर देता हूं। पहली बात यह की अगर स्वामी दयानन्द सरस्वती को यह एहतराज़ है की अल्लाह का कलाम अल्लाह के नाम से शुरु नही होना चाहीए क्योंकी अल्लाह किस अल्लाह का नाम लेकर शुरु करेगा ? अल्लाह का तो कोई अल्लाह नही हो सकता क्योंकी अल्लाह एक ही हैं तब जबकी आर्य समाज भी एकेश्वर वादी हैं तो वेद भी परमेश्वर की स्तुति (तारीफ,गुणगान, प्रशंसा) से शुरु नही होने चाहीए ! यदि वेद ईश्वर ने बनाए हैं तो वेदिक ईश्वर किस ईश्वर की स्तुति कर रहा है?

अल्लाह शब्द का अर्थ अल्लाह अल और ईलाह से बना हैं ईलाह का अर्थ हैं ईश्वर, परमात्मा,या उपसना योग्य अल अरेबी भाषा में किसी को निश्चित या विशिष्ट करने के लिए लगाया जाता हैं। तब अल और ईलाह मिला कर अल्लाह का अर्थ होगा वही एक उपासना योग्य परमेश्वर।

ऋग्वेद वेद अष्टक १ अध्याय १वर्ग १-२ मण्डल १ सुक्त १ अनुवादक १ मंत्र

हम लोग विद्वानों के सत्कार संगम महिमा और कर्म के देने तथा ग्रहण करने वाले उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टि कायनात) के धारण करने वाले (अपनाने वाले) बारंबार उत्पत्ति के समय स्थूल सृष्टी के रचने वाले तथा रितु-रितु यानी मौसम दर मौसम मे उपासना (इबादत) करने योग्य और निश्चय करके मनोहर पृथ्वी(जमीन अरेबी का अर्द शब्द और उर्दू का जमीन शब्द पृथ्वी के लिए भी आता हैं और पृथ्वी के ऊपरी सिरे के लिए भी और सुवर्ण सोना) आदि रत्नों(जवाहरात) के धारण करने वा देने तथा सब पदार्थ (चीजों) के प्रकाश करने वाले (पैदा करने वाले) परमेश्वर (खुदा) की हम स्तुति (तारीफ) करते हैं।

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1

पंडित हरिशरण सिद्धान्तलंकार जी का अनुवाद

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1

मैं अग्नि – पुरोहित – यज्ञ के देव ऋत्विज् – होता व रत्नधाता प्रभु की स्तुति करता हूँ ।

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1

नोट – यहां इस मंत्र को प्रस्तुत करने से सनाउल्लाह साहब का मतलब यह था की अगर वेद ईश्वरीय ग्रंथ हैं तो ऋग्वेद का पहला ही मंत्र यूं होना चाहीए था:-

“हे मनुष्यों मुझ सत्कार संगम महिमा और कर्म के देने तथा ग्रहण करने वाले उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टी(कायनात) के धारण करने वाले (अपनाने वाले) बारंबार उत्पत्ति के समय स्थूल सृष्टी के रचने वाले तथा ऋतु- ऋतु यानी मौसम दर मौसम में उपासना इबादत) करने योग्या (लायक) और निश्चय करके मनोहर पृथ्वी(जमीन अरेबी का अर्द शब्द और उर्दू का जमीन शब्द पृथ्वी के लिए भी आता हैं और पृथ्वी के ऊपरी सिरे के लिए भी) और सुवर्ण (सोना) आदि रत्नों(जवाहरात) के धारण करने वा देने तथा सब पदार्थों (चीजों)के प्रकाश करने वाले (पैदा करने वाले) मुझ परमेश्वर (खुदा) की तुम लोग स्तुति (तारीफ़) करो”

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1

लेकीन जो ऋग्वेद के पहले ही मंत्र में लिखा हैं परमेश्वर की हम स्तुति करते हैं, से स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद एवम अन्य वेद ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं नाकी यह ईश्वर की तरफ से हैं।

इसके अलावा ऐसे मंत्र और भी जगह है। जैसे यजुर्वेद अध्याय 2 मंत्र 18 (हिन्दी हक़़ प्रकाश मे गलत छप गया हैं यजुर्वेद अध्याय 21 मंत्र 18)

यजुर्वेद अध्याय 2 मंत्र 18 ]

अब आगे सनाउल्लाह साहब का जवाब दर्ज होगा।

आपत्ति का जवाब

स्वामी जी यदि ऋग्वेद मंत्र (1) को देख लेते तो यह बेजा आपत्ति न कर पाते । समाजियो ! तनिक ध्यान से सुनो !

“हम लोग इस अग्नि की प्रशंसा करते हैं जो कि हमारा पूरा हित करने वाली, यज्ञों का हवन करने वाली, रौशन मौसमों को बदलने वाली, समस्त तत्वों को पैदा करने वाली है।”

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1

बताओ ! यदि अग्नि से (आप के कथनानुसार) ईश्वर ही तात्पर्य है और वेद भी अल्लाह का कलाम है तो उस कलाम को मानने वाला कौन है ? इसके अलावा यजुर्वेद अध्याय 2 मन्त्र 18

यजुर्वेद अध्याय 2 मंत्र 18

और अथर्ववेद कांड 6 सूक्त 98 मंत्र 1

अथर्ववेद कांड 6 सूक्त 98 मंत्र 1

यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 14

यजुर्वेद अध्याय 32 मंत्र 14

यजुर्वेद अध्याय 20 मन्त्र 50

यजुर्वेद अध्याय 20 मंत्र 50

ऋग्वेद मण्डल 8 सूक्त 1 मंत्र 1

ऋग्वेद मंडल 8 सूक्त 1 मंत्र 1

यजुर्वेद अध्याय 15 मन्त्र 54

यजुर्वेद अध्याय 15 मंत्र 54

अब इसका शोधपूर्ण जवाब सुनिए ।

अब उपरोक्त मन्त्रों को देखकर बताइए की यहां ईश्वर किस ईश्वर की स्तुति कर रहा है यदि वेद ईश्वर की वाणी है?

ईश्वरीय किताबों का मुहावरा और कलाम की शैली कई प्रकार की होती है कभी तो ईश्वर स्वयं बात कहने के रूप में अपना आदेश स्पष्ट करता है और कभी गायब से और कभी कोई ऐसा मतलब जो दुआ या निवेदन के रूप में बन्दों को सिखाना अपेक्षित हो उसे बंदे की जबान से व्यक्त कराया जाता है । सूरह फातिहा भी इसी आखिरी किस्म से है जिस पर स्वामी जी ने अनभिज्ञता के कारण ईश्वरीय ग्रन्थ पर आपत्ति कर दी हा, यह भली कही कि गुनाह का शुरारंभ भी ईश्वर के नाम से होगा जिसका जवाब यही काफी है, कि

नांच न जाने आंगन टेढ़ा

न जाने आपको इतनी जल्दी क्या थी कि कुरआन शरीफ और अन्य ईश्वरीय किताबों का रद्द करने बैठ गए । पहले किसी अरबी मदरसा में रहकर कुरआन को समझ लेते मगर वाह री सच्चाई, कि अपना विचार व्यक्त किए बिना नहीं रह सकती, स्वामी जी वाक्य न0 73 में लिखते हैं ।

जो धर्म दूसरे धर्मों को, कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्धालु हों झूठा बता दे और अपने को सच्चा स्पष्ट करे । इस से बढ़कर झूठा धर्म और कौन हो सकता ।

सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 आपत्ति 80

(पहले पैराग्राफ की पांचवी लाइन से पढ़ें)

अतः स्वामी जी महाराज और उनके चेलों के लिए तो इतना ही काफी है कि कुरआन शरीफ के मानने वाले करोड़ों लोग हैं फिर जो तुम उसकी शिक्षा को झूठा और गलत कहो तो तुम से अधिक . . . . . . कौन है ?

समाजियो ! मुंह न छुपाओ । हुआ क्या ? यदि चेले बनने का इकरार करो तो हम तुम्हें एक जवाब सिखाते हैं । सुनों ! साफ कह दो स्वामी जी कोई ईश्वरीय न थे कि उनकी सारी बातें मानने योग्य हों बल्कि वे समाज के एक सदस्य थे जिनसे गलती भी संभव थी । इस कथन में भी वे गलत चाल चले कि अधिसंख्यक वाली राय को हकीकत के विरुद्ध समझा तो यदि तुम यह कह दोगे तो तुम मुक्त हो जाओगे लेकिन चूंकि हम इस समय स्वामी जी के मुकाबिल हैं । उनके जवाब देने को उनके कथनों को नकल करना काफी होगा ।

मतलब आयत का साफ है कि हम ईश्वर की प्रशंसा को जो आगे कलाम में आती है ईश्वर के नाम से आरंभ करते हैं, हां यदि कोई काम भी नेक या वैध हो और ईश्वर के नाम से आरंभ हो जाए तो यह अच्छी ही बात है और पुण्य का कारण है ।

हराम काम को बिस्मिल्लाह ( ईश्वर के नाम से ) से आरंभ करना या हराम चीज़ बिस्मिल्लाह पढ़ कर खाने से आदमी काफिर हो जाता है, हां जानवरों के जबह की ओर भी मौके पर इशारा किया है ।

स्वामी जी ! निश्चय ही यह बड़ी दया की बात है कि बेजबान जानवरों को जबह करके उनकी कैद के दिन पूरे कराए जाएं जिससे दो लाभ अपेक्षित हैं । एक तो वे आत्माएं जो (आपके कथनानुसार) बुरे कर्मों से उन हैवानी शरीरों में आकर फंस रही हैं (देखो उपदेश मंजरी पृष्ठ – 60) कैद से छुटकारा पाएं । दूसरे यदि वे मनुष्य की भान्ति बीमार रह कर अपनी मौत मरें तो कितने कष्टों के बाद उनकी आत्मा निकले । स्वामी जी के हमें कहीं दर्शन हो जाएं तो हम उनसे पूछे मौत की सख्ती कितनी कठिन काम है अतः इस सख्ती के मुकाबले में जबह की सख्ती कोई चीज नहीं । मनुष्य को बीमारी और आत्मा के निकलने से जो तकलीफ होती है स्वामी जी उसका अनुमान लगाते तो यह आपत्ति कभी अपनी जबान पर न लाते बल्कि समाज का पहला उसूल यही ठहराते कि सुबह उठकर हर समाजी का कर्तव्य है कि बन्दूक लेकर दस पांच चिड़यों को या मक्खियों ही को मारा करे यद्यपि मनुष्य अपनी तकलीफों को स्वयं ही व्यक्त कर सकता है और हकीमों के मशवरों से उन तकलीफों में कभी-कभी कमी भी संभव है मगर बेचारे बेजबान जानवर क्या कहें और किस को कहें ?

हां कोई साहब यह सवाल करें कि इसी तरह मनुष्य को भी ज़बह करके मौत की सख्ती से बचा लेना चाहिए तो हम कहेंगे – – ‘नहीं’ इसलिए कि मनुष्य सारे प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है इस लिए हर जमाने में हर हुकूमत मनुष्य की हत्या करने पर दंड देती है इसके अलावा मनुष्य के सगे संबंधी और दोस्त कभी इस बात की इजाजत नहीं दे सकते क्योंकि उसके मरते दम तक उनको जिन्दा रहने की उम्मीद होती है जिससे उनकी बहुत सी आशाएं व मनोकानमाएं जुड़ी होती हैं अतः इन कारणों से मनुष्य को मारने में दंगा फसाद का खतरा है इस लिए न किसी समय के शासक ने न किसी धर्म शास्त्र ने इसकी अनुमति दी, हां हैवानात के जबह में चूंकि कोई फसाद नहीं इसलिए सामान्य विश्वसनीय धर्मों में जानवरों के जबह की अनुमति पायी जाती है यहां तक कि हिन्दू धर्म शास्त्र (मनु स्मृति आदि) में भी ।

स्वामी जी ! विश्व व्यवस्था से बढ़कर कोई सद कर्म नहीं । यह व्यवस्था हमें शिक्षा दे रही है कि इस संसार में ईश्वर ने अपने प्राणियों को दो ही प्रकार पर पैदा किया है । बरतने वाली और इस्तेमाल योग्य । कुछ सन्देह नहीं कि मनुष्य सब चीजों को बरतने वाला है और सारी वस्तुएं उसके बरतने योग्य हों । स्वामी जी ! क्या यह ईश्वर की दया नहीं कि उसने हमारी सवारी के लिए हाथी, ऊंट, घोड़ा आदि और हल चलाने को बैल, भैंस आदि पैदा किए । क्या उससे अधिक भी कोई व्यक्ति दया खाकर अपनी सवारी पर दस कोस चलकर दो कोस के लिए उसे अपने ऊपर बिठाना चाहे तो सारे विद्धान और मूर्ख लोग उसे मूर्ख न समझेंगे यद्यपि आपकी समझ के अनुसार यह क्या दया है कि एक जानदार दूसरी जानदार वस्तु को अकारण इतना दबाए कि सारा दिन रात उस पर सवारी करे । आप एक कदम न चलें और वह बेचारा उसको उठाए फिरे और सवार दया न करे ।

समाजियो ! कायनात की व्यवस्था से शिक्षा ग्रहण करो जो सब गुरुओं का गुरू है । बनावटी गुरुओं से गलती संभव है इसमें कण भर गलती न पाओगे ।

इसके अलावा यदि हम इन हैवानों को जबह न करें तो क्या करें । रखने से हमें लाभ ही क्या । कुछ हैवान तो दूध आदि भी दें मगर कुछ ऐसे हैं कि दूध नहीं देते और दूध देने वाले भी एक आयु को पहुंच कर नहीं देते यद्यपि हम उनको खाना दें और रक्षा भी करें जैसे मुर्गी मुर्गा आदि । यदि इनके अंडे खाएं तो आप इसकी भी अनुमति नहीं देते और यदि अंडों से बच्चे निकलवाएं तो फिर क्या यही प्रमाण देंगे । अतः या तो स्वामी जी ऐसे जानवरों के खाने की इजाजत दें जिनसे मानव जाति को कुछ लाभ न हो या कोशिश करके उनसे कोई लाभ दिलवाएं । मगर याद रहे कि प्रकृति का मुकाबला करके लाभ तो दिलवा नहीं सकते, हां यदि दबी जबान से खाने पीने की अनुमति दें तो वही सवाल पैदा होगा कि वे जानदार और ये गुनाह ईश्वर के बनाए हुए नहीं ? और यदि यह भी न करें और जानवरों को मनुष्यों के बराबर ही अधिकार दिलाना चाहें तो कृपा करके पहले दूसरी प्रकार के अधिकारों में समानता कराएं फिर उसका नाम लें ।

हमारे पास वेद मंत्रों के हवाले भी हैं जिनसे साबित होता है कि पहले जमाने में हवन में गाय घोड़े आदि जबह किए जाते थे मगर चूंकि वह अनुवाद स्वामी जी का किया हुआ नहीं बल्कि यूरोपीन विद्वानों का किया हुआ है । खतरा है कि हमारे समाजी दोस्त जो स्वामी जी के श्रद्धालु हैं उस अनुवाद से इन्कारी हो जाएं । इसलिए बजाए उन मंत्रों के स्वामी जी के कलाम का हवाला देना भी बेहतर है । आप इस किताब के चौदहवें अध्याय में लिखते हैं . . . . . कि . .

जो धर्म दूसरे धर्मों को, कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्धालु हों झूठा बता दे और अपने को सच्चा स्पष्ट करे । इस से बढ़कर झूठा धर्म और कौन हो सकता ।

सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 आपत्ति 80

(पहले पैराग्राफ की पांचवी लाइन से पढ़ें)

अतः समाजियो ! बताओ, मांसाहारियों की संख्या गिन सकते हो ? गिनते हुए पहले अपनी मांस पार्टी1 से आरंभ करना।

स्वामी जी के मददगार

1 – मौलवी साहब! आपने स्वामी जी की आपत्ति को क्या समझा जिसका जवाब दिया । स्वामी जी ने जो आपत्ति की थी वह यह थी कि कुरआन चूंकि मुहम्मद के कथनानुसार ईश्वरीय कलाम होने से सर्वकालिक और अनादिकालिक है अतः उसका आरंभ नहीं हो | सकता फिर आरंभ करने का कलिमा निरर्थक है ।

2 – अल्लाह का यह कलाम ईश्वर के नाम पर आरंभ करना और भी आश्चर्य जनक है क्योंकि इसकी ज़रूरत अल्लाह को नहीं बल्कि मनुष्य को है और मनुष्य के लिए ईश्वर का कलाम मार्ग दशर्क के रूप में होता है अतः मार्गदर्शन मनुष्यों के लिए होना चाहिए था ।

3 – मौलवी साहब आपने शायद यह समझा कि स्वामी जी ने उसके स्वयं संबोध करने न करने पर आपत्ति की है कदापि नहीं उनकी आपत्ति थी कि अल्लाह को यह कलाम अपने नाम से आरंभ करने की क्या जरूरत थी । अल्लाह के नाम से तो मनुष्य आरंभ किया करते हैं । ( आर्य मुसाफिर मार्च 1902 ई0 )

आपत्ति का जवाब

अब ऐसे ज्ञान पर कोई कैसे न कुरबान हो जाए । पूरा मतलब तो इस वाक्य का इन मददगार साहब ही ने समझा होगा हमने तो कुछ आर्यों को भी यह वाक्य दिखाया मगर वे भी कानों पर हाथ रख गए । मतलब यह कि कुछ भी हो स्वामी जी के असल सवाल पर किसी व्याख्या या समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं अतएव वे स्वयं ही । लिखते हैं

“क्योंकि यदि ईश्वर का बनाया होता तो आरंभ साथ अल्लाह के न कहता बल्कि आरंभ वास्ते हिदायत मनुष्यों के ऐसा कहता।”

देखिए स्वामी जी को “आरंभ” के शब्द पर कोई आपत्ति नहीं क्योंकि यदि “आरंभ” के शब्द पर कोई आपत्ति होती तो अपनी इस्लाह में आरंभ का शब्द क्यों लाते जिससे यह साफ समझा जाता है कि आपकी पुष्टि या समर्थन का नम्बर अव्वल अथति अनादिकालिक होने की वजह से आरंभ न होना बिल्कुल बे समझी की पुष्टि है ।

मददगार साहब के समर्थन का नम्बर (2) भी हैरत से खाली नहीं है इसका मतलब भी वे स्वयं ही समझे होंगे । खैर कुछ भी हो मतलब वही है जो हम बतला आए हैं कि बन्दों के प्रदर्शन के लिए ऐसा किया गया । हां स्वामी जी की यह आपत्ति कि गुनाह का आरंभ भी अल्लाह के नाम से अवश्य आएगा इसका जवाब भी हो चुका कि यहां सब कामों का आरंभ करना तात्पर्य नहीं बल्कि उसी काम का जो बिस्मिल्लाह के आगे है अर्थात अलहम्दु लिल्लाह या कोई और इसी प्रकार का भला काम ।

मददगार साहब ने यह भी आपत्ति की है कि यह बिस्मिल्लाह पारसियों के कलाम से लिया गया है अर्थात “बनाम बखशाइन्दा दाद गर” अफसोस है कि उन लोगों को आपत्ति करने की राल क्यों ऐसी टपका करती है कि दूसरे कलाम के अर्थ समझने से पहले ही अनेक आपत्तियां जमा देते हैं यद्यपि स्वामी जी भूमिका सत्यार्थ प्रकाश में बड़ी ताकीद से लिखते हैं कि

“हर कलाम का मतलब कहने वाले की मन्शा पर होना चाहिए।”

यदि यह बात मान भी ली जाए कि बिस्मिल्लाह पारसियों के कलाम का अनुवाद है तो मुसलमानों के धर्म के अनुसार इसके ईश्वरीय होने पर क्या आपत्ति ? हमारा तो यह धर्म नहीं कि ईश्वरीय कलाम वह होता है जिससे पहले न तो वह और न उसका अनुवाद दुनिया में कहीं हुआ हो न हो । देखिए कुरआन मजीद स्पष्ट शब्दों में इस्लाम से पूर्व की ईश्वरीय किताबों की तसदीक करता है और स्पष्ट शब्दों में कहता है ।

“तुम मुसलमानों को और तुम से पहले किताब वालों को यही आदेश दिया गया था कि ईश्वर का भय दिल में रखो ।”

चूंकि आर्यों की गलती का मौलिक पत्थर यहीं ना समझी है कि ईश्वरीय कलाम का गुजरा हुआ न होना उनके निकट शर्त है अर्थात यह कहते हैं कि ईश्वरीय वाणी वहीं है जो दुनिया के प्रारंभ में उसके बाद कोई ईश्वरीय वाणी नही इसी लिए तौरेत और इंजील और कुरआन आदि को ईश्वरीय नहीं मानते । अतः हम चाहते हैं कि उनकी इस गलती का सुधार इसी जगह कर दें।

यद्यपि यह दावा उनका वेद_2 के ईश्वरीय होने पर भी मुश्किल पैदा करता है क्योंकि वेद में भी लिखा है कि

“जिस प्रकार प्राचीन काल के विद्वान तुम्हारे पूर्वज समस्त विद्याओं के माहिर गुजर चुके हैं मुझ कादिर मुतलक ईशवर के आदेश का पालन करते रहे हैं तुम भी उसी धर्म के पाबन्द रहो ताकि वेद में बताए हुए धर्म का तुम को निस्संदेह ज्ञान हो जाए।”

(वृग वेद अशटक – 8 अध्याय 8)

इस वाक्य से साफ़ समझ में आता है कि वेद किसी ऐसे युग में बना है कि उस दौर में दुनिया की आबादी इतनी अधिक हो चुकी थी कि उस समय के मौजूदा लोगों को बुजुर्गों के हाल से शिक्षा ग्रहण करने की या यूं कहिए कि वेद के लेखकों को आवश्यकता पड़ती थी और वे उनका उदाहरण लोगों को बताते थे यदि कहे कि दुनिया का सिलसिला चूंकि हमारे (आर्यो के) निकट प्राचीन काल से है तो इस दुनिया के आरंभ ही में उस समय के वर्तमान लोगों को पहले लोगों की जो पहली दुनिया में गुजर चुके थे चाल अपनाने की प्रेरणा दी गयी है तो इसका जवाब यह है कि ऐसा कलाम जैसा कि वेद का उपरोक्त आदेश है इस अवसर पर बोला जाया करता है जहां सम्बोधित लोगों को पहले बुजुर्गों का ज्ञान और जान कारी हो यद्यपि इस दुनिया के पैदा हुए लोगों को पहले बुजुर्गों की कोई खबर नहीं थी किसी को यदि हो तो बताइए ।

इसके अलावा बड़ी परेशानी यह है कि आर्यो के धर्म में वेद में वेद ईश्वर के ज्ञान का नाम हैं तो जब से ईश्वर है तब से वेद है यद्यपि वेद के शब्द वर्तमान संसार के नष्ट होने से नष्ट हो जाते हैं मगर उसके मायना ईश्वर के ज्ञान में मौजूद रहते हैं इस दुनिया से पहली दुनिया में भी होगा बल्कि जब से ईश्वर है तब से होगा यद्यपि ईश्वर से पहले कोई ज़माना नहीं जिसमें वे बुजुर्ग गुजर चुके हैं। जिनकी चाल अपनाने का उन मौजूद लोगों या हमें आदेश होता है।_3 मगर मुसलमानों और ईसाइयों का धर्म यह नहीं कि ईश्वरीय संकेत दुनिया के आरंभ ही में होगा तो सही वर्ना गलत । बल्कि असल यह है कि ईश्वर की ओर से एक विचार का बिना कुछ किए दिल में डाला जाना ईश्वरीय संकेत है । किसी लेखक के दिल में किसी का आ जाना भी यद्यपि एक मायना से इलहाम है मगर यहां पर जिस ईश्वरीय संकेत से बहस है वह यह नहीं । बल्कि वह तात्पर्य है जो किसी अभ्यास या सोच या चितन का नतीजा न हो बल्कि मात्र अल्लाह की ओर से इलका (हिदायत) हो चाहे वह विचार इस इलहाम से पहले तमाम लोगों को मालूम हो या न हो चाहे दुनिया के आरंभ में हो या मध्य में या अन्त में हो ।

क्योंकि इस बात से कोई दलील बाधा नहीं कि एक किताब या एक विषय जो पहले किसी नबी को इलहाम हुआ था उसके बाद भी किसी नबी को इलहाम हो जाए । इसका उदाहरण ऐसा समझो कि किसी व्यक्ति को परीक्षा पास होने की खबर किसी ज़रिए से बिना सरकारी गुजट के पहुंच गयी मगर इसके बाद उसी सरकारी गजट में भी ख़बर आ गयी ।

ठीक इसी तरह नबियों को किसी पूर्व नबी के ईश्वरीय संकेत द्वारा कोई बात मालूम हो जाया करती है लेकिन नए सिरे से भी वही विचार ईश्वरीय संकेत के रूप में मिल जाता है । ठीक यही समस्त पूर्व किताबों और कुरआन शरीफ की मिसाल है । मुसलमानों में जो यह मशहूर है कि तोरात और इंजील कुरआन से निरस्त है इसके भी यह अर्थ हैं कि कुरआन द्वारा वे विचार पूरी तरह पहुंच कर मानो रजिस्टर्ड पत्र की तरह सुरक्षित हो चुके हैं ऐसे कि इससे पहले न थे क्योंकि बाद में इन किताबों में बहुत कुछ मिला लिया गया था मगर जो जो बातं, पथ प्रदर्शन कुरआनी ईश्वरीय संकेत द्वारा पहुंची तो उसके बारे में यह संदेह बिल्कुल दूर हो गया । और यही अर्थ है कुरआन शरीफ़ की आयतों का ।

“कुरआन पहली किताबों की पुष्टि करता है और उनपर निगहबान भी है तो तुम लोगों के बीच उसके अनुसार फैसला करो जो अल्लाह ने उतारा है ।”

(सूरह माइदह – 43)

तो बिस्मिल्लाह से पहले बिस्मिल्लाह का अनुवाद दुनिया में मौजूद होना उसके ईश्वरीय होने के खिलाफ नहीं । मगर जब पैगम्बरे इस्लाम (सल्ल0) को यह पथ प्रदर्शन ईश्वर की ओर से मिल गयी तो ईश्वरीय हो गयी । शुक्र है कि जो वेद मन्त्र हमने आरंभ में जवाब में नक्ल किए थे उनके बारे में मददगार साहब ने भी कुछ न कहा और खामोश होकर पास से गुजर गए और खामोशी मान लेना सहमत होने के दर्जे में है ।

मददगार साहब ने मांसाहारी पर एक और आपत्ति भी की है कि अच्छे से अच्छा जानवर तो खा लेते और भयानक दरिन्दों (शेर, चीता आदि) को हराम समझते हो । यह सवाल मददगार साहब का उस समय उचित था जब वे मांसाहारी को वैध मान लेते और उसके विवरण पर उनको आपत्ति होती लेकिन जिस सूरत में वे पूरी तरह मांसाहारी के इन्कारी हैं तो फिर उसे विस्तार में जाकर प्रस्तुत करने का उनको क्या हक है ? क्या यदि हम एक प्रकार के जानवरों को खा लिया करें तो आर्य लोग हम से सहमत हो जाएंगे ? कदापि नहीं ।

चूंकि लाला साहब और उनके अन्य साथियों के कलम से यह सवाल हमेशा निकला करता है इसलिए मुनासिब है कि इसका जवाब भी दे दिया जाए । गाय का सम्मान क्यों न हो । लाला साहब यदि चिकित्सा संबंधी और मेडिकल उसूलों को अपने समक्ष रखते तो कभी यह आपत्ति न करते । चिकित्सा संबंधी विषय पर छोटी छोटी किताबों में यह बात मिलती है कि जो आहार मनुष्य खाता है वह शरीर का अंश बन कर अपना प्रभाव दिखाता है । इस तिब्बी तहकीक से बढ़कर शरई तहकीक है क्योंकि तिब्ब तो केवल शरीर की रक्षक है मगर शरीअत शरीर और आत्मा दोनों की रक्षक है । लेकिन इन दोनों में आत्मा की रक्षा सर्वोपरि है जिसकी रक्षा का अर्थ तो सब जानते हैं कि बाहरी कष्ट व तकलीफ़ से रक्षा की जाए । आत्मा की रक्षा का अर्थ यह है कि उसे बुराइयों से बचाया जाए जो उसके लिए दूसरे जीवन में तबाही का कारण होती है ।

अतः जो चीजें या जानवर शरीअत ने हराम किए हैं वे उसी उसूल की दृष्टि से किए हैं । इन दरिन्दे जानवरों को तो आप भी खूख्वार मानते है । जिनके खाने से निश्चय ही आदमी पूरा नहीं तो आधा खूख्वार हो जाएगा । क्या आप बता सकते हैं कि चोरी के माल से पूरी कचौरी या भाजी खरीदना क्यों हराम है प्रत्यक्ष में शारीरिक हानि तो उसमें कोई नजर नहीं आती मगर चूंकि दूसरे जीवन में इसकी हानि सामने आ जाएगी इसलिए हराम है अतः इसी तरह सारे कामों को समझ लीजिए जो शरीअत में हराम हैं कि जो चीज़ मनुष्य के दूसरे जीवन या उसी जीवन में उसके आचरण पर बुरा प्रभाव डालती हो उसे शरीअत ने हराम ठहराया है ।

आप लोग नैतिक प्रभाव के विवरण से परिचित न होंगे । नैतिक प्रभाव कभी तो यह होता है कि उसके काम के करते समय आदमी कोई अनुचित हरकत कर गुजरता है जैसे शराब की मसती में नाजायज हरकतें करता है । एक नैतिक प्रभाव यह होता है कि उसकाम के करने से या उस चीज़ के खाने से भविष्य में उसकी आत्मा को हानि पहुंचती है उस पर बुरा प्रभाव पड़ता है और नतीजा यह निकलता है कि उसकी नेक कामों में तबियत नहीं लगती ।

फिर यदि वह इसका जल्दी इलाज न करे तो धीरे धीरे उसकी नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि वह बिल्कुल मूर्ख या पागल की तरह ला इलाज हो जाता है फिर उसे किसी नेक काम को करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता कुरआन से इस दावे का सबूत चाहो तो हर सूरह व आयत से मिल सकता है । एक आयत सुनो

“जब वे लोग टेढ़े हुए तो अल्लाह ने उनके दिलों को टेढा कर दिया”

( सूरह सफफ – 5 )

यदि अपने स्वामी जी के कलाम से सनद चाहो तो सुनो-स्वामी जी बौद्धों के बारे में क्या लिखते हैं

“उन्होंने (बौद्ध धर्म वालों ने) किस दर्जा अपनी अज्ञानता में प्रगति की है जिसका उदाहरण उनके सिवा दूसरा नहीं हो सकता । विश्वास तो यही है कि वेद और ईश्वर का विरोध करने का उन्हें यही नतीजा मिला ।”

( सत्यार्थ प्रकाश 541 – – अध्याय 12 न0 17 )

इस वाक्य से साफ़ मालूम हुआ कि एक गुनाह दूसरे गुनाह का कारण बन जाता है अतः जिस दर्जा में कोई आहार रूहानी तौर पर बुरा प्रभाव करने वाला होता है उसी अन्दाज़ से शरीअत में मनाही होती है यही कारण है कि शरीअत इस्लाम में कुछ चीजें सख्त हराम हैं और कुछ किसी दर्जा कम जिनको मकरूह कहते हैं ।

दरिन्दे जानवरों की हुरमत भी इसी उसूल पर आश्रित हैं मतलब यह है कि एक उसूल है कि समस्त काम इसी नियम के मोहताज हैं । हा इस बात का पता लगाना कि कौन सी चीज़ या काम अनैतिक हैं । और वह आध्यात्मिक जीवन में बुरा प्रभाव डालने वाली है और कौन | ऐसी नहीं है यह हरेक के बस का काम नहीं बल्कि उनका काम है । जिनको ईश्वरीय संकेत मिला करता है जिससे आपको भी इन्कार न होगा क्योंकि ईश्वरीय संकेत की जरूरत तो आप लोग भी मानते हैं बल्कि आप स्वयं अपने आपको किताब वालों के रूप में जानते हैं । इसी उसूल से नुबुवत की जरूरत मालूम होती है ।

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आपत्ति नंबर 2

क़ुरआन सूरह फ़ातिहा

आयत : 2

“सारी प्रशंसा वास्ते अल्लाह के जो सारे जगत का पालनहार क्षमा करने वाला कृपालू है”

(आयत : 2)

आपत्ति – 2

यदि कुरआन का अल्लाह दुनिया का पालनहार होता और सब पर दया और क्षमा किया करता तो दूसरे धर्म वालों और हैवानात आदि को भी मुसलमानों के हाथ से कत्ल का आदेश न देता । यदि क्षमा करने वाला है तो क्या पापियों पर भी दया करेगा ? और यदि करेगा तो आगे जिक्र आएगा कि “काफिरों को क़त्ल करो” अर्थात जो कुरआन और पैगम्बर को न मानें वही काफिर है । ऐसा क्यों कहता ? इसलिए कुरआन अल्लाह का कलाम साबित नहीं होता ।

आपत्ति का जवाब

इस वाक्य में आपत्ति कर्ता स्वामी जी ने जिहाद की ओर इशारा किया है और अपनी आदत के अनुसार आगे भी कई एक अवसर पर इशारा करेंगे इसलिए उचित मालूम होता है कि जिहाद की हकीकत वेद और कुरआन से इसी जगह स्पष्ट कर दी जाए और आगे आने वाले अवसरों पर इसी जगह के हवालों से काम लिया जाए । स्पष्ट रहे कि वेद और वेद के अलावा मनुस्मृति आदि में जिनको स्वामी जी प्रमाणिक और विश्वसनीय मानते हैं जिहाद के बारे में विभिन्न प्रकार के निर्देश मिलते हैं ।

वेद की पहली हिदायत जंग में काम आने वाले हथियारों को ठीक करने के बारे में है जो ऋग्वेद मंडल प्रथम सूक्त 39 मन्त्र 2 में लिखा है ।

“ऐ आज्ञा पालक लोगों ! तुम्हारे हथियार अग्नि आदि तोप व भाले, तीर व तलवार आदि शास्त्र विरोधियों को पराजित करने और उनको रोकने के लिए प्रशंसनीय और सट्टढ़ हों । तुम्हारी सेना सतर्क व होशियार हो ताकि तुम सदैव विजयी होते रहो ।”

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 39 मंत्र 2

एक और स्थान पर दुआ यूं लिखी हुई है ।
“मैं उसका रक्षक कायनात के स्वामी मान एवं प्रताप वाले अत्यन्त बलवान और विजयी सारी कायनात के राजा सर्व शक्तिमान और सबको शक्ति प्रदान करने वाले परमेश्वर को जिसके आगे समस्त ज़बरदस्त बहादुर आज्ञा पालक सर झुकाते हैं । और जो न्याय से प्राणियों की रक्षा करने वाला इन्द्र है ।

“हर जंग में विजय पाने के लिए आमन्त्रित करता हूं और शरण लेता हूं।”

यजुर्वेद अध्याय 20 मंत्र 50

एक जगह परमेश्वर दुआ देता है ।

“ऐ मनुष्यो ! तुम्हारे हथियार अर्थात तोप बन्दूक_1 आदि अग्नि धावक शस्त्र और तीर व कमान तलवार आदि हथियार मेरी कृपा से शक्ति शाली और साहस वर्धक कार्य वाले हो तुम दुश्मनों की सेना को पराजित करके उन्हें पछाड़ो । तुम्हारी सेना विश्व व्यायी हुकूमत इस धरती पर स्थापित हो और तुम्हारा शुत्र (घणात्मक खतरनाक तलवार म्यान वाली) पराजित हो और नीचा देखे। (जैसा गाजी महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी ने नीचा देखा ?)
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 39 मंत्र 2
(उपरोक्त ऋग्वेद मंत्र भी यही है)
एक स्थान पर लिखा है ।

“ऐ दुश्मनों के मारने वाले जंग के नियमों में माहिर निडर, साहसी, प्रिय, प्रतापी और जवां मर्द तू सब प्रजा को प्रसन्न रख । परमेश्वर के आदेश पर चलो और घ्रणित शुत्र को ( हे महाराज इतनी नाराजी ) पराजित करने के लिए लड़ाई का कार्य पूरा करो । तुमने पहले मैदानों में शत्रुओं की सेना को पछाड़ा है । तुमने इन्द्रियों को पराजित और धरती को विजयी किया है । तुम शक्तिशाली बाजू वाले हो । अपनी बाजू की ताकत से दुशनों को समाप्त करो ताकि तुम्हारे बाजू का जोर और ईश्वर की दया व कृपा से हमारी विजय हो ।

(अथर्ववेद कांड 6 , अनुवादक वरग 95 मन्त्र 3)

मनु जी का आदेश यह है-

“जब जनता प्रेमी राजा कोई अपने से छोटा चाहे बराबर चाहे बड़ा जंग के लिए बुलाए तो क्षत्रियों के धर्म को याद करके जंग के मैदान में जाने से अपने आपको न रोके , बल्कि बड़ी होशियारी के साथ उनसे जंग करे जिससे अपनी विजय हो ।”

(सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 6 पेज नंबर 125, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट)

एक स्थान पर आदेश है ।

“किसी समय उचित समझे, दुश्मन को चारों ओर से घेर कर रोक रखे और उसके देश को तकलीफ पहुंचा कर चारा_1, खुराक पानी और अन्य सामान को नष्ट और खराब कर दे।”

“शत्रु के तालाब, नगर के प्रकोट और खाई को तोड़ फोड़ दे, रात्रि में उनको भय देवें और जीतने का उपाय करें ।”
सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 6 पेज नंबर 135, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट)

(धिक्कार है समाजियो ! यह दया कैसी ? देखो मनु महाराज जी)

एक जगह आदेश है ।

“अपने मतलब की पूर्ति के लिए उचित या अनुचित समय में दुश्मन के साथ जो अपने किसी दोस्त की गलती करने वाला हो लड़ना, अर्थात इसी दो प्रकार के आधार पर जंग करना चाहिए ।”
(सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 6 पेज नंबर 132)

नोट:- यहां से कुछ हमारी तरफ से लिखा जा रहा है जो कि दोनों कोष्ठक [ ] के बीच मे होगा

[“हे अन्न वाले! [व वज्र वाले परमेश्वर]। तुझको स्तुति करने वाले लोग अच्छे प्रकार प्रसन्न करें। तू [हमारे लिए] धन कर, वेद द्वेषों को नष्ट कर।”
[अथर्ववेद कांड 20 सूक्त 93 मंत्र १]

“हम लोग जिस से द्वेष करें और जो हम से द्वेष करे, उस को हम शेर आदि पशुओं के मुख में डाल दें।”

[यजुर्वेद अध्याय 15 मंत्र 15]

“तू [वेद निंदक] को, काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूँक दे, भस्म कर दे।”
[अथर्ववेद कांड 12 सूक्त 5 मंत्र 62]

यजुर्वेद के एक मंत्र में विद्वानों को संबोधित करते हुए लिखा है कि

मैं दुष्ट स्वभाव वाले शत्रुओं के शिरों(Head) को भी छेदन(चीर-फाड़) करता हूँ वैसे तुम भी छेदन करो ।
[यजुर्वेद अध्याय 5, मंत्र 25]

यहाँ वेद मंत्र ख़ुद दुष्ट स्वभाव वाले शत्रुओं के सिरों को काटने की आर्य समाजियों को आदेश दे रहे हैं। यह वेद मंत्र कितना अमानवीय है कि अपने शत्रु के साथ केसा बर्ताव करने का आदेश दे रहा है। ध्यान रहे आर्यों का शत्रु आर्यों के धर्म को ना मानने वाला हर व्यवक्ति है।

जिस ईश्वर ने वेदों में गैर लोगों से ऐसे भयंकर व्यव्हार की शिक्षा दी है और उनको दस्यु, राक्षस, और असुर के ख़िताब दिए हैं, वह ईश्वर पक्षपाती अवश्य है।

और सुनिए अथर्ववेद कहता है

“वेदानुयायी सत्यवीर पुरुष नास्तिकों का नाश करें”
[अथर्ववेद कांड 12 सूक्त 5 मंत्र 54]

अब प्रश्न ये है कि नास्तिक कोन हैं? केवल ईश्वर में आस्था न रखने वाले? चलिए देखते हैं कि स्वामी दयानंद सरस्वती नास्तिक किसको कहते हैं.

“नास्तिक वह होता है, जो वेद ईश्वर की आज्ञा, वेदविरुद्ध पोपलीला चलावे”

[सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 11 पेज नंबर 255]

इस परिभाषा में वह सारे लोग आते हैं जिन की वेदों में आस्था नहीं है जैसे मुस्लिम, ईसाई, जैनी, बोद्ध आदि. इस से यह स्पष्ट होता है कि वेद अन्य धर्मों के लोगों को नष्ट करने की शिक्षा देता है.

स्वामी दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में ब्रह्मोसमाज और प्रर्थ्नासमाज की आलोचना करते हुए लिखते हैं,

“जिन्होंने अँगरेज़, मुसलमान, चंडाल आदि से भी खाने पीने का अंतर नहीं रखा। उन्होंने यही समझा कि खाने और जात पात का भेद भाव तोड़ने से हम और हमारा देश सुधर जाएगा लेकिन ऐसी बातों से सुधार कहाँ उल्टा बिगाड़ होता हे।”
[सत्यार्थ प्रकाश, समुलास ११]

मुसलमान और ईसाई कितने ही सदाचारी हों, स्वामी जी के अनुसार उनके साथ खाना उचित नहीं। यह पक्षपात नहीं तो और क्या हे? क्या आप अब भी ऐसे ‘आर्य समाज’ में रहना पसंद करेंगे? ]

क्या इतने हवालों के बाद भी आपत्ति कर्ता और उनके चेले । जिहाद को मुंह पर लाएंगे और कहेंगे कि ”यदि कुरआन का ईश्वर संसार का पालनहार होता और सब पर क्षमा और दया किया करता तो दूसरे धर्म वालों और जानवरों आदि को मुसलमानों के हाथ से कत्ल कराने का आदेश न देता ।

पाठक जनो ! यह है स्वामी जी का न्याय और यह है उनकी ईमानदारी और फिर कौम का लीडर ।

अल्लाह रे ऐसे हुस्न पे ये हैं तेरी बे नियाजियां

बन्दा नवाज आप किसी के खुदा नहीं |

हमारे इन वेदिक हवालों से जहां जिहाद का मसला हल हो गया । वेद की प्राचीनता और दुनिया का आदिकाल से होना भी असत्य हुआ । पाठक गण तनिक ध्यान से देखें ।

अब इस आपत्ति का जवाब सुनियेः कुरआन में कहीं लिखा कि काफिरों को उनके कुफ्र के कारण मारो और कत्ल करो , बल्कि साफ इर्शाद है ।

“जो तुम से लड़े तुम उनसे लड़ो और लड़ने में अत्याचार न करो, निस्सन्देह अल्लाह अन्याय करने वालों से मुहब्बत नहीं करता ।
(सूरह बकरा – 19)
स्वामी जी । यदि काफिरों को कुफ्र के कारण मारने का आदेश होता तो काफिरों को जनता के रूप में क्यों रखा जाता । यह मसला हमारी किताबों में अनेक अवसरों पर आया है । आगे भी स्वामी जी को जिन-जिन आयतों में से सन्देह होगा दूर किया जाएगा इन्शा अल्लाह ।

पाठको ! आपत्ति करने वालों का न्याय देखिए कि यह आयत (पूरी सूरह फातिहा अन्त तक) ऐसी पाकीज़ा शिक्षा से भरी हुई है । मगर आपत्ति कर्ता को भलाई भी हलक से नहीं उतरी, क्यों न हो मुसलमानों के हाथ से छूत है ।

मददगार साहब से यह तो न हो सका कि इन वेदिक हवालों से इन्कार करते या हमारे शोधपूर्ण जवाब ही को देखते । झट से लिख मारा कि ।

“आपने जितने भी मन्त्र प्रस्तुत किए हैं उनमें से किसी एक में भी यह निर्देश नहीं कि तुम स्वयं अपना धर्म फैलाने के लिए दूसरों से लड़ो या उनको कत्ल करो वहां तो मदनी राजनीति के बारे में न्याय पर आधारित है रंग व कौम, धर्म व समुदाय भेद भाव के बिना समस्त मानव जाति के लिए समान विश्वव्यायी निर्देश हैं जिनका किसी विशेष कौम या धर्म से तनिक भर भी संबंध नहीं, हां यही_1 विषय कुरआन में मौजूद है जिस पर हमारी आपत्ति है और तुम्हारा चू चरा करना गलती है ।”

(आर्य मुसाफिर सितम्बर 1902 ई०)

मददगार साहब यदि न्याय के साथ हमारे शोध पूर्ण जवाब को देखते तो यह बातें मुंह पर न लाते कि कुरआन में धर्म फैलाने के लिए जिहाद हैं और वेद में देशों पर कब्जा करने व राजनीति के लिए । हम प्रतीक्षा में थे कि लाला साहब कुरआन से दावा का सबूत देंगे । मगर प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा रही । मददगार साहब लीजिए ! हम और भी स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि कुरआन शरीफ ईमान लाने को किन शब्दों में ना पसन्द करता है । ध्यान से सुनिए . . . . . . ।

”क्या तू ऐ रसूल लोगों को मबूर करेगा कि वे मुसलमान हो जाएं।”(सूरह यूनुस – 100)

(अर्थात ऐसा करना किसी तरह जायज़ नहीं) इसके अलावा यह भी गलत है कि वेद के मन्त्र धार्मिक लड़ाई के लिए नहीं बल्कि मदनी राजनीति के लिए हैं क्योंकि इन मन्त्रों में जिन लोगों को सम्बोध किया है अर्थात जिन लोगों की हुकूमत दुनिया पर स्थापित करने की इच्छा व्यक्त कि गयी है वे कौन लोग हैं या तो वे जो वेदिक धर्म के पाबन्द होंगे या कोई भी हो जो उस समय दुनिया में शासक थे चाहे मूर्ति पूजक हों या सलीब पूजने वाले, मुसलमान हों या यहुदी लेकिन ईश्वरीय और धार्मिक किताबों से यह मतलब कोसों दूर बल्कि असंभव है कि ऐसे आदेश उन्हीं लोगों के लिए होते हैं जो इस किताब के पाबन्द होते हैं । अतः इन मायनों को ध्यान में रखकर वेदिक मंत्रों को ध्यान से देखें कि कैसे वेदिक धर्म का साम्राज्य अन्य सारे देशों में करने के निर्देश है ।

भला यदि दो देशों जैसे पंजाब और बंगाल में वेदिक धर्म के अनुयायी रहते हैं और उनमें यदि किसी बात पर बिगाड़ हो जाए तो दोनों कौम इन मन्त्रों को पढ़ पढ़कर एक दूसरे पर आक्रमण करेंगी और मददगार साहब की व्याख्या प्रस्तुत करेंगी ? कि यह मन्त्र राज्य की राजनीति से संबंधित है । बंगाली कहेंगे कि पंजाबी हमारे विरुद्ध दंगा फ़साद भड़काने की कोशिश करते हैं और पंजाबी कहेंगे कि बंगाली ऐसा करते हैं जिस तरह हो सके हम उनको नष्ट किए बिना न रहेंगे क्योंकि पवित्र वेद में ईश्वर ने हमारी हुकूमत को संसार में स्थापित किया है ।

कुछ सन्देह नहीं कि ऐसे अवसर के लिए न तो मददगार साहब और न स्वामी जी इन मन्त्रों का ताल्लुक बताएंगे । फिर बताइए ये मन्त्र धार्मिक लड़ाई से संबंधित न हुए तो किस से हुए ? हां एक बात में कुरआन शरीफ की वास्तव में गलती है कि उसने इसके विपरीत तमाम कौमों और हुकूमतों को दुनिया में शान्ति व सुख से रहने का एक निराला प्रस्ताव बताया है ।

सारी कौमों और हुकूमतों में यह दस्तूर है कि जब तक मुकाबले वाला पक्ष अपना सर न झुका दे अर्थात अधीन न हो जाए लड़ाई बन्द नहीं करते चाहे वे एक ही कौम व धर्म के ही क्यों न हों । अग्रेजों और बोइरो, जर्मनी व फ्रांस आदि की लड़ाइयां उदाहरण स्वरूप मौजूद हैं । इस्लाम और कुरआन ने यह प्रस्ताव तो स्वीकार किया कि . . . . . ।

“यदि काफिर समझौता (सुलह) चाहें तो तुम भी सुलह (संधि) पसन्द करो और अल्लाह पर भरोसा करो।”(सूरह अन्फाल – 61)

इसके अलावा दूसरा रास्ता भी बताया जिसका हम इस अवसर पर उल्लेख करते हैं जिससे अधिकांश विरोधियों को भ्रम पैदा हुआ है वह यह कि यदि विरोधी मुसलमान हो जाएं तो जंग को समाप्त कर दिया जाए । ध्यान से सुनो ।

“यदि काफिर मुसलमान हो जाएं और इस्लामी आदेशों के पाबन्द हो जाएं तो उनका मार्ग छोड़ दो।” (सूरह तौबा)

यही आयत है जिससे वे समझे बूझे विरोधियों को सन्देह होता है । कि इस्लामी जंगें लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाने के लिए थीं । मगर वास्तविकता ऐसी नहीं है । यह तो कुरआन शरीफ का महान उपकार और एक आधुनिक तरीका है सुलह सफाई का जो आज तक किसी सभ्य कौम को प्रदान नहीं हुआ कि मुकाबले वाले पक्ष का एक ही धर्म का हो जाने पर जंग समाप्त कर दी जाए । क्या 1900 ई० की अंग्रेजों और बोइरों की जंग को दुनिया भूल गयी है । कि जब तक अंग्रेजों ने देश को अपने अधीन नहीं कर लिया, नहीं छोड़ा चाहे वे हजार बार मसीह और सलीब को सज्दा करते रहे ।

हां कुरआन पर यह आरोप इस सूरत में लग सकता था कि केवल यही एक तरीका सुलह सफाई का होता लेकिन जिस सूरत में इस तरीके के अलावा दूसरा तरीका भी मौजूद है कि मुकाबले वाले बेशक अपने धर्म बल्कि मूर्ति पूजा पर जमे रहें मगर सन्धि की प्रार्थना करें (यह भी शर्त नहीं कि वे इस्लामी खलीफा को बादशाह मानें) तो तुरन्त जंग बन्द कर दी जाएगी जिसका सबूत ऊपर आ चुका है । अब उस पक्ष को अख्तियार है कि वह जिस में अपना लाभ समझे अख्तियार करे लेकिन इस्लाम और इस्लामी खलीफा की ओर से उसपर जोर जबरदस्ती न होगी कि वे मुसलमान ही हों तो जंग समाप्त होगी , ऐसा नहीं है बल्कि प्रार्थना पत्र देकर वे स्वतंत्र रूप से जनता (जिम्मी) बनकर भी सुलह कर सकते हैं मगर शर व फ़साद से नहीं । जरा ध्यान से पढ़िए ।

“लड़ो उन से जब तक फितना न खत्म हो जाए।”( सूरह बकरा – 193 )

सारांश यह कि सभी कौमों में सुलह सफाई का एक ही तरीका है । मगर कुरआन मजीद में दो तरीके हैं और यही कुरआन की बड़ी श्रेष्ठता है । इसलिए कुरआन अपने बारे में यह कहता है ।

मुझ में एक ऐब बड़ा है कि वफादार हूँ मैं

उनमें दो वस्फ़ हैं बदखूं भी हैं खुद काम भी है

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तोप बन्दूक स्वामी जी के शब्द है हम इनके जिम्मेदार नहीं ।
मराज गऊ माता क्या खाएगी ?
इसमें यही के इशारे को हम नहीं समझे कि इशारा किधर को है ।
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आपत्ति नम्बर 3

क़ुरआन सूरह फातिहा

आयत : 4-5

खुदावन्द दिन न्याय का तेरी ही उपासना करते हैं हम और तुझी से मदद चाहते हैं हम, दिखा हमें सीधी राह दिखा।
(आयत : 4-5)

आपत्ति – 3

क्या ईश्वर सदैव न्याय नहीं करता । किसी विशेष दिन न्याय करता है तो अंधेर की बात है । उसी की उपासना करना और उसी से मदद चाहना यह तो ठीक है लेकिन क्या बुरी बात में मदद का चाहना ठीक है और सीधा रास्ता क्या केवल मुसलमानों ही का है ? या दूसरों का भी । सीधे रास्ते को मुसलमान कुबूल क्यों नहीं_1 करते ? क्या सीधा रास्ता बुराई की तरफ का तो नहीं चाहते ? यदि अच्छी बातें सब की सब समान हैं तो फिर मुसलमानों में कुछ विशेषता न रही और यदि दूसरों की अच्छी बातें नहीं मानते तो पक्षपाती हैं ।

आपत्ति का जवाब

ईश्वर सदैव न्याय करता है । कुरआन को पढ़ो तो मालूम हो_2 कुरआन का स्पष्ट इर्शाद है ।

“जो तुम्हें मुसीबत पहुंचती हैं तुम्हारे अपने कर्मों के कारण”
(शूरा – 30)

उसे न्याय का दिन इसलिए कहा कि उस दिन का न्याय सब लोग अपनी आंखों से स्वयं देखेंगे और कोई झूठा उसे झुठला न सकेगा ।

फ ब स रू कल यवमा हदीदुन_3

(सूरह काफ – 22)

इसे बड़े ध्यान से पढ़ो ।

बुरे कामों में ईश्वर से मदद मांगने का उल्लेख नहीं। यह तो आपकी समझ का फेर है बल्कि भले कामों में ईश्वर से मदद मांगी गयी है, अतएव इस जगह उपासना का सलीका भी मौजूद है, हां स्वामी जी वेद भगवान की तरह चाहते होंगे कि शारीरिक इच्छाओं के (वे भी ऐसी कि असंभव सी हों) पूरा होने की दुआ क्यों नहीं सिखायी ।

ऐ भगवान ! आपकी कृपा से हमारी समस्त मनोकामनाएं सच्ची या पूरी हों अर्थात हमारा संसार को वर्शभूत करने और मान व प्रताप हासिल होने की इच्छा पूरी हो प्रभावहीन न हो ।
(यजुरवेद अध्याय 2 – मन्त्र 10)

और सुनिए . . . . . . ।

“ऐ विराट सर्व शक्तिमान ईश्वर, अपनी कृपा से मुझ तुच्छ प्राणी की मुक्ति की इच्छा पूरी करा मुझे सारे सुख या सारे संसार की हुकूमत प्रदान कर ।”
(यजुरवेद अध्याय 10 मंत्र 2 )

आपत्ति कर्ता जी ! यदि सारे संसार के लोग यही दुआ मांगे कि मुझे दुनिया की हुकूमत प्रदान कर तो सब की कुबूल हो गयी तो क्या होगा । क्या यह सोचा है ?

स्वामी जी ! निस्सन्देह इस्लाम ही सीधी और सही राह है । क्या वेदिक मत के सिवा दूसरा कोई धर्म सीधा नहीं जो सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 11 पेज नंबर 255 पर लिख आए हैं कि वेद का इन्कारी नास्तिक और अधर्मी है सच्चाई का रास्ता सदैव एक ही होता है । हम सब धर्मों की अच्छी बातें मानते हैं । किसी धर्म की अच्छी बातों से इन्कार नहीं । मगर आप को मालूम नहीं कि धर्म किस चीज का नाम है शेष मामूली आचरण तो हर धर्म में बराबर मिलते हैं । यदि अपने ही धर्म को सही समझना पक्षपात है तो आप अव्वल दर्जा पक्षपाती हैं जो लिखते हैं ।

“यदि कोई कहे कि तुम्हारा अकीदा क्या है तो यही जवाब देना चाहिए कि हमारा विश्वास वेद है अर्थात जो कुछ वेदों में बयान किया गया है हम उसको मानते हैं”
( सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 7)
[ देश निकाले और जाति से बाहर करने का हुक्म भी स्वामी दयानंद जी दे कर गए हैं-

जो वेद और वेदानुकूल आप्त पुरुषों के किये शास्त्रें का अपमान करता है उस वेदनिन्दक नास्तिक को जाति, पङ् क्ति और देश से बाह्य कर देना चाहिये।

(सत्यार्थ प्रकाश तीसरा समुल्लास पेज नंबर 51)

यही बात आगे भी है

जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकूल आप्तग्रन्थों का अपमान करे उस को श्रेष्ठ लोग जातिबाह्य कर दें। क्योंकि जो वेद की निन्दा करता है वही नास्तिक कहाता है।
(सत्यार्थ प्रकाश दसवां समुल्लास पेज नंबर 213 ) ]

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महाराज बड़े ही पापी हैं ।
जो कुछ तुम को मुसीबत पहुंचती है तुम्हारी करतूतों ही के कारण ।
अपराधियों की ज्योति (आंख की रोशनी) उस समय तेज होगी ।
यह मुंह और मसूर की दाल
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आपत्ति नंबर 4

क़ुरआन सूरह फातिहा

आयत : 6-7

राह उन लोगों की कि नेमत की है तूने ऊपर उनके सिवा उनके जो क्रोध किया गया है ऊपर उनके और न पथ भ्रष्टों के रास्ते हम को दिखा ।
आयत : 6-7

आपत्ति – 4

जब मुसलमान लोग आवागमन और पहले किए हुए गुनाह और सवाब को नहीं मानते तो कुछ लोगों पर दयालुता करने और कुछ पर न करने से ईश्वर पक्षपाती ठहरता है क्योंकि गुनाह व सवाब के बिना दुख व कष्ट का देना केवल अन्याय की बात है और अकारण किसी पर दया और किसी पर प्रकोप की नजर करना भी उसकी प्रकृति से सुदूर है । अकारण वह दया या प्रकोप नहीं कर सकता और जब उनके पूर्व संक्षिप्त गुनाह व सवाब ही नहीं तो किसी पर दया और किसी पर प्रकोप करना यह बात ही नहीं बन सकती और इस सूरह की शरह (धर्म शास्त्र) में ये शब्द – यह सूरह ईश्वर ने मनुष्यों के मुंह से कहलवाई कि हमेशा इस तरह से कहा करें । अंकित हैं । यदि यह बात सही है तो वह ”अ ब” अक्षर भी अल्लाह ही ने पढ़ाए होंगे । यदि कहो कि बिना अक्षर जाने इस सूरह को कैसे पढ़ सकते तो सवाल यह है कि क्या हलक ही से बुलाए और बोलते गए । यदि यह बात सही है तो सारा कुरआन ही ज़बानी पढ़ाया होगा । यह समझना चाहिए कि जिस किताब में पक्षपात की बातें पायी जाएं वह किताब ईश्वर की बनाई हुई नहीं हो सकती जैसे अरबी भाषा में उतारने से अरब वालों को इसका पढ़ना आसान और दूसरी भाषा बोलने वालों को मुश्किल हो जाता है इससे ईश्वर पक्षपाती ठहरता है और जिस तरह की ईश्वर ने सारे दुनिया में रहने वाले लोगों पर न्याय की नजर से सारे देशों की भाषाओं से निराली भाषा संस्कृत में जो कि सारे देशों के लिए समान मेहनत से हासिल होती है वेदों को उतारा है ऐसी ही भाषा में यदि कुरआन उतरता तो यह आपत्ति या खराबी पैदा न होती ।

आपत्ति का जवाब

क्या ही नयी लौजिक है आपत्ति कर्ता जी ! क्या पहले कर्मों की वजह ही से दया और इनाम हो सकता है । इस जन्म के कर्मों का कोई मूल्य नहीं ? सुनिए और ध्यान से सुनिए ! इस जन्म के सदकर्म । उनके लिए इनाम का कारण बने थे । दूसरी आयत इस बात की व्याख्या करती है जहां अल्लाह ने उन इनाम पाने वालों को ईश्वर को स्वयं बताकर आपके बेकार के सवाल को हल कर दिया है । जरा सोच विचार करके पढिए ।

“जिन पर अल्लाह ने इनाम किया वे नबी और बड़े सच्चे और नेक लोग हैं ।”

( सूरह निसा – 69 )

हां यह भली सूझी कि अल्लाह ने अक्षर पढ़ाए होंगे । आपत्ति कर्ता जी के भोले भाले बच्चों के से सवाल सुनकर आप से आप हंसी आती है फिर जब ऐसे व्यक्ति को एक कौम का लीडर सुनते हैं तो तुरन्त जबान से निकलता है ।

बुत भी खुदाई करते हैं कुदरत खुदा की है।
स्वामी जी ! जिस तरह वेद आपके ऋषियों को बताए गए थे उसी तरह कुरआन भी मुसलमानों को सिखाया गया है । तनिक उपरोक्त मंत्र पर ध्यान दीजिए ।

निसंदेह जिस किताब में पक्षपात की बातें हो रही हों वह खुदा की नहीं होती । मगर यह तो बताइए कि शुद्र के घर का पका हुआ खाने से जो आप मना कराते हैं चाहे कैसा ही भला मानस क्यों ने हो ।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 10 पेज नंबर 218 )

[प्रश्न – द्विज अपने हाथ से रसोई बना खावें , वा शूद्र के हाथ की बनाई खावें ?
उत्तर – शूद्र के हाथ से रसोई खावें क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्यवर्णस्थ स्त्रीपुरुष विद्या पढ़ाने, राज्यपालने और पशुपालन, खेती और व्यापार के काम में तत्पर हैं और शूद्र के पात्र तथा उसके घर का पका हुआ अत्र आपत्काल के विना न खावें ।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 10 पेज नंबर 218)

यह किस किताब का हुक्म है ? और यह आप की तरफदारी तो नहीं ?

आपत्ति कर्ता जी ! अरबी भाषा में कुरआन के उतरने का कारण तो कुरआन ने स्वयं ही बता दिया है । सुनो ईश्वर कहता है ।

“यदि हम कुरआन को अरबी ( भाषा ) के सिवा किसी और भाषा में उतारते तो अरबी लोग कहते कि इसके आदेशों को स्पष्ट क्यों नहीं किया। कलाम गैर अरबी और सम्बोधित अरबी ।”
(हामीम सदा – 44 )

चूंकि कुरआन के प्रथम मुखातिब उसके अरब के लोग थे इसलिए इस भाषा में उतारा गया । उन्होंने इसे समझ कर दूसरे लोगों को समझा दिया यही एक मात्र न्याय है अन्तर केवल आपकी समझ का है ।

अधिक जानकारी के लिए यह पोस्ट पढ़ें।

क्या पवित्र क़ुरआन मात्र अरब वासियों के लिए अवतरित हुआ था ? या फिर सारी मानवता के लिए?

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स्वामी जी का कहना है कि क़ुरआन को भी किसी ऐसी भाषा मे आना चाहिए था जैसे संस्कृत आयी थी। अब संस्कृत कैसे आयी थी? यह भी स्वामी जी ने ही बता दिया है। इसी आपत्ति में लिखा है कि

“जैसे परमेश्वर ने सृष्टिस्थ सब देशस्थ मनुष्यों पर न्यायदृष्टि से सब देशभाषाओं से विलक्षण संस्कृत भाषा कि जो सब देशवालों के लिये एक से परिश्रम से विदित होती है उसी में वेदों का प्रकाश किया है, यह करता तो कुछ भी दोष नहीं होता”
सत्यार्थ प्रकाश में दूसरे स्थान पर किसी ने प्रश्न किया उसी के उत्तर में स्वामी जी ने जो उत्तर दिया वह भी इसी तरह का है।

(प्रश्न) किसी देश -भाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्यों किया?

(उत्तर) जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता। क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उन को सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने की होती। इसलिये संस्कृत ही में प्रकाश किया; जो किसी देश की भाषा नहीं और वेदभाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है। उसी में वेदों का प्रकाश किया। जैसे ईश्वर की पृथिवी आदि सृष्टि सब देश और देशवालों के लिये एक सी और सब शिल्पविद्या का कारण है। वैसे परमेश्वर की विद्या की भाषा भी एक सी होनी चाहिये कि सब देशवालों को पढ़ने पढ़ाने में तुल्य परिश्रम होने से ईश्वर पक्षपाती नहीं होता। और सब भाषाओं का कारण भी है।

[सत्यार्थ प्रकाश सातवां समुल्लास पेज 235]

[वैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम, अजमेर]

संस्करण 2005

स्वामी जी कहना ये चाह रहे हैं कि जिस तरह संस्कृत किसी भी देश की भाषा नही थी उसी तरह क़ुरआन भी ऐसी ही भाषा मे आता जो किसी देश की भाषा नही होती।

और स्पष्ट करते हैं, जब वेदों को प्रकाशित किया गया तो एक से अधिक देश थे (ऐसा स्वामी जी की बात से ही प्रतीत होता है) और उनकी अलग भाषा थी तो जब वेद प्रकाशित हुए तो वेद ऐसी भाषा मे आये जो किसी देश की भाषा नही थी अर्थात “संस्कृत” में ।

अब जब संस्कृत किसी देश की भाषा नही तो इसमें किसी देश वाले के साथ यह पक्षपात नही हुआ कि उसके देश की भाषा मे तो वेद आये और दूसरे की भाषा मे नही आये तो किसी और को तो वेद पढने में सुगमता हो और दूसरे को पढ़ने में कठिनाई हो।

इसलिए ईश्वर ने वेदों को ऐसी भाषा मे भेजा जो किसी देश की भाषा नही थी अर्थात कोई नही जानता था कि संस्कृत भाषा क्या है?

जब कोई इस भाषा को जानता ही नही था तो फिर वेद कैसे समझे होंगे?

वेद तो छोड़िए संस्कृत सीखी कैसे होगी?

और किसने सीखी होगी? और किससे सीखी होगी?

संस्कृत जब किसी भी देश की भाषा नही थी तो फिर क्या यह सभी देश वालों के साथ पक्षपात नही हुआ? क्या वैदिक ईश्वर को बस संस्कृत ही आती है? और किसी देश की भाषा नही आती?

इन प्रश्नों का उत्तर कोई समाजी दे तो बड़ी कृपा हो जाये।

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आपत्ति नंबर 5

क़ुरआन सूरह बकरा

आयत : 2-7

यह किताब जिसमें शक नहीं परहेजगारी (संयम) की राह दिखाती है जो कि ईमान लाते हैं साथ परोक्ष के और स्थापित करते हैं नमाज को और उस चीज़ को जो कि हमने दी खर्च करते हैं । वे लोग जो इस किताब पर ईमान लाते हैं जो रखते हैं । तेरी ओर या तुझसे पहले उतारी गयी और विश्वास कियामत पर रखते_1 हैं । ये लोग अपने पालन हार के निर्देश पर हैं और यही हैं छुटकारा पाने वाले । निस्संदेह जो लोग काफिर हुए और उनको तेरा डराना न डराना बराबर है । वही ईमान न लाएंगे । मुहर की अल्लाह ने ऊपर दिलों के उनके और ऊपर कानों उनके और उनकी आंखों पर पर्दा है और उनके वास्ते बड़ी यातना है ।
(आयत : 2-7)

पहले इन आयात की तफ़्सीर देखें

आपत्ति – 5

क्या अपने ही मुंह से अपनी किताब की प्रशंसा करना ईश्वर के धब्बे की बात नहीं । जो परहेज़गार संयमी लोग हैं वे तो स्वयं सीधी राह पर हैं और जो झूठी राह पर हैं उनको यह कुरआन राह ही नहीं दिखा सकता तो फिर किस काम का रहा ? क्या पाप और पुन और मेहनत के बिना ईश्वर अपने ही खजाने से खर्च करने देता है ? यदि देता है तो सब को क्यों नहीं देता है ? और मुसलमान लोग मेहनत क्यों करते हैं ? यदि बाइबिल, इन्जील आदि पर विश्वास रखना अनिवार्य है तो मुसलमान इन्जील आदि पर ईमान कुरआन की तरह क्यों नहीं लाते ? और यदि लाते हैं तो फिर कुरआन उतरना किस लिए ? यदि कहें कि कुरआन में अधिक बातें हैं तो क्या पहली किताब में अल्लाह लिखना भूल गया था और यदि नहीं भूला था तो कुरआन का बनाना बेकार है । हम देखते हैं कि बाइबिल और कुरआन की कुछ बातें आपस में नहीं मिलतीं और बहुत सी मिलती हैं । एक ही सम्पूर्ण किताब जैसी कि वेद है क्यों न उतारी ? क्या कियामत ही पर विश्वास रखना चाहिए और किसी चीज़ पर नहीं, क्या ईसाई और मुसलमान ही अल्लाह के निर्देशों पर चलने वाले हैं और इनमें कोई गुनहगार नहीं है ? क्या वे ईसाई और मुसलमान जो दीनदार नहीं वे मुक्ति प्राप्त कर पाएंगे और दूसरे जो दीनदार हैं वे नहीं ? क्या यह बड़ी भारी ना इन्साफी और अंधेर की बात नहीं है ? क्या जो लोग मुसलमानी धर्म को नहीं मानते उनको काफिर कहना एक तरफा डिग्री नहीं है ? यदि ईश्वर ही ने उनके दिल में और कानों में डाट लगाई और इसी कारण वे गुनाह करते हैं तो उनका कुछ भी दोष नहीं है यह दोष ईश्वर ही का है । ऐसी हालत में उनको सुख या दुख या गुनाह व सवाब नहीं हो सकता । फिर ईश्वर उनको बदला व दंड क्यों देता है ? क्योंकि उन्होंने गुनाह या सवाब अपने अधिकार से नही किया ।

आपत्ति का जवाब

अफसोस ! इस भोले पन पर जो हर घड़ी अपमान का कारण बने । स्वामी जी को इतना भी मालूम नहीं कि वेद स्वयं अपनी प्रशंसा इससे कई दर्जा बढ़कर करते हैं । सुनो

“पवित्र करने वाले कर्मों को खोलने वाला जिसमें प्रशंसा योग्य ज्ञान का गुण है ऐसे उच्च ज्ञानों को देने वाला जो वेद का कलाम है वह समस्त कलाओं के स्वरूप से हम को सूचित करता है ।”
(वृग वेद अंकित आर्य मुसाफ़िर पृष्ठ 18 सितम्बर 1899 ई0)

और सुनिए ।

“गलती से मुक्त सम्पूर्ण ज्ञानों का स्त्रोत जो वेद शास्त्र है अपार शक्ति से परमेश्वर ने जाहिर किया ।”
(महा यज्ञ दोही पृ0 11 लेखक स्वामी जी)

स्वामी जी मुत्तकियों (डरने वालों) के लिए पथ प्रदर्शन होने का वह मतलब है जिस मतलब से आप सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 10 में लिखते हैं कि जिद्दी और अन्यायी को जवाब न देना चाहिए ।

“कभी विना पूछे वा अन्याय से पूछने वाले को कि जो कपट से पूछता हो उस को उत्तर न देवे। उन के सामने बुद्धिमान् जड़ के समान रहें।” 7
(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 10)

सुनिए, कुरआन स्वयं अपनी टीका करता है । ईश्वर कहता है

“हम (खुदा) कुरआन को सब लोगों की बीमारियों के लिए शिफ़ा और ईमानदारों के लिए दयालुता बनाकर उतारते हैं और जालिमों (इन्कारियों) को हानि उठाने के कोई फायदा नहीं देता ।”

(सूरह इसरा – 82 )

स्वामी जी ! यदि कोई रोगी हकीम के नुसखे और बताए हुए परहेज़ पर अमल न करे तो दोष किसका है ? सब को वह अपने खजाने से मात्र अपनी मेहरबानी से देता है । बन्दों का उस पर कोई हक नहीं । वह हकीम भी है जितना उचित समझता है देता है । सुनो

“क्या इन्कारी नहीं सोचते कि ईश्वर जिसे चाहता है आजीविका को बढ़ा देता है और जिसको चाहता है तंग कर देता है निः सन्देह इसमें बहुत सी कुदरत की निशानियां हैं ।”
(सूरह रूम – 37)

कुरआन को यदि आपने किसी पाठशाला (मदरसा) में पढ़ा होता तो बाइबिल का सवाल न करते । सुनिए

कुरआन मानता है कि पहले ईश्वरीय किताबें आयी हैं मगर इसी के साथ यह भी कहता है कि टेढ़ करने वालों ने इसमें टेढ़ मिला दी जो बात कुरआन सही बता दे उसे सही समझो और जो गलत कहे उसे गलत जानो । अल्लाह फरमाता है ।

“हम (ईश्वर) ने तेरी तरफ (ऐ नबी) कुरआन उतारा है जो अपने से पहली किताबों की पुष्टि करता है और उनपर रक्षक भी है। अर्थात गलत को सही से अलग करता है ।”
(सुरह मायदा 5:48)

कियामत पर ईमान का जिक्र इसलिए किया है कि जिसे आगे की सजा व इनाम का विश्वास होता है वही सद कर्म करता है और व्यभिचार से बचता है । जो निडर हो उसे क्या गरज पड़ी है कि अपने सर बला दे । ईसाई पथ प्रदर्शन पर नहीं हैं । बल्कि केवल मुसलमान वह भी भला मुसलमान जिनका इस आयत में बयान है । वही हिदायत पर है । क्या जो वेद को नहीं मानते उनको नास्तिक और अधर्मी कहना न्याय है ?

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1 – प्रिय पाठको आपत्ति कर्ता जी का अनुवाद गौर से पढ़िए जो टिटीरा और डेरा बसती की तरह हैं ।

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आपत्ति नंबर 6

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 10

उनके दिलों में बीमारी है। अल्लाह ने उन की बीमारी बढ़ा दी।_1
(आयत : 10)

आपत्ति – 6

भला बिना गलती अल्लाह ने उनकी बीमारी बढ़ा दी । दया न आयी, उन बीमारों को कितनी बड़ी तकलीफ हुई होगी । क्या यह शैतान से बढ़कर शैतानियत का काम नहीं है किसी के दिल पर ठप्पा लगाना किसी की बीमारी को बढ़ाना खुदा का काम नहीं हो सकता । क्योंकि बीमारी का बढ़ना अपने गुनाहों का नतीजा हैं ।

आपत्ति का जवाब

अल्लाह किसी के दिल पर अकारण ठप्पा नहीं लगाता । सुनिए इस कलाम के वही मायना है जो आपने सत्यार्थ प्रकाश में वेदों की बेदीनी और गुमराहों के बारे में लिख चुके हैं ।

“उन्होंने किस दर्जा अपनी जिहालत की तरक्की की है जिसका उदाहरण इसके सिवा दूसरा नहीं हो सकता । विश्वास तो यही है । कि वेद और ईश्वर से विरोध करने का उनको यही नतीजा मिला ।।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 12 पेज नंबर 333)
[और जो मांस खाना है यह भी उन्हीं वाममार्गी टीकाकारों की लीला है । इसलिये उन को राक्षस कहना उचित है परन्तु वेद में कहीं मांस का खाना नहीं लिखा । इसलिये मिथ्या बातों का पाप उन टीकाकारों को और जिन्होंने वेदों के जाने सुने विना मनमानी निन्दा की है ; निःसन्देह उन को लगेगा । सच तो यह है कि जिन्होंने वेदों का विरोध किया और करते हैं । और करेंगे वे अवश्य अविद्यारूपी अन्धकार में पड़ के सुर के बदले दारुण दुःख जितना पावें उतना ही न्यून है । इसलिये मनुष्यमात्र को वेदानुकूल चलना समुचित है ।११

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 12 पेज नंबर 330)

ऐसी ही इनकी लीला वेद , ईश्वर को न मानने से हुई । अब भी सुख चाहैं तो वेद ईश्वर का आश्रय लेकर अपना जन्म सफल करें।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 12 पेज नंबर 334)]
और जिस को यजुरवेद अध्याय 25 मन्त्र 13 में यूं बयान किया

“जो परमेश्वर ज्ञान आदि प्रदान करने वाला और जिसकी छत्र छाया से व कृपा से वंचित होना ही मौत अर्थात निरंतर जीने मरने के चक्कर में पड़ना है ।”

यजुर्वेद अध्याय 25 मंत्र 13

कुरआन ने तो अपनी टीका दूसरी आयत में स्वयं कर दी है । सुनिए

“अल्लाह घमंड करने वालों की गर्दन कशों के दिलों पर मुहुर लगा देता है ।”

(कुरआन)

बल्कि इसी आयत में एक शब्द ऐसा भी है जिसको आप ध्यान से देखते तो यद्यपि आपको आपत्ति करने का शौक है फिर भी यह शौक किसी और जगह पूरा करते । सुनिए . . . . . ।

इन्नल्लजी न क फ रू सवाउन अलैहिम अ अन्जर तहुम अम लम तुन्जिर हुम0

[जिन लोगों ने इनकार किया उनके लिए बराबर है डराओ या न डराओ, वह मानने वाले नहीं हैं। ]

(सूरह बकरा – 6 )

इसी का अनुवाद आपने नकल किया है । इसमें सवा उन अलैहिम सिला से बदल है यदि ज्ञान है । तो समझो या किसी अरबी पाठशाला में पढ़ो अतः आयत का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि अल्लाह के हुकमों से गर्दन कशी करने का नतीजा यह होता है बाकी जवाब वाक्य 5 में आ गया । स्वामी जी को अधिक नम्बर लेने का शौक है इसी जवाब में शैतानी बातों का जवाब भी मिलेगा ।

आपत्ति कर्ता जी ! ऋग्वेद अशटक अध्याय 3 वरग 18 मंत्र 2 को ध्यान से देखिए जो इसके अर्थ हैं वही इस आयत के हैं यदि आप को या आपके चेलों को देखने का अवसर न मिले तो सुनिए हम बतलाए देते हैं ध्यान से सुनिए । परमेश्वर कहता है । मैं बदकार, जालिमों को कभी आशीर्वाद (भली दुआ) नहीं देता।(अर्थात उनको पथ प्रदर्शन । या अनुकम्पा नहीं करता )

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पूरी आयत का अनुवाद
“उनके दिलों में (निफ़ाक़) की बीमारी है तो अल्लाह ने उनकी बीमारी को बढ़ा दिया और उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है, इस वजह से कि वे झूठ कहते थे।”

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आपत्ति नंबर 7

क़ुरआन सूरह बकरा

आयत : 22

जिसने तुम्हारे वास्ते जमीन को बिछौना और आसमान की छत बनायी ।

( आयत – 22 )

आपत्ति – 7

भला आसमान छत किसी की हो सकती है ? यह अज्ञानता की बात है आसमान को छत की भान्ति मानना उपहास की बात है यदि किसी और ग्रह की धरती का आसमान मानते हों तो उनके घर की बात है ।

आपत्ति का जवाब

आसमान नीला छत की भान्ति नजर आ रहा है अरबी में हर ऊची वस्तु को जो सर से ऊपर हो सकफ कहा करते हैं । इसी आधार पर आसमान को सकफ (छत) कहा गया । स्वामी जी की बला को क्या पड़ी थी कि ऐसी तहकीक करते और उनको अपने मामूली मसखरे पन से समय भी नहीं था बाकी न0 18 में देखो।

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आपत्ति नंबर 8

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 23-24

जो तुम इस वस्तु से सन्देह में हो जो हमने अपने सन्देष्टा के ऊपर उतारी तो इस जैसी एक सूरह के और अपने मददगारों को पुकारो सिवाए अल्लाह के यदि हो तुम सच्चे और कदापि न करोगे तुम उस आग से डरो कि जिसका इंधन आदमी हैं और काफिरों के लिए पत्थर_1 तैयार किए गए हैं ।
(आयत : 23-24)

आपत्ति – 8

भला यह कोई बात है कि उसके जैसी कोई सूरह न बने ? क्या अकबर बादशाह के जमाने में मौलवी फैजी ने बे बिन्दू (नुक्ता) का कुरआन नहीं तैयार किया था । वह कौन से जहन्नम की आग है ? क्या इस दुनिया की आग से न डरना चाहिए । इस आग में भी जो कुछ पड़े वह उसका ईंधन है जैसे कुरआन में लिखा है कि काफिरों के लिए पत्थर तैयार किए गए हैं वैसे पुरानों में लिखा है किमलीछों के लिए घोर नरक बना है । अब कहिए किस की सच्ची मानें ? अपने कथनों से तो दोनों स्वर्ग में जाने वाले हैं और एक दूसरे के धर्म के अनुसार दोनों जहन्नमी होते हैं अतः इन सबका झगड़ा झूठा है हां जो धार्मिक हैं वे सुख और जो पापी हैं वे दुख पाएंगे । यह सारे धर्मों का मानना हैं ।

आपत्ति का जवाब

शोध कर्ता व आपत्ति कर्ता को यह तो खबर नहीं कि बे बिन्दू वाक्य क्या होता है और उत्तम शैली क्या है । उन्होंने सुन लिया कि फ़ैज़ी ने बिना बिन्दू (नुक्ता) की टीका लिखी थी तो वे समझे कुरआन का मुकाबला हो गया । भला स्वामी जी ! यदि फैजी की टीका कुरआन की भान्ति बे मिसाल होती तो पहले फैजी ही को क्यों कुरआन के बारे में सन्देह न होता और वह क्यों इस घमंड में इस्लाम से विमुख न होता कि मैंने कुरआन की जैसी किताब लिख डाली है बस आपके जवाब में यही काफी है । आप मालिक हैं आप इस आग से भी डरें । कौन आप को कहता है कि न डरें । बात तो केवल यह है कि जहन्नम की आग चूंकि बहु देव वादियों और हठ धर्मियों की सजा है इसलिए उससे डरने का यह अर्थ है कि ऐसे काम छोड़ दो । यह स्वामी जी की जानकारी है । लिखते हैं कि कुरआन में काफिरों के लिए पत्थर तैयार किए गए हैं । आगे भी कई जगह स्वामी जी ने अपनी योग्यता का सबूत दिया है । जरा सोच विचार करो तो यह इस्लाम का चमत्कार है कि आप जैसे ज्ञानी भी ऐसी बहकी बहकी बातें करने लग जाते हैं । यदि क़ुरआन और पुरान की बातों पर अमल करने वाले अपने अपने कथनों से जन्नती हैं तो आप दोनों के कथनों से जहन्नमी ही होते हैं स्वामी जी ! अपनी चिन्ता कीजिए ।

“तुझको पराई क्या पड़ी अपनी नबीड”
देखना यह है कि दोनों में से कौन हक पर है तो उसकी पहचान कीजिए बाकी बातों से क्या लाभ ? यह ठीक है कि जो पापी है वे सारे धर्मों में दुख ही पाएंगे मगर इससे अधिक पाप क्या होगा ?

“जो धर्म दूसरे धमाँ को, कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्धालु हों झूठा बता दे और अपने को सच्चा ज़ाहिर करे उससे बढ़कर झूठा और धर्म कौन हो सकता।

सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 आपत्ति 80

(पहले पैराग्राफ की पांचवी लाइन से पढ़ें)

समाजियो इस आयत का यह अनुवाद कहीं किसी ने किया हो तो हमें दिखाओ और इनाम लो

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स्वामी जी क़ुरआन और तफ़्सीर (भाष्य) का अंतर समझने में असफल
http://responsearyasamaj.blogspot.com/2016/09/quran-and-tfsir-commentary-failed-to.html

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आपत्ति नंबर 9

क़ुरआन सूरह बकरा

आयत : 25

और शुभ सूचना दे उन लोगों को कि ईमान लाए और काम किए अच्छे यह कि वास्ते उनके जन्नत हैं बहती हैं नीचे से नहरें । जब दिए जाएंगे उसमें से मेवों से अजीविका खाएगे । यह वह चीज है जो दिए गए थे हम पहले उससे और वारते उनके पत्नियां हैं सुथरी और सदैव वहां रहने वाली हैं ।
(आयत: 25)

आपत्ति – 9

भला इस कुरआन की जन्नत में दुनिया से बढ़कर कौन सी अच्छी वस्तु हैं ? जो वस्तुएं दुनिया में हैं वही मुसलमानों की जन्नत में हैं और इतनी अधिक हैं कि यहां जैसे आदमी मरते हैं और पैदा होते और आते जाते हैं इसी तरह जन्नत में नहीं मगर यहा औरतें सदैव नहीं रहतीं और वहा बीबियां सदैव रहती हैं । जब तक कयामत की रात_1 न आएगी तब तक उन बेचारियों के दिन किस प्रकार गुजरते होंगे, हा ईश्वर की उनपर कृपा होती होगी और ईश्वर के सहारे समय गुजारती होंगी । यही ठीक हो सकता है मुसलमानों की जन्नत यद्यपि कलिए गोसाइयों के गोलोक मन्दिर की तरह मालूम होती है जहां कि औरतों का आदर सम्मान बहुत अधिक है आदमियों का_2 नहीं । इसी प्रकार ईश्वर के घर में औरतों का महत्व है और उनसे ईश्वर की मुहब्बत भी पुरूषों के मुकाबले अधिक है क्योंकि ईश्वर ने बीवियों को जन्नत में सदैव के लिए रखा है न कि पुरुषों को । वे बीबियां बिना ईश्वर की इच्छा व अनुमति जन्नत में कैसे ठहर सकती हैं ? यदि यही बात है तो ईश्वर भी औरतों में उलझा हुआ है ।

आपत्ति का जवाब

स्वामी जी ! जिस कलाम को आदमी न समझे उस पर आपत्ति करने से नदामत होती है । आप स्वयं भूमिका में गैर धर्म पर सोच विचार अत्यन्त आवश्यक बता आए हैं क्या वह औरों के लिए है आपके लिए नहीं ? हम ने तो जितनी आपत्तियां आपकी देखी हैं उनसे यही साबित होता है कि आप स्वयं इस उसूल का अपवाद हैं । जन्नत में सब कुछ आराम और हर प्रकार के सुख वैभव (परन्तु सभ्य तरीके का) के सामान अल्लाह की ओर से होंगे । आप उसे दुनिया का सा समझते है क्या आपने गुरू नानक जी का कथन भी नहीं सुना . . . . . . “नानक दुखया सब संसार” फिर आम दुनिया को जन्नत की तरह समझें तो इसमें किसकी गलती है ?

स्वामी जी ! दुनिया में कोई व्यक्ति भी किसी हालत में सुखी और ऐशो आराम में नहीं हो सकता । कोई न कोई दुख, कष्ट उसे लगा ही रहता है । माल से हो सन्तान से हो , दोस्तों से हो या शत्रुओं से हो, शारीरिक हो या आध्यात्मिक, मगर जन्नत में पूरी तरह सुख ही, सुख होगा । सुनो

“न जन्नत में कोई तकलीफ होगी और न उससे बाहर किए जाएंगे।”

(सूरह हिज्र – 48)

उन बेचारियों की चिंता तो जब करते कि कुरआन की किसी आयत से दिखाते कि वे अभी से पैदा भी हो चुकी हैं और पतियों की चाहत में व्याकुल हैं ।

स्वामी जी ! झूठ बोलना हर धर्म में बुरा है । पुरूषों से महिलाओं का कम महत्व कौन सी आयत से आपने समझा है इसी ज्ञान के बल पर आप स्वामी बने हैं कि आपको इतनी भी खबर नहीं कि कुरआन में पुल्लिंग का कालिमा आया है अर्थात “खालिदून” जिसका अर्थ है नेक मर्द सदैव जन्नत में रहने वाले होंगे । आपको किसी ने “वाले” का शब्द “वाली” करके सुनाया तो आपके कान में वाली (बाली) पड़ गयी । अफ़सोस आप के सारे धार्मिक ज्ञान की पोल खुल गयी । कुरआन के मुहावरे में औरतें मर्दो के आदेश के तहत होती हैं अर्थात जो आदेश या हुक्म मर्दो को होता है वह औरतों को भी होता है उसके सिवा जो खास किया जाए ।

यह शब्द नहीं मालूम स्वामी जी को किस ने सिखा दिया है हर जगह यही बोलते हैं ।
उर्दू जानने वाले सज्जन औरत और आदमी का मुक़ाबला ध्यान से देखें ।
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आपत्ति नंबर 10

क़ुरआन सूरह बकरा

आयत : 32-34

आदम को सारे नाम सिखाए फिर फ़रिश्तों के सामने करके कहा । जो तुम सच्चे हो मुझे इनके नाम बताओ । कहा ऐ आदम बता दे उनको नाम उनके । तो जब बता दिए उनके नाम तो ईश्वर ने फरिश्तों से कहा कि क्या मैंने तुम से न कहा था कि निस्संदेह मैं धरती और आकाश की छुपी चीजें और जाहिर और गायब कर्मों को जानता हूं ।
(आयत : 32-34)

आपत्ति – 10

भला इस तरह फरिश्तों को धोखा देकर अपनी बड़ाई करना ईश्वर का काम हो सकता है ? यह तो एक धब्बे की बात है, इसे कोई विदान मान नहीं सकता और न ऐसा मजाक व बकवास कर सकता है । क्या ऐसी बातों से ईश्वर अपनी करामात जमाना चाहता है ? हां जंगली लोगों में कोई कैसा ही पाखंड चला ले तो चल सकता है । सुशील व सज्जन लोगों में नहीं ।

आपत्ति का जवाब

स्वामी जी को असल मतलब से तो कोई लेना देना है नहीं मगर अपने पाठकों को इस आयत का मतलब बताते हैं वह यह है कि ईश्वर ने हज़रत आदम को पैदा करने और दुनिया में खलीफा (अपना नायब) बनाने की फरिश्तों को सूचना दी । फ़रिश्तों ने अपनी इच्छा को गुप्त रख कर कुछ विनती की जिसका मतलब यह था कि हम खिलाफत के पद के हकदार हैं क्योंकि हम तेरी उपासना में लगे रहते हैं और दिल में यह बात भी रखी कि हम को सब_1 चीजों का ज्ञान भी है जो खिलाफत के लिए जरूरी भी है चूंकि यह दावा उनका गलत न था इसलिए अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेने हेतु ।

आदम को सारी चीजों का ज्ञान (नाम एवं गुण) प्रदान किया जिस प्रकार ईश्वर ने

प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया।

[सत्यार्थ प्रकाश सातवां समुल्लास पेज 234, वैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम, अजमेर संस्करण 2005]

इसके बाद फ़रिश्तों से उनके दावे की पुष्टि कराने को उन सब चीजों के नाम पूछे वे न बता सके । अन्त में अपने दोष को स्वीकारे । यह बात पूरी तरह साफ है मगर स्वामी जी न समझे तो किस की गलती ? अफसोस स्वामी जी हर बार अपना उसूल भूल जाते हैं ।

जो धर्म दूसरे धमाँ को, कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्धालु हों झूठा बता दे और अपने को सच्चा ज़ाहिर करे उससे बढ़कर झूठा और धर्म कौन हो सकता।
सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 आपत्ति 80

(पहले पैराग्राफ की पांचवी लाइन से पढ़ें)

विस्तार से जानने के लिए तफसीर सनाई देखो ।
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आपत्ति नंबर 11

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 34

जब हमने फ़रिश्तों से कहा सज्दा करो आदमी को तो सबने सज्दा किया पर शैतान ने न माना और घमंड किया क्योंकि वह भी एक काफिर था ।

(आयत : 34)

आपत्ति – 11

इससे साबित हुआ कि ईश्वर सर्वज्ञाता नहीं अर्थात अतीत, वर्तमान और भविष्य की बातें पूरे तौर पर नहीं जानता तो शैतान को पैदा ही क्यों किया ? और ईश्वर में कुछ प्रताप व तेज भी नहीं है क्योंकि शैतान ने उसका आदेश ही न माना और ईश्वर उसका कुछ भी न कर सका और देखिए एक काफ़िर शैतान ने ईश्वर के भी छक्के छुड़ा दिए । मुसलमानों की नज़र में जहां करोड़ों काफिर है । वहां मुसलमानों के खुदा और मुसलमानों की थोड़ी बहुत चल सकती है ? कभी कभी ईश्वर भी किसी की बीमारी बढ़ा देता है और किसी को । भटका देता है । ईश्वर ने यह बातें शैतान से सीखी होगी और शैतान ने ईश्वर से । क्योंकि सिवाए ईश्वर के शैतान का उस्ताद और कोई नहीं, हो सकता ।

आपत्ति का जवाब

भोले पंडित जी ! किस आयत से मालूम हुआ कि खुदा को पता नहीं । यदि शैतान के पैदा करने से ईश्वर बे इल्म साबित होता है तो परमेश्वर ने जैनियों को क्यों पैदा किया ? जो आपके कथनानुसार मूर्ति पूजा को आरंभ करने वाले हुए जिनके बारे में सत्यार्थ प्रकाश में आप लिखते हैं ।

मूर्ति पूजा का जितना झगड़ा चला है वह सब जैनियों के घर से निकला है और पाखन्डियों की जड़ यही जैन धर्म है।
(सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ – 584 अध्याय 12 न0 119)

और सुनिए – ईश्वर ने गाजी महमूद को क्यों पैदा किया जिसने आर्यव्रत की काया पलट दी ? और बताइए ईश्वर ने पुरानों के लेखकों को क्यों पैदा किया जिन्होंने (आपके कथनानुसार) सारे पुरान गप्पों से भरकर आर्यव्रत को गुमराह कर दिया ।

और सुनिए . . . . . . . ईश्वर ने मुसलमान क्यों बनाए कि वेदिक धर्म का सारा ताना बाना ही बिखर कर रह गया । जब आप इन सवालों के जवाब देंगे तो हम भी बताएंगे कि शैतान को क्यों पैदा किया?

असल बात यह है कि शैतान किसी की गुमराही के लिए कोई तर्क या कारण नहीं है बल्कि वह केवल एक बुरे सलाहकार की तरह बुरे विचारों और कामों का सुझाव देने वाला और लुभाने वाला है। अतएव उसका यह बयान पूरे का पूरा कुरआन में मौजूद है तनिक ध्यान से सुनिए ।

मेरा तुम पर जोर न था मैंने केवल तुमको बुलाया था । तुमने कुबूल कर लिया ।
(सूरह इब्राहीम 22)

जैसे दुनिया में और बहुत सी बुरी संगतें होती हैं ऐसे ही शैतान भी एक बुरा साथी है इससे अधिक कुछ नहीं । इस बुरी संगत के प्रभाव से बचने के लिए ईश्वर ने एक इलाज बताया है बड़ा ही शक्ति शाली जो हकीकत में बड़ा प्रभावी है वह है अल्लाह का जिक्र (गुण गान करना) अतएव क़ुरआन में इसका भी उल्लेख है – अर्थात

ईश्वर के भले बन्दों पर शैतान का कोई दावं नहीं चल सकता । जो लोग अल्लाह के जिक्र में समय गुजारते हैं । और बुरे कामों से बचते हैं शैतान उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । हां जो लोग बेहूदा बकवास और बुरी संगत में समय नष्ट करते हैं उन्हीं पर शैतान अपना जोर चला पाता है।
(सूरह हिज्र)

(सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 541 को ज़रा ध्यान से पढ़े) अतः शैतान का उदाहरण बिल्कुल विष का सा समझो । जैसा कि ईश्वर ने विष पैदा करके उसका इलाज भी बता दिया है । ऐसा ही शैतान पैदा करके उसका प्रभाव बताकर इलाज (तौबा और रसूल का अनुसरण) बता दिया है । शैतान की विस्तार से बहस की जानकारी के लिए तफसीर सनाई भाग 1 हाशिया खतमुल्लाह में देखें ।

हां याद आया कि दुनिया में इस समय करोड़ों मुसलमान, करोड़ों ईसाई, बौद्ध, यहूदी आदि कौमें ईश्वर के ज्ञान (वेद) को नहीं मानते बल्कि उसे मूर्ति का स्त्रोत जानते हैं तो परमेश्वर कैसा विवश हैं कि इनको सीधा नहीं कर सकता । उसके तेज में कोई फर्क तो है । आखिर किस किस से बिगाड़े और किस किस को पकड़े ? |

स्वामी जी ! जीव आत्मा अपनी इच्छा की मालिक है (देखो सत्यार्थ प्रकाश , अध्याय 7 – पृष्ठ 48) धार्मिक मामलों में ईश्वर ने छूट दी हुई है जिसका जी चाहे आज्ञा पालक हो जो चाहे न हो, सुनो ! कुरआन मजीद बताता है ।

जो चाहे ईमान लाए और जो चाहे काफ़िर बने।
(सूरह कहफ़ – 29)

अतः एक शैतान क्या सामान्यता दुनिया के सारे काफिर इस समय खुदा की किताब पर मुंह चिढ़ाते हैं मगर वह सब को सुख शान्ति और आराम देता है लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी खुदा के गुमराह करने और बाकी शैतानी बातों के जवाब नंबर 6 में देखो ।

अधिक जवाब के लिए ये पोस्ट पढ़ें इब्लीस ने अल्लाह का हुक्म नही माना तो क्या इब्लीस बड़ा हो गया?

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आपत्ति नंबर 12

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 35-37

और कहा हमने ऐ आदम तू और तेरी पत्नी जन्नत में रहकर खाओ तुम आराम से घूमों जहां चाहो और मत निकट जाओ उस पेड़ के कि पापी हो जाओगे । शैतान ने उनको गुमराह किया और उनको जन्नत के सुख वैभव से खो दिया । तब हमने कहा कि उतरो तुम में कुछ तुम्हारे दुश्मन हैं और तुम्हारा ठिकाना धरती पर है और एक समय तक फायदा है अतः सीख लीं आदम ने अपने पालनहार से कुछ बातें तो वह धरती पर आ गया ।

(आयत : 35-37 )

आपत्ति – 12

देखिए खुदा का अल्पज्ञान अभी तो जन्नत में रहने की दुआ दी और अभी कहा कि निकलो । यदि आगे की बातों को जानता होता तो दुआ ही क्यों देता ? और मालूम होता है कि बहकाने वाले शैतान को सजा देने से विवश भी है । वह पेड़ किसके लिए पैदा किया था ? क्या अपने लिए या दूसरे के लिए । यदि दुसरों के लिए तो क्यों आदम को रोका ? इसलिए ऐसी बातें न अल्लाह की और न उसकी बनाई हुई किताब की हो सकती हैं ।

आदम साहब ईश्वर से कितनी बातें सीख कर आए थे ? और जब धरती पर आदम साहब आए तो किस तरह से आए, क्या वह जन्नत पहाड़ पर है या आसमान पर ? इससे क्यों कर उतरे क्या पक्षी की तरह उड़कर या पत्थर की तरह गिर कर ?

यह स्पष्ट होता है कि जब आदम साहब खाक से बनाए गए तो उनकी जन्नत में खाक होगी और जितने वहां फरिश्ते आदि हैं वे भी खाक ही होंगे क्योंकि खाक के शरीर बिना अंगों के नहीं बन सकते और ख़ाकी शरीर होने के कारण मरना भी निश्चित होगा । यदि वहां मौत होती है तो वहां से मौत के बाद कहां जाते हैं ? और यदि मौत नहीं होती तो उनका जन्म भी नहीं होना चाहिए । जब जन्म है तो मौत भी जरूरी है ऐसी सूरत में कुरआन का यह लिखना कि बीवियां सदैव जन्नत में रहती हैं झूठा हो जाएगा क्योंकि उन्हें मरना भी होगा । जब यह हालत है तो जन्नत में जाने वालों की भी मौत अवश्य होगी ।

आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! देखिए आपका अल्पज्ञान – कि अनुमति को आप दुआ समझे बैठे हैं । ऐ साहब ! जो शब्द कुरआन में इस बारे में आया है वह सम्बोधन करने का कलिमा है जिसका अर्थ है रहों जन्नत में फिर इसी के साथ फ़रमा दिया कि उस पेड़ के निकट न जाना वर्ना तुम अवज्ञाकारी हो जाओगे जिससे स्पष्ट रूप से यह नतीजा निकलता है कि यह आदेश वैसा ही है जैसा परमेश्वर की ओर से आपको हुक्म होता है कि मैंने तुमको कर्म जूनी (अमल का घर) मानव ढांचा दिया है इसमें रहना और दुराचार व बदकारी न करना वर्ना तुम बन्दर और सुअर बनाए जाओगे । अतएव बहुत से आर्यों को वह दिन देखना नसीब होता है । कहिए क्या परमेश्वर को ज्ञान नहीं है ? जन्नत निस्संदेह किसी समतल मकान पर होगी शायद वहां ही हो जहां पर जीव आत्मा (आप ही के कथना नुसार) मुक्ति के बाद रहती है । देखो सत्यार्थ प्रकाश अध्याय न0 9

हैरत है आप पूछते हैं कि आदम को कितनी बातें सिखायीं भोले पंडित जी ! सारी बातें जिनकी मानव जाति को जरूरत है सिखाय कुरआन में ‘कल्हा’ का शब्द देखिए स्वामी जी के टेढ़े सवाल देखिए कि आदम जमीन पर किस प्रकाईश्वर की रक्षा में आए । यदि अधिक कुरेदो तो सुनो ।

जिस प्रकार गुब्बारे बाज़ उतर आते हैं इसी तरह भी उतरना संभव है । जज किसी अपराधी को दंड देने से तब विवश हुआ करता है कि उसके दंड का समय आ चुका हो और पकड़ न सके और यदि समय पर नहीं पहुंचा तो समय से पहले विवश कहना आपकी बुद्धि व समझ का दोष है वर्ना बताइए सुलतान महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी ने इतने कम समय में उन्होंने हिन्दुस्तान की काया पलट दी । परमेश्वर ने उन्हें सजा क्यों न दी । बेशक जो खाकी (मिट्टी की) चीज़ है वह एक दिन नष्ट भी हो सकती है लेकिन यदि ईश्वर की ओर से उसकी कमी की पूर्ति होती रहे_2 और ईश्वर उसकी मौत न चाहे तो कोई जरूरी नहीं कि धींगा धेगी मर ही जाए जबकि हम देखते हैं कि कुछ आदमी एक दिन बल्कि एक सांस का जीवन बिताकर ही चल देते हैं और कुछ सौ साल से ऊपर हो जाते हैं तो यह अन्तर हमें सचेत करता है । कि उनकी मौत की तारीख परमेश्वर के हाथ में है अतः इसी तरह जन्नतियों की मौत की तारीख अल्लाह ने असीम जमाना पर डाल दी हो या बिल्कुल मौत को उनसे उठा ही दिया हो तो क्या खराबी है ?

1 – दैनिक आहार जो खाया जाता है यह आहार मनुष्य के अंगों में मिल कर बदल बनती इसी को भी की पूर्ति करते हैं ।

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आपत्ति नंबर 13

क़ुरआन सूरह बकरा

आयत : 48

उस दिन से डरों कि जब कोई आत्मा किसी आत्मा पर भरोसा न रखेगी न उसकी सिफारिश कुबूल की जाएगी न उससे बदला लिया जाएगा और न वे मदद पावेंगे ।_1
(आयत : 48)

आपत्ति – 13

क्या मौजूदा दिनों में न डरें । बुराई करने से सदैव डरना चाहिए जब सिफारिश न मानी जाएगी तो फिर यह बात कि पैगम्बर (दूत) की गवाही या सिफारिश से ईश्वर जन्नत देगा, किस तरह सच हो सकेगी ? क्या ईश्वर जन्नत वालों ही का मददगार है । जहन्नम वालों का नहीं ? यदि ऐसा है तो ईश्वर पक्षपाती है ।

आपत्ति का जवाब

स्वामी जी ! अनादर कर रहा हूं क्षमा करें . . . . . . बुद्धि शायद काम नहीं करती आपकी । “किसी दिन से डरना” और “किसी दिन में डरना” इन दोनों वाक्यों में अन्तर है । आपको कौन कहता है कि उस दिन से मौजूदा दिनों में न डरें । ईश्वर आपको भलाई प्रदान करे क्योंकि बुराई करने से सदैव डरना चाहिए ।

पंडित जी ! “से” का शब्द जज़ा पर आया है अतएव आपने भी । बुराई करने से लिखा है चूंकि मुसलमानों के निकट पूर्ण सजा व इनाम उस दिन में होगी । इसलिए कहा गया कि उस दिन से डरो । जिसके साफ मायना हैं कि बुराई करने से डरो ! स्वामी जी ! |

मैं इलज़ाम उनको देता था कुसूर अपना निकल आया

इसलिए हम बार बार कहते हैं कि कुरआन को भी किसी अरबी पाठशाला में रहकर पढ़ लेते तो तस्वीर का रुख दूसरा होता ।

सिफारिश चूंकि ईश्वर की अनुमति के बिना नहीं होगी अर्थात किसी नबी, वली का व्यक्तिगत हक या लिहाज नहीं होगा कि अपराधी की सिफारिश करे । जब तक ईश्वर उसे खास अनुमति न दे । इसलिए यह कहना पूरी तरह मुनासिब है कि किसी की सिफारिश स्वीकार न होगी अर्थात कोई सिफारिशी, सिफारिश ही नहीं करेगा ।

“खूब कही . . . जहन्नम वालों का हामी नहीं तो तरफदार है।”
(सूरह निसा – 35)

स्वामी जी को औरों की तो क्या याद होती ऐसे भोले हैं कि अपनी | भी भूल जाते हैं । सुनिए….
मेरा आशीर्वाद उन्हीं लोगों के लिए है जो सद कर्म और भले हैं न उनके लिए जो जनता के लोगों पर अत्याचार करने वाले हैं । मैं दुराचारी अत्याचारियों को कभी । आशीर्वाद नहीं देता ।

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 39 मंत्र 2

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समाजियो ! बताओ परमेश्वर पक्षपाती है या नहीं ?

हाथ ला उस्ताद क्यों कैसी रही ।

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आपत्ति नंबर 14

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 53 व 65

हमने मूसा को किताब और चमत्कार दिए । हमने उनको कहा तुम अपमानित बन्दर हो जाओ यह एक डर दिखाया जो उनके सामने और पीछे थे उनको और पथ प्रदर्शन ईमानदारों को।
(आयत : 53 व 65)

आपत्ति 14

यदि मूसा को किताब दी थी तो कुरआन का होना बेकार है यह बात जो बाइबिल और कुरआन में लिखी है कि उसे चमत्कार दिखाने की ताकत दी थी मानने योग्य नहीं क्योंकि यदि ऐसा हुआ था तो अब भी होता । यदि अब नहीं होता तो पहले भी नहीं हुआ था जैसे स्वामी लोग आजकल भी जाहिलों के बीच विद्वान बन जाते हैं इसी तरह उस जमाने में भी धोखा किया होगा ।

क्योंकि ईश्वर और उस की पूजा करने वाले अब भी मौजूद हैं । तब भी इस समय ईश्वर चमत्कार दिखाने की ताकत क्यों नहीं देता ? और न वे चमत्कार दिखा सकते हैं । यदि मूसा को किताब दी थी तो दोबारा कुरआन के देने की क्या जरूरत थी ? क्योंकि यदि भलाई बुराई करने में करने का उपदेश सब जगह समान है तो दोबारा विभिन्न किताबों के बनाने से पिसे हुए के पीसने का उदाहरण लागू होता है । क्या ईश्वर उस किताब में जो कि मूसा को दी थी कुछ भूल गया था । यदि ईश्वर ने अपमानित बन्दर हो जाना मात्र डराने के लिए कहा तो उसका कहना झूठा हुआ या उसने धोखा दिया या जो ऐसी बातें करता है वह ईश्वर नहीं और जिस किताब में ऐसी बातें मौजूद हों वह ईश्वर की ओर से नहीं हो सकती ।

आपत्ति का जवाब

चमत्कारों के बारे में बड़ा अच्छा प्रश्न किया । स्वामी जी ! आप ही के कथनानुसार दुनिया के आरंभ में यदि मनुष्य जवान जवान पैदा हुए थे (सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 8)_* तो क्यों जवान जवान पैदा नहीं होते । यदि आप कहें कि वे बच्चे पैदा होते तो उनके लालन पालन के लिए दूसरे मनुष्यों की जरूरत पड़ती जिससे आप का मतलब यह है कि अब जवान जवान पैदा होने की ज़रूरत नहीं तो ठीक इसी तरह चूंकि पैगम्बर कोई नहीं इसलिए चमत्कार दिखाने की जरूरत नहीं ।

आपने यह सवाल तो किया कि चमत्कार दिखाने की अब ताकत क्यों नहीं मगर यह न सोचा कि पहले जो ताकत थी वह किन को थी ? आज पंडित जी होते तो हम उनसे पूछते कि बताइए आपके जीवन में तो आर्य समाज को वेदों की टीका लिखने की ताकत अब क्यों नहीं ? क्यों आप ही की लकीर के फकीर बने हुए हैं क्यों आपके पौने दो वेदों की टीका को पूरे दो भी नहीं कर दिखाते लाला साहब ।

इससे अधिक जानकारी के लिए तफसीर सनाई तीसरा भाग देखें । बाइबिल के होते कुरआन की जरूरत के बारे में हम पहले वाक्य 05 में लिख आए हैं । और सुनिए आप ही के शब्दों में सुनाते |

“ईश्वर का ज्ञान असीम है या नहीं ? तो फिर काम के लिए ? यदि कहो कि अपने ही लिए ले ली है तो क्या ईश्वर उपकार नहीं करता । तुम यह कहोगे करता है फिर इससे क्या ? इससे यह कि ज्ञान अपने लिए होता है और दूसरों के लिए भी क्योंकि इसके यही दो उद्देश्य हैं । यदि ईश्वर उपदेश न देता तो ज्ञान का दूसरा उद्देश्य अपनी मौत मर जाता । इसलिए ईश्वर ने अपने ज्ञान (कुरआन मजीद)_1 के उपदेश से इस दूसरे मतलब को पूरा किया है परमेश्वर बड़ा दयावान है यदि ऐसा न करता तो सदैव अज्ञानता का सिलसिला स्थापित रहता और मनुष्य धर्म, अर्थ काम, मोक्ष की प्राप्ती से वंचित रहकर परम आनन्द न पा सकता ।”

(वृग वेद आदि भाषा भूमिका पृष्ठ – 8 )

बताइए यदि कुरआन न आता तो अरब जैसे लड़ाकू वहशी और बहुदेव वाद से लिप्त देश को कौन पथ प्रदर्शन करता । वेद दानव को तो वह रास्ता भी मालूम न था वह गैरों को पथ प्रदर्शित करके अपने में मिलाते थे । न वेद में यह कशिश थी कि गैरों को खींच लेता जिसका पक्का सबूत है कि आपके कथना नुसार 2 अरब साल वेद को बने हो गए आज तक कहीं किसी देश में हिन्दुस्तान के अलावा कोई भी इस का नाम लेने वाला नहीं कोई इतना भी तो नहीं जानता ।
अभी इस राह से गुजरा है कोई

कहे देती है शोखी नक्शे पा की
तौरात, इंजील वालों का हाल यह था कि एकेश्वरवाद की बजाए तसलीस (तीन ईश्वरों का अकीदा) में आज तक डुबे हुए हैं । सुनिए

कुरआन अपने बयान में विवश नहीं है वह अपनी वजह बताता है । वेद की तरह “मुरीदां हमें परानन्द” का मोहताज नहीं । ईश्वर अरबों को संम्बोध करके फरमाता है कि ।

अरबी में कुरआन इसलिए उतारा है ताकि तुम न कहने लगो कि हम से पहले लोगों पर किताब उतरी थी और उनकी तालीम से अनभिज्ञ थे ।
(अन्नाम : 155)

निश्चय ही उनको बन्दर बनाया था झूठ क्यों होता । मगर ऐसे नहीं कि आपको आवागमन की सूझे बल्कि उनके इसी शरीर को जिसमें वे थे बन्दर बना दिया था न कि सामान्य तरीके मां के गर्भ में जाकर जैसे वेदिक मत वाले बनते हैं और कहते हैं । विस्तार से देखो रिसाला बहस तनासुख में ।

स्वामी जी की तहरीर में वेद है।

*(प्रश्न) सृष्टि की आदि में एक वा अनेक मनुष्य उत्पन्न किये थे वा क्या?

(उत्तर) अनेक। क्योंकि जिन जीवों के कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे उन का जन्म सृष्टि की आदि में ईश्वर देता है। क्योंकि ‘मनुष्या ऋषयश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त’ यह यजुर्वेद में लिखा है। इस प्रमाण से यही निश्चय है कि आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों, सहस्रों मनुष्य उत्पन्न हुए । और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक माँ बाप के सन्तान हैं।

सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 8

प्रश्न

यहां पर एक प्रश्न और मन में उठता है कि स्वाम जी ने लिखा है कि “मनुष्या ऋषयश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त” यह मंत्र यजुर्वेद में लिखा है। लेकिन स्वामी जी ने इसका पूर्ण प्रमाण नही लिखा। और महत्वपूर्ण बात ये है कि आज तक इसका सही प्रमाण मिल भी नही पाया है। आज तक किसी भी आर्य समाजी ने इस मंत्र को यजुर्वेद में नही पाया है। तो क्या यह मान लिया जाए कि स्वामी जी ने यह मंत्र मन से बना लिया है ? और लोगों(आर्य समाजियों) को बेवकूफ बना दिया है? और यह बहुत से जवान जवान लोगों के पेड होने की बात कोरी कल्पना है ?
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आपत्ति नंबर 15

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 73

इस तरह खुदा मुर्दो को जीवित करता है और तुम को अपनी निशानियां दिखाता है ताकि तुम समझो।

(आयत : 73)

आपत्ति – 15

यदि मुर्दो को ईश्वर जीवित करता था तो अब क्यों नहीं करता ? क्या वह कयामत की रात तक कब्रस्तान में पड़े रहेंगे ? क्या आजकल दौरा सुपुर्द है ? क्या इतनी ही अल्लाह की निशानियां हैं । क्या धरती, सूरज, चांद आदि निशानियां नहीं हैं ? क्या कायनात में जो भिन्न भिन्न प्रकार के प्राणी नजर आते हैं । यह कोई कम निशानियां हैं ?

आपत्ति का जवाब

इस आयत का अनुवाद जो आपने लिखा है गलत है । सही अनुवाद यह है।

इसी तरह ईश्वर मुर्दो को जीवित करेगा।

अतएव शाह अब्दुल कादिर साहब ने अनुवाद यूं किया है ।

इसी तरह ईश्वर जिला देगा मुर्दे ।

तो आपका हर सवाल सिरे से गलत हो गया । जो बिगाड़ का आधार फैलाने वाला था आज कल दौरे सुपुर्द नहीं बल्कि इनाम व दंड भुगत रहा है आपने कुरआन पढा होता तो आप को मालूम होता । सुनिए

फ़िरऔन और उसके आज्ञा पालक के पक्ष में फ़रमाया (सुबह व शाम फिरऔनियों को आग पर पेश किया जाता है) कियामत में ऐसे ही शरीरों के साथ उठेंगे जैसे शरीरों के साथ वे दुनिया में जीते थे वर्ना इनाम व दंड तो मरते ही आरंभ हो जाता है ।

(यासीन : 26-27)

ग़ाफ़िर 40:46

निस्सन्देह सारी कायनात ईश्वर की प्रकृति की निशानियां हैं । देखिए अल्लाह फ़रमाता है । (जार्रियात – 20)

लेकिन स्वामी जी ! आयत में किस निशानी का नाम लिया है और किसका इन्कार किया है जो आप यह आपत्ति करने बैठ गए ।

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आपत्ति नंबर 16

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 82

वे सदैव के लिए जन्नत में रहने वाले हैं।

(आयत : 82)

आपत्ति – 16

चूंकि जीव (आत्मा) असीम गुनाह व सवाब करने की ताकत नहीं रखते इसलिए सदैव के लिए जन्नत या जहन्नम में नहीं रह सकते और यदि ईश्वर ऐसा करे तो वह अन्याय से अनभिज्ञ और बे खबर ठहरे । यदि कियामत की रात न्याय होगा तो मनुष्यों के गुनाह व सवाब समान होने चाहिए यदि कर्म असीम ही नहीं हैं तो उनका फल असीम क्यों कर हो सकता है और मुसलमान लोग दुनिया की पैदाइश सात आठ हजार साल से भी कम बताते हैं क्या इससे पहले खुदा निकम्मा बैठ रहा था ? और क्या कियामत के पीछे भी निकम्मा रहेगा । ये बातें लड़कों की बातों की तरह हैं क्योंकि परमेश्वर के काम सदैव होते रहते हैं और जितना किसी के गुनाह व पुन होते हैं । उसी के अनुसार उसे फल देता है अतः कुरआन की यह बात सच्ची नहीं है ।

आपत्ति का जवाब

स्वामी जी को यदि अदालत मिल जाती तो शायद चोर को इतनी ही मुद्दत कैद करते जितनी उसने चोरी करने में खर्च की होती । पंडित जी यदि कर्मों के समय दंड या इनाम है तो कृष्ण जी । गीता में क्यों कहते हैं कि आत्मा सदकर्म करके आवागमन के चक्कर से छूट जाती है यद्यपि आप इसे किसी खास कारण से न मानते हों लेकिन कृष्ण जी का फरमान आपकी सोच से कहीं । बढ़कर है । आप किसी तर्क से बता दें कि कर्मों के समय समान दंड व इनाम का होना जरूरी है यद्यपि कानून शाही में हम ऐसे अपराध भी देखते हैं कि थोड़े से समय में किए जाते हैं और आजीवन कारावास उनका दंड है । अतएव आप भी बहवाला मनुजी सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 201 अध्याय 6 न0 42 पर लिखते हैं

सरकारी कर्मचारी को रिश्वत लेने पर जायदाद की जती और सारी उम्र के लिए देश निकाला और झूठी गवाही देने पर जबान काट डाली जाए और मरने के बाद सुख वैभव भी नसीब में नहीं।

बताइए । मुद्दत के बराबर दंड मिला या अधिक । सच पूछो तो अपनी मन गढ़त बातों का यही नतीजा होता है कि आदमी को नदामत के सिवा कुछ नहीं मिलता । हां यह अच्छी भली दलील है जो पंडित जी ने वाक्य 104 में दी है ।

यदि मीठा ही रोज खाया जाए तो थोड़े ही दिनों में जहर की तरह मालूम होने लगता है ।

(समुल्लास 14 आपत्ति 106)

भला स्वामी जी आपने मीठे की मिसाल दी तो नमकीन की क्यों ने दी । यदि कोई एक मुद्दत तक मीठा खाकर मीठे से घबराता है तो इसलिए कि मीठा उसके जी की मर्जी के अनुसार इतना नहीं होता जितना नमकीन होता है अतः वह मीठे से नहीं बल्कि ना पसन्दीदा चीजों से नफरत कर जाता है । क्या ही समझ का फेर है । भला कोई व्यक्ति यदि दुनिया में बहुत समय तक ऐशो आराम में रहे तो किसी समय उसका मन चाहता होगा कि में कैदखाने में भी कुछ समय गुजारू ?

समाजियो ! धर्म से कहना, आठ हजार साल दुनिया की उम्र आपने कहीं कुरआन के 31वें_1 पारे में तो नहीं देखी ? किसी आयत या हदीस में यह बात कहीं नहीं मिलती बल्कि मात्र आपका या आप जैसों का ख्याल है ।

हां यह भी खूब कही कि इससे पहले ईश्वर निकम्मा बैठा था । पंडित जी ! लीजिए हम आपको बताते हैं यह तो आपकी मामूली बात है कि मुसलमान दुनिया की उम्र आठ हजार साल मानते हैं हां इसमें संदेह नहीं कि मुसलमान बड़े पापी हैं कि ये अल्लाह की जात को छोड़ कर इस सारी कायनात को हादिस (समाप्त होने वाली) अवश्य जानते हैं क्योंकि सारी कायनात मिश्रित है और मिश्रित अनादि नहीं हो सकता इस बात के स्पष्टीकरण के लिए आप ही के कलाम को प्रस्तुत करना उचित है । आप स्वयं नास्तिकों के जवाब में लिखते हैं ।
बिना कर्ता के कोई भी हरकत या हरकत से पैदा होने वाली वस्तु नहीं बन सकती जो जमीन आदि चीजों की ख़ास तरकीब से मिल कर बनी हुई नजर आती हैं अनादि कालिक कभी नहीं हो सकतीं ।

(सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 8 पृष्ठ 180)

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट

और पृष्ठ 557 पर लिखते हैं
जो मिलाप से पैदा होता है वह अनादिकालिक व सर्वकालिक कभी नहीं हो सकता ।

(सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 12 )

आप दुनिया की उम्र चाहे कितनी ही लगा लें और कितने ही इसके कल्प (बार बार पैदा होने) कहें मगर इससे तो आप इन्कार नहीं कर सकते कि दुनिया मुक्कब (मिश्रित) है और जो मिश्रित है । वह नवीन है । नतीजा साफ है कि दुनिया के वजूद में आने का आरंभ है जिससे पहले वह न थी । अतएव आप स्वयं लिखते हैं ।

जो वस्तु मिलाप से बनती है वह मिलाप से पहले नहीं होती और टूट फूट जाने के बाद भी नहीं रहती।

(पृष्ठ – 288 अध्याय 8 न0 28)

अतः आपके कलाम से भी यह पता चला कि ईश्वर किसी समय निकम्मा बैठा होगा । ऐसा ही किसी समय निकम्मा बैठेगा । यदि आप कहें कि वर्तमान दुनिया का आरंभ व अन्त है मगर इसका सिलसिला अनादिकालिक है । एक दुनिया के बाद दूसरी और दूसरी दुनिया के बाद तीसरी । (सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 8 न24)

तो यह आपके उसूल के खिलाफ है क्योंकि अनादि पदार्थ आपने केवल तीन ही गिने हैं । परमेश्वर (खुदा) जीव (आत्मा) प्रकृति, अविभाजित अंश । (सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 8 पेज 172)

अतः यदि इन चीजों के सिवा दुनिया के सिलसिले को भी आपने प्राचीन और अनादि कालिक माना तो चार चीज़ क्यों अनादिकालिक मानते हो । जिससे नास्तिकता की बुनियाद पक्की हो । यह बात सही है कि बाहरी पदार्थों को सम्पूर्ण पर प्राथमिकता जमानी होती है जिसका साफ मतलब यह है कि एक समय अवश्य ऐसा होता है कि पदार्थ हों मगर कुल (सम्पूर्ण) जो उनसे मिलकर बना है न हो अतएव आप भी मानते हैं कि “जो वस्तु मिलाप से बनती हैं वह मिलाप से पहले नहीं होती।” अतः इस उसूल को मानते हुए भी दुनिया के सिलसिले को प्राचीन कहना विरोध करने वालों के साथ होना है जो बुद्धिमानों के लिए उचित नहीं तो फिर नतीजा साफ है कि दुनिया का सिलसिला किसी खास समय से चला है कि जिसको ईश्वर ने इसके लिए उचित समझा इससे पहले ईश्वर बेकार हो या काम वाला । हम दोनों के सोचने से बाहर हैं | हमारा तो केवल इतना ही कहना है कि

अल्लाह ने सब चीजों को पैदा किया और हर चीज़ को जानता है।”

जब कुछ न था तब निराकार था

खिलकृत का पैदा करनहार था

[नोट:- सृष्टि रचना के बारे में दयानन्द जी किस तरह विफल हो गए ये जानने के लिए हम अनवर जमाल साहब की लिखी हुई किताब “दयानन्द जी ने क्या खोजा क्या पाया?” मेसे एक छोटा सा अंश सृष्टि रचना और परमाणु पर देखते हैं

सृष्टि संरचना की ग़लत कल्पना को वैदिक सिद्धान्त समझ बैठे स्वामी जी?

… सबसे सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात जो काटा नहीं जाता उसका नाम परमाणु, साठ परमाणुओं से मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथ्वी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिलाकर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं।

(सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम. पृ.152)

हरेक अणु में 60 परमाणु होते हैं। ऐसा कहना विज्ञान के विरुद्ध है।

परमाणु टूटने के साथ ही स्वामी जी का दर्शन मिथ्या सिद्ध हो गया

परमाणु को अविभाज्य मानना भी ग़लत है। दरअसल प्राचीन काल से भारतीय दर्शन में परमाणु का न टूटना बताया गया है और स्वामी जी के काल तक परमाणु को तोड़ना संभव नहीं हुआ था। इसलिए वह परमाणु को अविभाज्य लिख गए हैं परन्तु अब परमाणु को तोड़ना संभव है। विदेशी वैज्ञानिकों ने अपने विज्ञान से परमाणु को तोड़ डाला। भारत के वैज्ञानिकों ने उनसे यह विज्ञान सीखा। आज भारत में कई ‘परमाणु रिएक्टर’ इसी सिद्वान्त के अनुसार ऊर्जा उत्पादन करते हैं। परमाणु के टूटने के बाद स्वामी जी का परमाणु विज्ञान व्यर्थ और कल्पना मात्र सिद्ध हुआ। दरअसल यह कोई वैदिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि एक दार्शनिक मत है। विदेशी वैज्ञानिकों ने जैसे अविष्कार बिना वेद पढ़े ही कर दिए हैं, आर्य समाजियों को अपने गुरूकुलों में वेद पढ़कर उनसे बड़े अविष्कार कर दिखाने थे। वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए, सिवाए दूसरों की मज़ाक़ उड़ाने और डींग हाँकने के। परमाणु टूट गया लेकिन फिर भी वे दर्शन की उन पुरानी मान्यताओं को नहीं छोड़ पाए, जिन्हें भारतीय वैज्ञानिकों ने त्याग दिया है।

आग, पानी, हवा और पृथ्वी की संरचना का वर्णन भी विज्ञान विरूद्ध है। उदाहरणार्थ चार द्वयणुक अर्थात 8 अणुओं के मिलने से नहीं बल्कि हाइड्रोजन के 2 और ऑक्सीजन का 1 अणु, कुल 3 अणुओं के मिलने से जल बनता है। इसी तरह पृथ्वी भी पांच द्वयणुक से नहीं बनी है बल्कि कैल्शियम, कार्बन, मैग्नीज़ आदि बहुत से तत्वों से बनी है और हरेक तत्व की आण्विक संरचना अलग-अलग है। वायु के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है। वायु भी दो अणुओ से नहीं बनती। जो बात स्वामी जी ने जैनियों के विषय में कही है। वह स्वयं उन पर ही चरितार्थ हो रही है। देखिए-

स्थूल वात का भी यथावत ज्ञान नहीं तो परम सूक्ष्म सृष्टिविद्या का बोध कैसे हो सकता है?

(सत्याथ प्रकाश, द्वादशसमुल्लास, पृष्ठ 294)]

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आपत्ति न. (17)
और जब ली हमने प्रतीज्ञा तुम्हारी, न डालो तुम रक्त अपने आपस के और न निकाल दो किसी आपस में अपने को घरों अपने से। फिर इकरार किया तुमने और तुम गवाह हो। फिर तुम वे लोग हो कि मार डालते हो आपस में अपने के और निकाल देते हो। एक सम्प्रदाय को आप में से घरों उनके से। (आयत 84-85)
आपत्ति
भला प्रतीज्ञा करना, कराना कोई अल्पज्ञान और मन बुद्धि वाले लोगों की बात है या ईश्वर की? जब ईश्वर सर्व ज्ञाता है तो ऐसी बेहूदा बातें दुनिया दारों की तरह क्यों करेगा? आपस में रक्त न बहाना और अपने धर्म वालों को घर से न निकालना और दूसरे धर्म वालों का रक्त बहाना और घरों से उनको निकाल देना भला कौन सी अच्छी बात है? यह तो मूर्खता और पक्षपात से भरी व्यर्थ की बात है। क्या ईश्वर पहले से ही नहीं जानता था कि यह प्रतीज्ञा मेरे खिलाफ करेंगे? इससे स्पष्ट होता है कि मुसलमानों का खुदा भी ईसाइयों के बहुत से गुण रखता है और यह कुरआन दूसरी किताबों का मोहताज है क्योंकि इसकी थोड़ी सी बातों को छोड़कर शेष सब बाइबिल की हैं।

आपत्ति का जवाब
ऐसी निरर्थक आपत्तियां यदि कोई और करता तो उसकी शिकायत भी होती। पंडित जी के स्वभाव में तो ऐसी ही बातें भरी थीं इसलिए वे अपनी आदत से मजबूर हैं। क्या अजीब लाजिक छाटी है कि प्रतीज्ञा कराना भी सीमित व मन बुद्धि वाले लोगों का काम है पंडित जी ईश्वर की प्रतिज्ञा लेने का मतलब आदेश का होना है यदि आदेश देना भी सीमित बुद्धि वालों का काम है तो सारे वेद भगवान की टीका लिखने का कष्ट क्यों उठाया था? आखिर उसमें भी तो आदेश ही हैं।
बाकी मरने मारने का जवाब वाक्य न. 2 में आ चुका है हा यह भली कही कि पहले नहीं जानता था कि ये प्रतीज्ञा के विरुद्ध करेंगे? क्या परमेश्वर नहीं जानता था कि आर्यव्रत के आर्यों ने मेरे प्रस्तावित निर्देशों पर तो अमल करना नहीं जिसका बदला उनको दुनिया ही में महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी से दिया जाएगा। फिर क्यों हथियारों की सफाई और उनको तैयार रखने का निर्देश देता रहा। (देखो आपत्ति नम्बर 2) हाथ ला उस्ताद क्यों कैसी कही?
“सच है , बहुत से लोग ऐसे हठ धर्म होते हैं कि बात करने वाले के खिलाफ़ असल उद्देश्य की तावील करते हैं उनकी बुद्धि अंधेरे में फंस कर नष्ट हो जाती है।” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ -7,उर्दू )

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आपत्ति नंबर 18

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 86

ये वे लोग हैं कि मोल लिया सांसारिक जीवन परलोक के बदले । तो ने हल्की की जाएगी उनसे यातना और न मद्द किए जाएंगे ।

(आयत – 86)

आपत्ति – 18

भला ऐसी घृणा व ईष्र्या की बातें कभी ईश्वर की ओर से हो सकती हैं ? जिन लोगों के गुनाह हल्के किए जाएंगे या जिनको मदद दी जाएगी वे कौन हैं ? यदि वे पापी हैं और पापों के बिना दंड दिए या हल्के किए जाएंगे तो अन्याय होगा । जो दंड देकर भी हल्के न किए जाएंगे तो जिनका बयान इस आयत में है ये भी दंड भोग कर हल्के हो सकते हैं और दंड देकर भी हल्के न किए जाएंगे तब भी अन्याय होगा । यदि गुनाहों से हल्के किए जाने वालों का मतलब ईश्वर से डरने वालों से है तो उनके गुनाह तो आप ही हल्के हैं । ईश्वर क्या करेगा । इससे मालूम हुआ कि यह लिखावट किसी विद्वान की नहीं और वास्तव में धर्मात्माओं को सुख और अधर्मियों को दुख उनके दुष्कर्मों के अनुसार ही सदैव देना चाहिए ।

आपत्ति का जवाब

पंडित जी ! इतनी घृणा कि “मैं बदकार अत्याचारियों को कभी आशीर्वाद नहीं देता” (त्रग वेद अशटक 1 अध्याय 2 वरग 18 मंत्र 2) “अगर मगर” में आपने जितना समय खोया किसी अरबी पाठशाला में जाकर इस आयत का मतलब पूछ लेते कि ये लोग कौन हैं तो इतना कष्ट आपको न होता । न इस्लाम के प्रति भ्रम फैलाने का आपको पाप होता । ये वही लोग हैं जिनको आप भी सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 10 में मनु जी के हवाले से कर आए हैं । कि

“जो व्यक्ति वेद की निंदा करता है वही नास्तिक है ।”

बल्कि यही हैं जिनके बारे में वेद में कहा गया है ।

वे परमेश्वर की मदद और हिमायत से वंचित रहकर सदैव की मौत अर्थात जीने मरने के चक्कर में रहते हैं ।

(यजुर्वेद अध्याय 25 मन्त्र 13)

सुनों और बड़े ध्यान से सुनो । असल कुरआनी शब्द ये हैं

उलाइक ल्लाजी नश त र वुल हयातद दुन्या बिल आखिरति फला मुखफुफ्फु अन्हुमुल अज़ाबु वला हुम युन्सन

उन्हीं लोगों ने दीन के बदले दुनिया को पसन्द किया । अतः उनसे यातना में कमी न होगी और न ही उनको किसी से मदद पहुंचेगी ।

(सूरह बक़रह – 175)

समाजियो ! यदि अरबी लिखने की योग्यता रखते हो तो इन शब्दों पर सोच विचार करो, नहीं तो अनुवाद ही देख लो और अपने स्वामी की आपत्तियों की दाद दो ।

यह भी पढ़ें

आपत्ति नंबर 6, क़ुरआन सूरह बक़रह आयत : 10

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आपत्ति नंबर 19

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 87

(आयत – 87)

आपत्ति – 19

जब कुरआन में गवाही है कि मूसा को किताब दी तो उसकी मानना मुसलमानों के लिए अनिवार्य ठहरा और जो जो इस किताब में कमी व खराबी है वे भी मुसलमानों के धर्म में आ गगी और चमत्कार की बातें सब बेकार हैं और सीधे सादे लोगों के बहकाने के वास्ते गढ़ी गयी हैं क्योंकि कुदरत के कानून और ज्ञान के विपरीत सारी बातें झूठी ही हुआ करती हैं । यदि उस समय चमत्कार थे तो अब क्यों नहीं होते । चूंकि इस समय नहीं होते इसलिए उस समय भी नहीं होते थे । इसमें तनिक भी संदेह नहीं ।

आपत्ति का जवाब

बाइबिल के मानने के आरोप का जवाब नंबर 5 में दे चुका हूं । पंडित जी की आदत है कि सीधे सादे लोगों के बहकाने को नम्बरों की संख्या बढ़ाते हैं । चमत्कारों का जवाब भी नंबर 14 में आ चुका है ।

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आपत्ति नंबर 20

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 89
और उससे पहले काफिरों पर विजय चाहते थे जो कुछ काफिरों पर फटकार है अल्लाह की ।

(आयत : 89)

आपत्ति – 20

जिस प्रकार तुम गैर धर्म वालों को काफिर कहते हो उसी प्रकार क्या वे तुम को काफिर नहीं कहते ? और वे अपने धर्म के खुदा की ओर से तुम्हें फटकारते हैं फिर कहो कौन सच्चा और कौन झूठा है ? जब ध्यान से देखते हैं तो सारे धर्म वालों में झूठ पाया जाता है । और जो सच है वह सब में समान है । ये सारे झगड़े अज्ञानता के हैं ।

आपत्ति का जवाब

इस वाक्य में तो स्वामी जी ने फैसला ही कर दिया जिसका मतलब इन शब्दों में समझने से कोई चीज बाधक नहीं कि सत्यार्थ प्रकाश जिसमें सारे धर्मो का खंडन है बिल्कुल अज्ञानता से भरी हुई है । हम यदि यह बात कहते तो हमारे समाजी दोस्त हमसे नाराज़ होते और हमें पक्षपाती और कौन कौन सी उपाधियां प्रदान करते मगर शुक्र है कि उनके अपने बयान ने फैसला कर दिया ।
हुआ मुद्दई का फेसला अच्छा मेरे हक में

जुलैख़ा ने किया खुद पाकदामन माहे किंआं का ।

बाकी रहा गैर कौमों का काफिर कहना । हम इससे नाराज नहीं काफिर का मायना इन्कार करने के हैं । हम स्वयं कहते हैं ।
“हम तुम्हारे दीन का इन्कार करते हैं । धार्मिक कामों में | हमारी तुम्हारी मुखालिफत सदैव के लिए है जब तक तुम अकेले खुदा पर ईमान न लाओ।”

(सूरह मुमतहिना – 4)

हां स्वामी जी ! जिस प्रकार आप वेद के इन्कारियों को अधर्मी और नास्तिक कहते हैं इसी प्रकार ईसाई और हिन्दू आपको इंजील और पुराणों के इन्कार करने की वजह से अधर्मी कहते हैं फिर कहिए तुम में से कौन झूठा और कौन सच्चा है ? यहां तो स्वामी जी बड़ी समझौते की पालीसी चले हैं । असल यह है कि पंडित जी के कई रंग हैं । लेकिन आप रवयं ही समझ जाइए।

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आपत्ति नंबर 21

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत : 89

शुभ सूचना ईनानदारों को । अल्लाह, फरिश्तों, सन्देष्टाओं जिबरील और मीकाईल का जो दुश्मन है अल्लाह भी ऐसे काफिरों का दुश्मन है ।

(आयत:98)

आपत्ति – 21

जब मुसलमान कहते हैं कि अल्लाह किसी का साझी नहीं है फिर ये फौज की फ़ौज कहां से कर दी ? क्या जो औरों का दुश्मन है वह खुदा का भी दुश्मन है ? यदि ऐसा है तो ठीक नहीं । क्योंकि खुदा किसी का दुशमन नहीं हो सकता ।

आपत्ति का जवाब

इस उपरोक्त अनुवाद को देखने वाले भली प्रकार समझ सकते हैं कि दयानन्द जी को भ्रम में कहां तक आनन्द मिलता है । अनुवाद ऐसा प्रस्तुत किया है जिसका सर है न पावं है क्यों न हो स्वामी का कहना क्या ही सच है
आगे पीछे न देखने वाले अज्ञानियों को ज्ञान कहा ।

(भूमिका पृष्ठ 52)

मगर खैर हमें तो इनके सवाल का जवाब देना है । समाजी मित्र तो गला फाड़ फाड़ कर परमेश्वर अकेला सर्वशक्तिमान कहते हैं। फिर क्या कारण है कि वेद बताता है ।

परमात्मा के इस खजानए कुदरत को जिसकी देवता रक्षा करते हैं कौन नहीं जान सकता है ।

(अथर्ववेद कांड 10 प्रफाटक 23 अनुवादक 4 मंत्र 23 )
देवता उसके सेवक (नौकर) और कुछ दूत (सन्देश पहुंचने वाले) बाकि उसके पास बैठ गए !

अथर्ववेद 15:3:10

वेद यह भी आज्ञा देता है ।

तैंतीस देवता उस परमात्मा के बांटे गए कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं । वे उसकी कुदरत के आंशिक द्योतक हैं जो लोग इस ब्रह्म अर्थात वेद या सव्र ब्रहमांड ईश्वर को पहचानते हैं वेद उन तैंतीस देवताओं को जानते और उनको इसी ब्रहम के सहारे स्थापित मानते हैं ।

(उपरोक्त हवाला मंत्र 27 )

जब परमेश्वर एक बिना किसी साझी के है तो पंडित जी यह फौज (साझी) कहा से आ गयीं ? यह है स्वामी जी की योग्यता । इतना भी नहीं जानते कि प्राणी को अल्लाह के नाम के साथ मात्र जिक्र आना जाना शिर्क नहीं हुआ करता बल्कि इसी हैसियत से आए जिस हैसियत से ईश्वर का नाम आया है तो शिर्क होता है । भला यदि कोई कहे कि ईश्वर इस पापी को नष्ट करे जिसने दयानन्द जी को विष से मार डाला तो क्या यह भी शिर्क है ?

प्रिय पाठको पंडित जी के इसी वाक्य पर आप चकित न हों । आगे भी बहुत से अवसर_1 आप सुनेंगे कि स्वामी जी शिर्क से ऐसे भागते हैं जैसे मासाहारी से । अतएव लाइला है इल्लल्लाहु के साथ मुहम्मदरसू लुल्लाह को मिलाना भी शिर्क समझोगे । क्यों न हो बेचारे सांपों के डसे हुए रस्सियों से डरते हैं । लम्बी अवधि के शिर्क और मूर्ति पूजा में फंसे हुए, मुसलमानों की आपत्तियां सुन-सुन कर इस मार्ग पर आए हैं इसलिए थोड़ा बहुत मजबूर भी हैं मगर अफ़सोस ।

हां, यह खूब कही कि “खुदा किसी का दुश्मन नहीं हो सकता।” हम पंडित जी की स्म्रण शक्ति की कहां तक शिकायत करें । ईश्वर का आदेश भी सुनिए – और तनिक ध्यान से सुन लीजिए ।

“मैं व्यभिचार अत्याचारियों को कभी आशीर्वाद नहीं देता ।”

ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 39 मंत्र 2

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बताइए ये कौन लोग हैं जिनको आशीर्वाद नहीं मिलता, वही है जिन को कुरआन में अल्लाह का दुश्मन या सूरह बकरा 98 में । फइनल्लाह अदुवुन लिल काफिरीन कहा गया है । स्वामी जी यह समझ बैठे होंगे कि जिस तरह हम अपने दुश्मन को हो सके तो दम भर जीने नहीं देते । ईश्वर भी ऐसे ही करता होगा मगर उनको मालूम नहीं ।

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आपत्ति नंबर 22

क़ुरआन सूरह बक़रह

आयत 58
और कहो कि माफी मांगते हैं । हम माफ़ करेंगे तुम्हारे गुनाह और अधिक नेकी करने वालों के ।

(आयत – 58)

आपत्ति 22

भला यह ईश्वर का पथ प्रदर्शन सब को गुनहगार बनाने वाला है या नहीं क्योंकि जब गुनाह माफ हो जाने का सहारा आदमी को मिलता है तब गुनाहों से कोई भी नहीं डरेगा । इस वास्ते ऐसा कहने वाला ईश्वर और यह ईश्वर की बनाई हुई किताब नहीं हो सकती । वह न्याय धीश (न्याय करने वाला) है । अन्याय कभी नहीं करता और गुनाह माफ करने से तो अन्यायी हो जाता है मगर जैसी गलती हो जैसी सजा देने से ही न्याय करने वाला हो सकता है ।

आपत्ति का जवाब

यह मसला स्वामी का विचार करने योग्य है । इसे पंडित जी ने कई एक अवसरों पर लिखा है सबका मतलब यह है कि तौबा स्वीकार नहीं होती । हम वायदा अनुसार पहले वेद मन्त्र स्वामी जी बयान करके इसकी मन्शा समाजियों से पूछते हैं । मन्त्र से पहले स्वयं पंडित जी भूमिका में एक प्रस्तावना लिखते हैं वह भी विचार योग्य हैं । आप लिखते हैं

इस ईश्वर की हिदायत किए हुए धर्म को मानना हर मनुष्य पर फर्ज हैं और चूकि उसकी मदद के बिना सच्चे धर्म का ज्ञान और उसकी पूर्ति सफल नहीं हो सकती । इसलिए हर मनुष्य को ईश्वर से इस तरह मदद मांगनी चाहिए ।
“ऐ अग्नि (परमेश्वर) प्रतीज्ञा व सत्य के स्वामी व रक्षक ! मैं सच्चे धर्म पर चलूगा अर्थात उसकी पाबन्दी करूँगा । ऐ परमेश्वर मुझे सच्चे नेक रास्ते और धर्म पर अमल करने की ताकत दे । आप मुझे साहस दीजिए कि मेरी सच्चे धर्म की प्रतीज्ञा आप की कृपा से पूरी हो (प्रतीज्ञा यह है) में आज से सच्चे धर्म की पाबन्दी और झूट खोटे चलन और अधर्म से दूरी अपनाता हूं ।”

(यजुर्वेद अध्याय 1 मन्त्र)

अब सवाल यह है कि इस प्रतीज्ञा के अनुसार जिसे इस्लामी मुहावरे में तौबा कहते हैं इस प्रतीज्ञा (तौबा) करने वाले का क्या लाभ ? ईश्वर के सामने तो ऐसी विनम्रता से अपनी नेक नीयती को व्यक्त किया और वहां जो जवाब मिला कि तेरे पिछले गुनाह तो बराबर मौजूद हैं । जिनके नतीजे में तू एक बार पाखाना का करम या जंगल का बन्दर या सुअर बनेगा क्योंकि बिना इसके द्वारा उसूल और दया बिगड़ती है हां, आगे को यदि तूने कुछ सदकर्म किये तो तुझे बदला मिलेगा । फिर बताईए ऐसे ईश्वर से तो मामूली बनिया दुकानदार भी कई गुना अच्छा है या नहीं ? जिनके नौकर यदि सच्ची नीयत से तौबा करें और आगे को आज्ञा पालक बनने और नया काम करने की प्रतीज्ञा करें तो वे भी एक दो बार उनको क्षमा कर ही देते हैं मगर परमेश्वर ऐसा दयालु है कि उसे बन्दे के दिलों का हाल मालूम हैं इसके बावजूद वह मात्र नेक नीयती के साथ मेरे आगे गिड़ गिड़ाता है फिर भी उसके हाल पर दया खाकर उसकी गलतियों को माफ नहीं करता । सच पूछो तो परमेश्वर भी सच्चा है । वह (आर्य समाज के कथनानुसार) इसी तरह तौबा करने पर गुनाह माफ़ करता जाए तो उसके देश और शासन में खलल आता है क्योंकि उन्ही बदकारों को तो उसने हैवानी जानवरों के शरीरों में ढाल ढाल कर दुनिया को आबाद रखना है यदि यही बटेरे हाथ से निकल गयी तो वह लाएगा कहां से ?

हैरत तो यह है कि स्वामी जी के मुंह से भी कभी कभी आप से आप सच्ची बात निकल जाती है मगर यद्यपि किसी खाने में निकले । आप स्वयं सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 7 न0 13 में मानते हैं कि न्याय व ईश्वरीय दया में आपसी विभेद नहीं अतः हम भी पंडित जी की तकरीर की व्याख्या करने को उन्हें और उनके चेलों को बताते हैं कि न्याय का अर्थ हरेक वस्तु को ठीक ठीक उसके स्थान पर रखना भलाई का इरादा है या किसी की दुखद हालत पर तरस खाना । यह ”गुण” भलाई का इरादा पंडित जी भी ईश्वर के बारे में मानते हैं ( देखो सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 235 , अध्याय 7 न0 19 ) तो आप बताइए कि एक व्यक्ति जो दिल की निष्ठा के साथ ईश्वर के आगे बिना किसी यातना देखने के गिड़गिड़ाता है तौबा करता है तो उसका न्याय (जिसके मायना थे हरेक वस्तु को ठिकाने पर रखना) इस तौबा के लिए भी कोई अवसर प्रस्तावित करेगा और उसका रोना धोना और बे देखे हाय तौबा भी कोई जरूरत है ? बन्दों के हरेक कर्म के लिए जब कोई न कोई कारण हो तो कोई वजह नहीं कि इस काम (तौबा) का कोई औचित्य नहीं है तो बताइए कि कुबूल तौबा ठीक ठीक न्याय और दया दोनों है या नहीं ? बल्कि तौबा का कुबूल न होना और गुनाहों का माफ न होना सरासर जुल्म और न्याय के विरुद्ध है क्योंकि यह बात चीजों को अपने ठिकाने पर रखने के भी विरुद्ध है।

असल में स्वामी जी को बन्दों के अधिकारों और अल्लाह के अधिकारों के बीच भ्रम हो गया । स्वामी जी की तकरीर से जो पृष्ठ 350 सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 7 पर है यहीं मालूम होता है कि आप को दोनों में तमीज़ नहीं । तो हम अपने समाजी दोस्तों को बताते हैं । कि इनमें बहुत बड़ा फर्क है और हम भी पहली बार में ही तौबा के काइल नहीं जब तक वह व्यक्ति जिसकी कुछ हानि की हो माफ न कर दे क्योंकि इससे विश्व व्यवस्था बिगड़ती है और दूसरी किस्म में तौबा के स्वीकार होने को मानते हैं । बशर्ते कि सच्चे दिल से और नेक नीयत से मात्र अल्लाह के अजाब से और अपनी बुराइयों के भय से तौबा करे और यह भी शर्त है कि तौबा करते समय आइन्दा (भविष्य) का पक्का ध्यान जी में इस काम के न करने का करे । सुनो
अल्लाह के निकट तोबा उन्हीं लोगों की कुबूल होती है जो नफस के हमले में फंस कर बुरे काम करते हैं फिर झट से तौबा करते हैं।

(सूरह निसा – 17)
माफी उन लोगों के लिए जो गुनाह करके ईश्वर को याद करते हैं और अपने गुनाहों पर क्षमा याचना मांगते हैं और (जानते हैं) कि ईश्वर के सिवा कोई गुनाह बख्श नहीं सकता और अपने किए पर जान बूझ कर अड़े नहीं रहते ।

(सूरह आले इमरान – 135)

स्वामी जी ने इस पर भी ध्यान से काम नहीं लिया कि जितनी उच्च विशेषताएं दुनिया में हैं उन सब का स्त्रोत अल्लाह के गुण ही हैं जैसे दानवीरता एक उत्तम कमाल है तो असल उसी स्त्रोत का एक निशान है । ऐसा ही न्याय, दया, मुहब्बत आदि उत्तम गुण सब के सब उसी स्त्रोत के निशान हैं जिसको अल्लाह, परमेश्वर, गॉड और खुदा आदि कहते हैं अतः जब हम दुनिया में बहुत से मुकदमों में दावा करने वाले, फ़रियाद करने वालों और मोहताजों को माफ करते भी देखते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं और कभी कभी इसकी सराहना भी करते हैं ।

तो ईश्वर के बारे में कौन सी दलील इस उत्तम गुण के मानने से हमें रोकती है, हां स्वामी जी का यह कहना कि तौबा से गुनाहों का साहस होता है बड़ी विचित्र बात है पंडित जी को यह भी मालूम नहीं कि सांसारिक कारोबार में जिसमें बन्दों को अपने गलत कामों की माफी का पता भी हो जाता है माफी से साहस और बहादुरी नहीं होती तो ईश्वरीय माफ़ी में जिसका पता भी दुनिया में कदापि नहीं हो सकता क्यों कर साहस बढ़ेगा ? हां, ऐसे लोगों की तौबा इस्लाम में भी स्वीकार्य नहीं जो गुनाह करते हुए यह साहस रखें कि तौबा से गुनाह माफ करा लेंगे तो हम अल्लाह का आदेश सुनाकर इस वाक्य को समाप्त करते हैं | जरा ध्यान से सुनो

तो मेरे गुनाहगार बन्दों को कह दे कि मेरी दयालुता से निराश न हो बेशक अल्लाह (तौबा करने पर) सारे गुनाह माफ कर देगा वही है जो अपने बन्दों की तौबा स्वीकार करता है और गुनाह माफ करता है ।

(सूरा शूरा – 25)

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आपत्ति (14:23) सत्यार्थ प्रकाश
“जब मूसा ने अपनी कौम के लिए पानी मांगा। हमने कहा कि अपनी लाठी पत्थर पर मार उसमें से 12 सोतें बह निकले। ” (आयत -60 )
आपत्ति
देखिए इन असंभव बातों के बराबर
दूसरा व्यक्ति क्या कहेगा एक पत्थर पर लाठी मारनेल से 12 सोतों का निकलना बिल्कुल असंभव है , हां उस पत्थर को अन्दर से खोखला करके उसमें पानी भरने और बारह सूराख करने से ऐसा संभव है और किसी तरह नहीं।

आपत्ति का जवाब (पृष्ठ 84)
चमत्कार संभव और असंभव होने के बारे में हमारी विस्तृत तकरीर तफसीर सनाई भाग तीन हाशिया न. 1 में है सार उसका यह है कि चमत्कार असंभव नहीं है बल्कि उसका नुबुवत के साथ एक विचित्र कैफियत का संबंध है जैसा कि आत्मा और बुद्धि का शरीर के साथ । तो जहां नुबुवत होगी वहां चमत्कार का होना कुदरत का कानून है बिना सबूत चमत्कार नहीं। पंडित जी के इस कथन तो सबसे ज्यादा हैरानी है क्योंकि वाक्य 73 में स्वयं ही फरमाते हैं कि:
“जिस धर्म को हजारों करोड़ों आदमी मानते हों उसको झूठा कहने वाले से बढ़कर झूठ कौन है।” (सत्यार्थ प्रकाश,उर्दू पृ. 697, 14 न. 73)  [ये बात कल की सत्यार्थ प्रकाश, हिंदी में मिलेगी आज की में हटा दी गयीं]

लेकिन यहां यह कायदा भूल गए और यह ध्यान न फरमाया कि चमत्कार को आप की जात या आपके चेलों के (जिनकी गिनती हाथों की उंगलियों पर हो सकती है) सिवा सारे धर्म वाले (मुसलमान , यहूदी , ईसाई , हिन्दू व बौद्ध आदि) मानते हैं और अपने अपने बुजुर्गों के बारे में बहुत से चमत्कार और करामतों का अपने शब्दों मैं बयान करते हैं आप स्वय ही फैसला दें कि आप जो ऐसी बात को जिसे लग भग सारी दुनिया के लोग मानते हैं । खंडन करते है आप से बढ़ कर …… कौन है?

चमत्कार की वास्तविकता केवल यह है कि सामान्य प्रचलित तरीके के विरुद्ध घटित होता है जिसे सुपर नेचरल (प्रकृति के कानून के विरुद्ध) कहते हैं तो इस बात की तहकीक पर सारा आधार है यदि इसका प्रमाण मिल जाए कि प्रचलित आदत के विपरीत भी घटित हुआ या हो सकता है और कम से कम दोनों पक्षों (मुसलमान और आर्य समाजी ) में फैसला हो जाए तो दोनों में किसी का हक नहीं कि चमत्कार पर वृद्धि करे तो आइए इसी उसूली मसले की हम तहकीक करें।

प्रिय पाठको ! यह तो आप लोगों को मालूम होगा जिस की गवाही आप दे सकते हैं कि आम प्रचलित नियम यह है कि मनुष्य को जन्म से पहले के हालात मालूम नहीं हैं न भविष्य में अर्थात मौत के बाद की घटना बता सकता है यद्यपि आर्य समाजी वर्तमान जीवन से पहले जीवन के मानने वाले हैं लेकिन इतना वे भी मानते हैं कि विगत और भविष्य की घटनाओं का पता किसी को नहीं हो सकता। हम इसके बारे में स्वामी दयानन्द जी के निर्देश सुनाते हैं। आप सवाल व जवाब की सूरत में लिखते हैं।”
यदि जन्म बहुत हैं तो पहले जन्म और मौत की बातें क्यों याद नहीं रहती?

“जवाब- जीव सीमित ज्ञान वाला है हर तीसरे जमाने को निरीक्षण में लाने वाला नहीं इसलिए याद नही रहता और जिस मन के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है वह भी एक समय में दो ज्ञान हासिल नहीं कर सकता। भला पहले जन्म की बात तो दूर रहने दीजिए। इस शरीर में जीव जब गर्भ में होता है जहां शरीर तैयार हुआ और फिर पैदा हुआ और पांच वर्ष की आयु से पहले जो जो बातें हुई हैं उनको क्यों याद नहीं कर सकता।
इसी प्रकार जमाने की हालत में या सपने में बहुत सा कारोबार करके गहरी नींद की हालत में इस जागते हुए जमाने के कारोबार क्यों याद नहीं कर सकता और तुम से कोई पूछे कि बारह साल से पहले तेरहवें साल के पांचवे महीने में नवें दिन दस बजकर पहले मिनट में तूने क्या किया था। तुम्हारा मुंह , हाथ , कान , आंख और शरीर किस ओर और किस प्रकार का था और मन में क्या सोच थी। जब इस शरीर में यह हाल है तो पिछले जन्म की याद रहने के बारे में भ्रम पैदा करना मात्र लड़कपन की बात है और कोई व्यक्ति पिछले जन्म और अगले जन्म के हालात को जानना चाहे तो जान भी नहीं सकता क्योंकि जीव का ज्ञान और आस्तित्व सीमित है। यह बात ईश्वर के जानने की है न कि जीव की। (सत्यार्थ प्रकाश समलास 9 न. 31 पृ. 329)

उपरोक्त उल्लिखित मुहावरे से साफ साबित है कि पिछले जन्मों का हाल किसी को मालूम नहीं हो सकता बल्कि यह ईश्वरीय गुण है जिसमें कोई भी आत्मा या जीव भाग नहीं ले सकता। बहुत अच्छा आगे चलिए। स्वामी जी की आत्म कथा में उनका कथन यूं नक्ल है।

“पंडित कमल नैन जी का कथन है कि जोधपुर जाते समय स्वामी जी फरमाते थे कि शरीर का अब कुछ भरोसा नहीं , न जाने किस समय छूट जाए और मैं इस कार्य (वेद की टीका) के लिए फिर दोबारा जन्म लूंगा और उस समय जो मेरे विरुद्ध हुए वे सब शान्त  हो जाएंगे। आर्य समाजियों की प्रगति से भी बड़ी भारी मदद मिलेगी। मैं उस समय वेद का अनुवाद पूरा कर दूंगा। (स्वानेह उमरी कलां पृष्ठ 867 )
इस हवाले से दो बातें साबित होती हैं। एक यह कि स्वामी जी की आत्मा को भविष्य वाले शरीर का पता था दूसरे यह कि उस आने वाले समय में आपको पिछले जन्म की जानकारी होगी इसीलिए तो आप अपने अधूरे काम  वेद की टीका) को पूरा करेंगे। ये दोनों विद्याएं कुदरत के आम कानून के खिलाफ हैं। एक और गवाही सुनिए।
पंडित लेख राम मकतूल आर्य मुसाफिर लिखता है।
“प्रिय प्यारे लाल निवासी मोटी जिला बरेली जिसका चचा 1857 की बगावत में मारा गया। जब कुछ दिन गुजरे तो उसने तोते का जन्म लिया और यही तरीका अपनाया कि हर शाम को अपने घर आता और एक लोहे का पिंजरा जो उसके घर रखा हुआ था उसमें बसेरा कर लेता और सुबह को उड़ जाता। कुछ दिन यही हाल रहा। फिर एक दिन वह तोता गया वापस न आया। लोगों को उसकी बड़ी चिंता रही। उन दिनों का हाल सुनिए। एक गोसाई की औरत निवासी ग्राम सूंघू अपने काम से किसी गांव में जाती थी। रास्ते में प्यास के कारण अपने किसी जान पहचान वाली के घर आयी। उस का पांच साल का बच्चा पोता राम के घर आया और औरतों से कहा कि फलां फलां कहां हैं। कहा कि फलां मर गए और फलां काम से फलां जगह गए हैं| इसके बाद लड़के ने बयान किया कि मेरा पहला नाम प्यारे लाल है और यह घर मेरा है यहां नीम का एक पेड़ था वह कहां गया? उन्होंने कहा कि हम ने काट डाला । फिर उस लड़के ने अपने मारे  जाने और मरकर तोता बनने और उस शिकारी के पंजे में फंस कर मरने और गोसाई में पैदा होने की बात बताई और अपने मां, बाप, नानी , चाची को पहचान कर अपनी टोपी मांगी। उसकी पूर्व मां ने क्षमा याचना की, कि ये चीजें तुम्हारे भतीजे के इस्तेमाल में आ गयीं हम तुम्हारे लिए दूसरी दे देंगी। लोगों को इस लड़के की ऐसी बातों पर बड़ा अचरज हुआ। इसके बाद वह अपनी नयी मां के साथ चला गया। ” (कृल्लियात आर्यामुसाफिर पृ. 97)

इस हवाले से जो कुछ लेखक ने साबित किया है वही हमारी भी मन्शा है अर्थात प्यारे लाल को तोता बनने की हालत में पहली जानकारी याद रही। फिर पोता राम बनकर तोता की जून बल्कि इससे पहली जून की भी जानकारी हासिल रही यद्यपि आम कानून कुदरत यही है कि किसी पिछले जन्म का ज्ञान हो मगर इस तोता राम को हुआ।

इन दोनों शहादतों से साफ़ साबित है कि ये घटनाएं कुदरत के कानून खिलाफ हैं जिसके बारे में स्वामी दयानन्द ने विचार व्यक्त किए थे कि यह ईश्वरीय गुण है। बस अब आसमान साफ है कि जिस प्रकार ये दोनों घटनाएं प्रकृति के कानून के खिलाफ घटी हुई हैं इसी प्रकार अम्बिया के चमत्कार भी प्रत्यक्ष में सामान्य रूप से कुदरत के कानून के ख़िलाफ़ होते हैं। असल में उनके लिए भी कानून होता है तो इतने ही से चमत्कार की हकीकत समझ में आ सकती है ।
समाजी मित्रों
संभल कर रखियो कदम दश्ते खार मजनूं
कि इस नवाह में सौदा बरहना पा भी है
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आपत्ति (14:24) सत्यार्थ प्रकाश

और अल्लाह ख़ास करता है जिसको चाहता है साथ अपने रहम के।” (आयत -86)
आपत्ति
क्या जो विशेष और दया किए जाने के योग्य नहीं उनको भी खास (रिजर्व) करता और उस पर दया करता है? यदि ऐसा है तो ईश्वर गड़बड़ मचाने वाला है फिर अच्छा काम कौन करेगा? और बुरे काम कौन छोड़ेगा? क्यों कि ऐसी स्थिति में ईश्वर की रजामन्दी पर मनुष्य भरोसा करेंगे और कर्मो के नतीजों पर नहीं। इस गड़ बड़ी की वजह से तो सब सदकर्म करने से अलग हो जाएंगे।

पृष्ठ 89
आपत्ति का जवाब
पंडित जी ! पूछ लेने में क्या हरज था यदि आप एक साल के लिए किसी अरबी पाठशाला में कुरआन पढ़ लेते। मनु जी ने सच कहा है जो वेद (या कुरआन) बिना उस्ताद के पढ़ता है वह चोर है सुनिए कुरआन ने स्वयं दूसरी आयत में इसकी टीका की है।
“जिस व्यक्ति को ईश्वर अपना दूत बनाता है उस के हाल से भली प्रकार जानकार होता है। (अनआम -124)

हां आप बताइए कि यजुरवेद के निर्देशानुसार अध्याय 21 मन्त्र 22 जो व्यक्ति यह दुआ करे कि मुझको समस्त सुख सुविधा या सारे जगत का शासन प्रदान कर उसे क्या मिलेगा। कल एक समय में सारे हिन्दुस्तान के रहने वाले सारे जगत की नहीं केवल हिन्दुस्तान की हुकूमत मांगे तो सब को मिलेंगी या किसी विशेष को सबको तो भला कैसे मिल सकती है? यदि किसी खास को , तो क्यों? यदि पहले कर्मों का नतीजा है तो इस दुआ का क्या फायदा? इसके अलावा पूर्व कर्मों का नतीजा भला भी अल्लाह की दया का असर है। सोच कर जवाब दीजिए। हमारा तो ईमान है। जो कुछ हुआ हुआ करम से तेरे
जो होगा वह तेरे करम से होगा।

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आपत्ति 25
(14:25)
ऐसा न हो कि काफिर लोग हसद करके तुमको ईमान से विमुख कर दें क्योंकि उनमें से ईमान वालों के बहुत से दोस्त हैं। आयत : 110)
आपत्ति
अब देखिए ईश्वर ही उनको याद दिलाता है कि तुम्हारे ईमान को काफ़िर लोग न गिरा दें। क्या ईश्वर को सब कुछ का ज्ञान नहीं है? ऐसी बातें ईश्वर की नहीं हो सकती हैं।

अपत्ति का जवाब 14:25
यह दूसरा स्थान है कि हम ऊंची आवाज से कहते हैं कि भोले स्वामी जी को न्याय बल्कि सूझ बूझ से भी कोई मतलब नहीं था। इस वाक्य का अनुवाद मालूम नहीं पंडित जी ने कहां से चुराया है। हमारे अरबी कुरआन में न तो इस अनुवाद की कोई आयत मिलती है और न अनुवादित कुरआन में यह अनुवाद है । हमने समझा था कि पंडित लेखराम ही में यह कमाल है कि अपनी ओर से अनुवाद में ” थी [1]
का शब्द बढ़ाकर आवागमन का प्रमाण दिया था मगर सत्यार्थ प्रकाश देखने से मालूम हुआ कि असल में स्वामी जैसे धर्म गुरू लेखराम के गुरू थे। इस चालाकी में भी वे आप ही से लाभान्वित थे।
आपत्ति कर्ता के दिल का हाल तो ईश्वर को मालूम है कि इस सवाल से उनका मतलब क्या था। हां जिस आयत का नम्बर लगाया? है वह यह है तनिक ध्यान से सुनो। ईश्वर फ़रमाता है।” नमाज पढ़ते रहो , जकात देते रहो। जो कुछ भलाई अपने लिए भेजोगे उसे ईश्वर के यहां पाओगे जो कुछ भी तुम करते हो ईश्वर देख रहा है। ” (सूरह बकरा -110)
यदि कोई समाजी दोस्त पंडित जी का नकल किया हुआ अनुवाद हमें दिखा दे तो एक सौ रूपया उनको भेंट करेंगे।[2]
समाजियो मुंह न छुपाओ सामने आओ। मर्द मैदान बनो। कहां गया तुम्हारा चौथा उसूल कि सच को स्वीकारने और के छोड़ने में सदैव सतर्क रहना चाहिए।
“यदि हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और नहीं हैं तो आओ दोनों इसी पर अमल करें।
इससे बढ़कर सत्यार्थ प्रकाश के उन अनुवादकों पर अफसोस है जिन्होंने किताब सत्यार्थ प्रकाश का अनुवाद करते हुए कुरआन शरीफ के अनुवाद को सामने तो रखा मगर यह न हो सका कि जहां अनुवाद नहीं मिलता उस न. को काट ही देते और काट देने में दूसरी पार्टी का भय था तो उन्हीं से इस बारे में पत्र व्यवहार करते और यदि वे इस योग्य न थे या अपनी आपसी नफरत आदि इस मश्वरे में रोक थी तो जैसे और अनेक अवसरों पर हाशिए (फुटनोट ) लगाए हैं इन अवसरों पर भी हवाशी (फुटनोट) लगाते और साफ़ कहते कि स्वामी जी से गलती हुई है या उनको उर्दू वालों ने गलती में डाला। मगर यह करते तो किस तरह करते। इन्हें शोध करने से कोई मतलब नहीं , न्याय से इनका कोई लेना देना नहीं । स्वामी जी के हाथ में बागडोर है जिधर चाहें लिए फिरें जिनका यह दो अक्षरी उसूल है।
फिरे जमाना, फिरे आसमां, हवा फिर जा
बुतों से हम न फिरें, हम से गो खुदा फिर जा

उनसे न्याय और ऐसा सुधार? यह तो विचार ही में नहीं आया। एक समाजी मित्र ने किताब छपने के बाद बताया कि स्वामी जी से आयत के न. बताने में गलती हुई है मगर इस अनुवाद की आयत कुरआन शरीफ में है।
आखिर उसने यह आयत बतायी । (वह उपरोक्त उल्लिखित उसूल से जिस तरह फैसला हुआ उसे तो वही जानता है मगर आम पाठकों की खातिर इस आयत का अनुवाद ही नकल करना काफी होगा।
अल्लाह फरमाता है:
“बहुत से किताब वाले यहूदी व ईसाई चाहते हैं कि तुम को ईमान लाने के बाद मात्र अपनी जिद व ईर्ष्या से सत्य प्रकट होने के बावजूद काफिर बनाएं।” (सूरह बकरा -109)
यदि स्वामी जी का तात्पर्य यही आयत है तो बताइए इस आयत से ईश्वर के सर्वज्ञाता होने का पता चलता है या अल्पज्ञान का? समाजियो! चौथे उसूल को याद करके बताना क्या यही तुम्हारा न्याय और सत्यप्रेम है ?

[1- पडित लेखराम ने ” रिसाला तनासुख ” कुरआन से आवागमन का सबूत देते हुए यह आयत भी लिखी है…. अनुवाद: “जितने जानवर हैं ये भी तुम्हारी तरह सम्प्रदाय हैं” चूंकि इतने से पंडित जी का काम न चलता था इसलिए उसने ” थी ” का शब्द बढ़ाकर यूं अनुवाद किया कि “ये जानवर उम्मतें थीं तुम्हारे जैसी” यहां इसी ओर हमने इशारा किया है】
[2- आज तक सालों साल गुजर जाने के बावजूद कोई समाजी यह इनाम लेने के लिए सामने नहीं आया।]
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आपत्ति (26)
“तुम जिधर मुंह करो उधर ही मुंह अल्लाह का है।” (आयत 166)

आपत्ति
यदि यह बात सच्ची है तो मुसलमान किब्ले की ओर मुंह क्यों करते हैं? यदि कहें कि हमको किब्ले की ओर मुंह करने का हुक्म है तो यह भी हुक्म है कि चाहे जिस ओर मुंह करें क्या एक बात सच्ची और दूसरी झूठी होगी? और यदि अल्लाह का मुंह तो वह सब तरफ हो ही नहीं सकता क्योंकि एक मुंह एक ही तरफ को रहेगा सब तरफ किस प्रकार हो सकेगा इसीलिए यह बात ठीक नहीं।
14:26
आपत्ति का जवाब
आयत का अर्थ पूरी तरह साफ है कि जिधर को मुंह करके दुआ करोगे ईश्वर का ध्यान और उसकी स्वीकृति पाओगे। न जाने स्वामी जी को आपत्ति करने की क्यों ऐसी राल टपकती है कि बिना सोचे समझे न. बढ़ाकर अपनी विद्या का सबूत दिए जाते हैं मतलब आयत का यह है जो हमने बताया नमाज के समय में काबे की ओर रुख करना अलग हुक्म है इसे इससे उसका कोई ताल्लुक नहीं। वह एक विशेष समय है यह आप की दुआ का समय है अधिक जानकारी न. 30 में आएगी । अल्लाह के मुंह से तात्पर्य ध्यान और स्वीकृति है अतएव हमने अनुवाद कर दिया।
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आपत्ति (27)
“जो आसमान और धरती का पैदा करने वाला है जब वह कुछ करना चाहता है यह नहीं कि उसको करना पड़ता है बल्कि उसे कहता है कि हो जा बस हो जाता है। (आयत -118)

आपत्ति 14:27
भला जब ईश्वर ने हुक्म दिया कि हो जा तो यह हुक्म किसने सुना? और किसको सुनाया गया और कौन बन गया? किस पदार्थ से बनाया गया। जब यह लिखते हैं कि आदि काल के पहले ईश्वर के सिवा कोई भी दूसरी वस्तु न थी तो यह दुनिया कहां से पैदा हुई कारण के बिना अस्तित्व नहीं होता तो इतना बड़ा ब्रहमांड किसी कारण व पदार्थ के बिना कहां से हो गया। यह बात केवल लड़कपन की है।

आपत्ति का जवाब
इस वाक्य में स्वामी ने पदार्थ (एटम) के बारे में सवाल उठाया है अर्थात मुसलमान जो आर्यों की भान्ति एटम को नहीं मानता तो दुनिया किस चीज से बनी है। इसलिए हम भी इस वाक्य में थोड़ा विस्तार से एटम के हालात बता देंगे और जहां तक हो सकेगा विज्ञान के मौलिक उसूल से काम लेंगे और पाठकों को दिखा देंगे कि आर्यों का दावा
“जहां विज्ञान की रोशनी पहुंचेगी वहां आर्य धर्म का झंडा सबसे पहले लहराएगा” कहां तक सबूत रखता है। मगर इस स्पष्टी करण से पहले इस आयत का मतलब बयान करते हैं आयत का मतलब यह है कि तुम्हारे निकट जल्दी से जल्दी किसी काम का हो जाना इससे ज्यादा नहीं हो सकता कि तुम उसकी कल्पना मस्तिष्क में लाते ही उसको होने का हुक्म करो और वह हो जाए जैसे किसी मकान का नक्शा मास्तिष्क में आया और तुमने उसकी तैयारी का हुक्म दिया यह तुरन्त हो गया। इसी तरह समझो कि ईश्वर के काम जल्दी होते हैं। इनमें से किसी चीज की रोक टोक नहीं कोई बाधा नहीं डाल सकता है।
जिस काम को जितने समय में वह करना चाहे उतने ही समय में होता है असंभव है कि देरी हो जाए। यह नहीं कि खुदा उसको ‘कुन’ कहता है। कुन कहने में तो दो अक्षर बोलने में देरी भी लगती है वहां तो इरादा ही हुआ और कर्म तुरन्त उपस्थित। ( देखो तफसीर बैजावी आदि)
अतः इसके बाद हम स्वामी जी की ओर ध्यान देते और उनसे सवाल करते है कि पंडित जी ने एटम का हाल और उसका रूप जो बताया वह यह है । “सब से लतीफ अंश जो काटा नहीं जाता उसका नाम परमाणु है। साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु है।
दो अणु का एक दोनेक जो गाढ़ी हवा है
तीन दोनेक की आग चार दोनेक का पानी पांच दोनेक की मिट्टी।” (सत्यार्थ प्रकाश 298 समलास 8 न. 50)

स्वामी जी के इस कहने से कि वह काटा नहीं जाता साफ समझ में नहीं आता कि वह अपनी योग्यता से नहीं कट सकता या कोई यंत्र उसके काटने के लिए मिल ही नहीं पाता जो उसे काट सके। यद्यपि उसमें स्वयं कटने की योग्यता है। दूसरी सूरत अर्थात वह योग्यता तो कटने की रखता है मगर ऐसा बारीक यंत्र कोई नहीं मिल सकता जिससे उसको काटा जाए। साबित हुआ कि परमाणु अपने आस्तित्व में तो संग्रह है मगर कोई ऐसा यंत्र न मिल पाने से वे पृथक या टुकड़े टुकड़े नहीं हो सकते
अतः हम यह कह सकते हैं कि ….
“जो मिलाप से पैदा होता है वह अनादिकालिक सर्वकालिक कभी नहीं हो सकता।” (सत्यार्थ प्रकाश पृ. 557 समुल्लास 12 न. 62 )
नतीजा यह है कि स्वामी जी जिस ऐटम को प्राचीन कहते हैं वह स्वयं उनके कथनानुसार नवीन बन गया। और यदि पहली स्थिति है अर्थात इन परमाणुओं में जिनको आप दुनिया का ऐटम मानते हैं। विभाजित होने की योग्यता ही नहीं तो हम कह सकते हैं कि ऐसे परमाणुओं का वजूद ही नहीं हो सकता। क्यों ? तनिक ध्यान से सुनिए।

रेखागणित की बीसवीं शकल का दावा है कि हर त्रिभुज की दो रेखाएं तीसरे से ज़रूर बड़ी होंगी और सुन्दर शक्ल का दावा है कि 90 डिग्री त्रिकोण के आकार के सामने जो वर्गाकार बनेगा वह दूसरे दोनों के योग के बराबर होगा।

अतः इसी नियम को समक्ष रखकर हम ऐटम के दस अंशों की रेखांए इस तरह बनाकर दूसरी रेखा इस तरह उसके साथ लगाकर तीसरी रेखा इन दोनों पर इस तरह लगाते हैं और इसके बाद इन तीनों रेखाओं पर वर्गाकार इस तरह बनाकर पूछते हैं कि बताइए सुन्दर शक्ल की रेखाओं अ का वर्गाकार रेखाएं और ज दोनों योग के समान होगा और इसमें तो सन्देह नहीं कि वर्गाकार ब और ज हरेक सौ सौ अंशों का है क्योंकि हर रेखा दस दस अंशों से बनी है और दस दहाई के 100
अतः वर्गाकार की शक्ल दो सौ अंशों की हुई और इसके सही न होने पर दो सौ की हर रेखा में कसर होगी अर्थात बड़ा वर्गाकार के जो मुकाबिल कोण बना था कोई रेखा बिना कसर पूर्ण अंशों से न बनी होगी।
अतः जिन अंगों की कसर इनमें होगी वह विभाजित होंगे जिससे शेष अंशों का अविभाजित होना भी साबित हो जाएगा क्योंकि किस्म सबकी एक ही है और विभाजित योग्य का घटित होना तो स्पष्ट बात है जिसे आप भी पृष्ठ 557 पर मान चुके हैं अतः एटम का अस्तित्व इस तर्क से भी साबित हुआ।

और सुनिए ! इसमें भी आसान विधि लीजिए। दो परमाणुओं को हम इस प्रकार मिला कर रखेंगे। इनसे ऊपर तीसरा परमाणु इस तरह रखकर पूछेगे कि तीसरा परमाणु दोनों तरफ मिलता है या एक तरफ। एक तरफ मिलने से मध्य में न होगा। हमने तो मध्य में रखा है और यदि दोनों ओर मिलता है तो कुछ सन्देह नहीं कि उसकी दो दिशाएं होंगी जिनसे उस ऊपर वाले का विभाजन अनिवार्य होगा। चूंकि किस्म सबकी एक है इसलिए सब का विभाजन और क्रम अनिवार्य होगा । सरल शब्दों में सुनिए कि हम तीन परमाणुओं को इस तरह ( ….उर्दू देखें… ) और समाजी दोस्तों से पूछते हैं कि बीच का परमाणु दोनों ओर मिलेगा या नहीं ?

यदि दो तरफ मिलेगा तो विभाजन और तरकीब अनिवार्य हुई और यदि मध्य में होने के बावजूद दो तरफ नहीं मिलता तो मालूम होता है कि इसमें मात्रा नहीं। जब एक में नहीं तो बाकी में कहां से आएगी क्योंकि किस्म सबकी एक है अतः बताइए कि शरीरों में (जो परमाणुओं से मिलकर बना है) मात्रा कहां से आयी ,क्या अनस्तित्व से अस्तित्व होना असंभव है? सत्यार्थ प्रकाश पृ. 282 समलास 8 न. 17 देखकर जवाब देना।

और सुनिए हम आप से यह भी नहीं पूछते कि आपका ऐटम विभाजन योग्य है या नहीं? कुछ भी हो हमें इससे बहस नहीं। इतना तो आप भी मानते होंगे कि एटम प्राथमिक हालत में भी किसी न किसी रूप साकार था और यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि जिस रूप से भी वह साकार होगा वह रूप वजूद में आएगा क्योंकि यदि अस्तित्व न होता तो नष्ट भी न होता क्योंकि प्राचीन को पतन नहीं। अतएव आप भी मानते हैं। कि…

“जो वस्तु अनादि है वह कभी दूर नहीं हो सकती।”
(सत्यार्थ प्रकाश पृ. 563 अध्याय 12)

यद्यपि हम इसका पतन स्पष्ट देख रहे हैं कि तरकीबी हालत में ऐटम की पहली शकल नहीं रहती और इसके बाद भी परिवर्तन होता है अतः जब सारे रूप घटित होना है और यह जरूर है कि ऐटम किसी न किसी रूप से साकार हो क्योंकि शक्ल नाम है उस हालत की जो किसी वस्तु को सीमित होने के कारण अस्थायी होती है और यह तो स्पष्ट है कि ऐटम किसी भी हालत में हों जबकि शक्लों में है तो एटम भी मौजूद है क्योंकि ऐटम बिना किसी रूप के हो नहीं सकता और शक्लें तो सब की मौजूद ही हैं क्योंकि पतन गुप्त हैं नतीजा यह है कि एटम के अंश भी जो किसी न किसी रूप के बिना नहीं रह सकते निश्चय ही अस्तित्व में होंगे अतः बताइए कि आपका ऐटम किस ऐटम से पैदा हुआ था?
विज्ञान से पहले झंडा उड़ाने वालों! कहां हो? इन तर्कों का सोचो और टूटे फूटे नाकारा झंडे की मरम्मत कराओ अतः जब तक आप इन तर्को का जवाब न दें आपका हक नहीं कि सवाल करें कि अल्लाह ने किस चीज़ से पैदा किया? हां उपकार हेतु हम आपको आप ही की किताब से तैयार करके बताते है : सुनिए।
“परमेश्वर के हाथ नहीं। लेकिन अपनी शक्ति के हाथ से सबको बनाता और काबु में रखता है। पांव नहीं , लेकिन घिरा होने के कारण सब से अधिक सतर्क व जल्द बाज़ है आंख नहीं लेकिन सब को ठीक ठीक देखता है कान नहीं फिर भी सबकी सुनता है। इन्द्रियां नहीं मगर सारी दुनिया को जानता है और उसे हद के साथ जानने वाला कोई भी नहीं है।” (सत्यार्थ प्रकाश पृ. 244 समलास 7 न. 36)

इससे भी स्पष्ट ईश्वर का आदेश सुनो। ‘

उस परमेश्वर ने पृथ्वी अर्थात धरती के बनाने के लिए पानी से रस को लेकर मिट्टी बनाया। इसी प्रकार अग्नि के रस से पानी को पैदा किया और आग को हवा से पैदा किया और हवा को आकाश से और आकाश को प्रकृति (एटम) से और प्रकृति (ऐटम) को अपनी कुदरत से पैदा किया।” (यजुर वेद 37 वां अध्याय भूमिका स्वामी दयानन्द, बयान जगत की पैदाइश)

अतः जो इस मंत्र का अनुवाद और मतलब है वही हम मुसलमानों का अकीदा है। हम मानते हैं कि आसमान चांद सूरज आदि मनुष्यों की तरह किसी न किसी ऐटम से पैदा हुए मगर आखिर में वह ऐटम ईश्वर ने बिना किसी अस्तित्व के पैदा किया। सच कहा है।
किसी मौजूद से ईजाद करना नाम रखता है

मगर लोहे अदम पर नक्श करना काम रखता है

अतः: हमारा अक़ीदा साफ़ साफ़ यह है।

जब कुछ न था तब निराकार था

ख़िलक़त को पैदा करनहार था

………….

आपत्ति 28

जब हमने लोगों के लिए काबा को सवाब की जगह और शांति देने वाली बनाया। तुम नमाज के लिए इब्राहिम की जगह पकड़ो। (आयत -126)

आपत्ति
क्या काबा के पहले पवित्र जगह खुदा ने कोई भी नहीं बनायी थी। यदि बनायी तो काबा के बनाने की कुछ ज़रूरत न थी यदि नहीं बनायी थी तो बेचारे पहले पैदा हुए लोगों को पवित्र जगह से महरूम ही रखा था। पहले खुदा को पवित्र जगह बनाने की याद न रही होगी ।

आपत्ति का जवाब
मनुष्य को पूर्ण ज्ञान के लिए इस तरह वाद विवाद नहीं करना चाहिए कि इस मंत्र ( या आयत ) का मतलब क्या होगा । इस तरह सोचने या गौर करने को ओहा कहते हैं । केवल मंत्र ( या आयत ) सुनकर या केवल दलील से मंत्रों के अर्थ बयान कर देना काफ़ी नहीं है । बल्कि सदैव उचित संदर्भ के आगे पीछे के संबंधों व सम्पर्को को देखकर अर्थ निकालना चाहिए । इन मंत्रों ( या आयतों ) का उन लोगों को जो त्रुषि और साधना करने वाले नहीं है और नापाक जाहिलों को निश्चय ही कोई ज्ञान नहीं होता । ( भूमिका लेखक स्वामी दयानन्द का उर्दू अनुवाद पृ 0 52 ) यह भी बिल्कुल सच है । “बहुत से लोग ऐसे हठ धर्म और पक्के होते हैं कि वे वक्ता के विरुद्ध अपने विचार व्यक्त किया करते हैं मुख्य रूप से धर्मों वाले लोग क्योंकि धर्म के प्रति उनकी बुद्धि अंधेरों में फंस कर नष्ट हो जाती है । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )

अतः अब हम आयत की पृष्ठ भूमि व संदर्भ बताकर स्वामी की निसबत राय लगाना पाठकों पर छोड़ते हैं । हमारे बताने की जरूरत भी नहीं । स्वामी जी ने वे शब्द स्वयं ही नक्ल कर दिए हैं अर्थात वत्तखिजू मिम्मकामि इबराहीमा मुसल्ला ( बकरा -125 ) जिसका मतलब यह है कि ” बाद तैयार हो जाने काबा शरीफ के अल्लाह ने हुक्म दिया कि जहां इस मस्जिद ( काबा ) में इबराहीम ने नमाज़ पढ़ी है तुम वहां नमाज़ पढ़ो ।

” इससे साफ समझ में आता है कि काबा शरीफ अरब देश की आबादी के समय बना है और उस समय के लोगों को इबराहीम ( अलैहि 0 ) का अनुसरण करने का आदेश हुआ । इसका कोई उल्लेख नहीं है कि इससे पहले कोई पवित्र स्थल था या नहीं । यह तो पंडित जी का साधारण सा इज्तिहाद ( नवीन शोध ) है जो सराहनीय नहीं है ।

और यदि हम इस बात को मानें कि काबा शरीफ़ सारी दुनिया से पहले बना और वहीं से दुनिया की आबादी शुरू हुई और हज़रत इबराहीम अलैहि 0 को दूसरे संस्थापक कहें तो मालूम नहीं कि स्वामी जी किस तर्क से हमारी बात झुठला देंगे यद्यपि वे अपने विचार में इस बात के काइल हों कि दुनिया का आरंभ सबसे पहले तिब्बत में हुआ ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 295 समलास 8 न 0 45 ) जिस पर उनके पास कोई दलील नहीं । न ही स्वामी जी ने कोई दलील बतायी । लीजिए हम बताते हैं सुनिए ।

” सबसे पहली उपासना स्थली जो दुनिया में लोगों के लिए बनायी गयी वह काबा है जो मक्का में है । ” ( कुरआन )

बस अब तो कोई आपत्ति नहीं ।

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आपत्ति ( 29 )
” वे कौन आदमी हैं कि जो इबराहीम के दीन से फिर जाएं लेकिन जिसने अपनी आत्मा को जाहिल बनाया और बे शक हमने दुनिया में इसको पसन्द किया और हकीकत में आखिरत में वहीं भले सदाचारी हैं । ” ( आयत -131 )
आपत्ति
यह कैसे संभव है कि जो इबराहीम के दीन को नहीं मानते वे सब जाहिल हैं ? इबराहीम को ही ईश्वर ने पसन्द किया उसका कारण क्या है ? यदि दीनदार होने के पसन्द किया तो दीनदार और भी बहुत हो सकते हैं यदि बिना दीनदार होने के पसन्द किया तो अन्याय हुआ । हां यह तो ठीक है कि जो धर्मात्मा ( दीनदार ) है वही ईश्वर को प्रिय होता है ( अधर्मी नहीं । )आपत्ति का जवाब
स्वामी जी की बेबाकी की कोई सीमा है ? देखिए तो कैसे उचित सवाल करते हैं । दाद दीजिए , पंडित जी की ओर से शायद किसी ने खूब कहा है ।

नाजुक कलामियां मेरी तोड़े अदू का दिल

मैं वह बला हूं शीशे से पत्थर को तोड़ दूं

स्वामी जी ! यह कैसे संभव है कि ।

” वेदों का इन्कारी नास्तिक ( अधर्मी ) हैं । ( सत्यार्थ प्रकाश पृ0 347 रामलास 10 न 02 )

यह भी भला संभव है ।

” यदि कोई पूछे कि तुम्हारा क्या अकीदा तो यही जवाब देना चाहिए कि हमारा अकीदा वेद है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ० 272 समलास 7 न0 81)

इसी तरह ” अगर मगर ” का शौक न हो तो कुरआन अपना विषय बतलाता है क्या इसी आयत में यह शब्द नहीं …. व इन्नहु फिल आखिरत ल मिनस्सालिहीन ० ( नहल – 122 ) अर्थात इबराहीम आखिरत में सदा चारियों में से है । इसी का अनुवाद स्वामी जी ने किसी बुढ़िया से सुनकर यूं कर दिया कि …… और हकीकत में आख़िरत में वही सदाचारी हैं । ” एक को बहु वचन में बदल कर अकारण आवागमन का सबूत दिया मगर सच भी क्या ही जादू है कि आखिर किसी न किसी तौर पर मुंह से निकल जाता है ।

अतएव आप ही लिखते हैं …… ” जो धर्मात्मा है वही ईश्वर को प्रिय है अधर्मी नहीं ” बेशक सुनिए बेशक इबराहीम बड़ी सूझ बूझ वाला ईश्वर की ओर पलटने वाला था ” ( सूरह हूद -75 )

तो यही उसके चुने जाने का कारण है ।

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आपत्ति( 30 )

” बेशक हम तेरे मुंह को आसमान में फिरता देखते हैं ज़रूर हम तुझे इस किल्ले को फेरेंगे पसन्द करे इसको बस मस्जिदुल हराम की ओर फिर जहां कही तुम अपना मुंह इसकी ओर फेर लो । ” ( आयत -145 )
आपत्ति
क्या ही छोटी मूर्ति पूजा है ? नहीं- नहीं – बड़ी ।

आपत्ति का जवाब
” बड़े ही जाहिल और मूर्ख हैं वे लोग जो वाचक के विरुद्ध मन्शा व कलाम के मायना निकालते हैं । मुख्य रूप हठ धर्मी जिनकी अक्ल धर्म की जिहालत में फंस कर नष्ट व लुप्त हो जाती है । ” (भूमिका सत्य प्रकाश पृ0 7 )

अफसोस ! हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और हैं । पंडित जी ! यदि यह उसूल सही है कि हर कलाम का अर्थ वही है जो वाचक की मुराद है तो सुनिए । हम आपको वाचक की मुराद बताते हैं । दूर क्यों जाते हैं एक ही आयत पर सोच विचार कर लिया होता समाजियो ! गौर से सुनो

” इन बहुदेव वादियों को चाहिए कि ईश्वर की उपासना करें जो भूख में उनको खाना देता है और भय में उनको सुख शान्ति प्रदान करता है । ” ( सूरह कुरैश 3-4 )

स्वामी जी ! आपको अपने भाई हिन्दुओं से हुए इतना ख्याल भी न आया कि वे तो साफ और स्पष्ट शब्दों में उन्हीं से जिनके वे बुत सामने रखते हैं दुआएं करें और उन्हीं से अपनी जरूरतें मांगें क्या हमारी नमाज़ के शब्दों में भी कोई शब्द आपको ऐसा मिला है जिसका मतलब यह हो कि हम उस काबा से अपनी मुरादें व हाजतें मांगते हैं या उसको सम्बोध करके पुकारते हैं बल्कि यहां तक कि काबा का नाम तक भी सारी नमाज़ के शब्दों में आपको न मिलेगा । कुरआनी मतलब तो बिल्कुल साफ़ है मगर इसका क्या इलाज हो कि ……

” नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृ0 52 )

विस्तार से देखना हो तो हमारा रिसाला ” नामज़ अरबअ ” देखे जिसमें मुसलमानों , आर्यो , हिन्दुओं और ईसाइयों की उपासना का मुकाबला दिखाया गया है ।

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आपत्ति ( 31 )

” जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाते हैं उनके लिए यह मत कहो कि ये मुर्दे बल्कि वे जीवित हैं । ‘ ( आयत 155 )
आपत्ति
भला अल्लाह के मार्ग में मरने मारने की क्या जरूरत है ? यह क्यों नहीं कहते हो कि यह बात अपना मतलब पूरा करने के लिए है अर्थात यह लालच देंगे तो लोग बहुत लड़ेंगे अपनी विजय होगी । मारने से न डरेंगे लूट मार करने से सुख सम्पन्नता हासिल होगी । इसके बाद गुलछर्रे उड़ाऐगें । अपना मतलब पूरा कराने के लिए इस प्रकार की उल्टी बातें हैं ।

आपत्ति का जवाब
आज मालूम हुआ कि पंडित जी दिल में वेद के लेखकों को कुछ और ही समझते । केवल अपना मतलब सीधा करने को उनके इल्हाम ( ईश वाणी ) के काइल हैं । सुनो …. !

परमेश्वर कहता है । ” ऐ मनुष्यों ! तुम्हारे अग्नि वाले हथियार और तीर व कमान तलवार आदि हथियार मेरी कृपा से शक्तिशाली और तुम्हें विजय प्राप्त हो । दुराचारी दुश्मनों की पराजय और तुम्हारी विजय हो । ” (ऋगवेद अशटक 1 अध्याय 3 वरग 18 मंत्र 2 )

बताइए ऐसी जंग में यदि आर्य मरे तो किसके मार्ग में मरेंगे ? आदेश तो परमेश्वर का है फिर मार्ग किसका ? क्या यह सच है कि यूं ही वेदों के लेखकों ने गुलछर्रे उड़ाने को परमेश्वर का नाम लिया है वर्ना असल मतलब कुछ और ही है क्यों स्वामी जी है ना ?

बद न बोले जेरे गर्द गर कोई मेरी सुने

है यह गुम्बद की सदा जैसी कहे वैसी सुने

( पूरा वाक्य द्वितीय में पृष्ठ 16-17 हक प्रकाश में देखो )

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आपत्ति (32)

” और यह कि अल्लाह कठोर कष्ट देने वाला है । शैतान के पीछे मत चलो । बेशक वह निश्चय ही तुम्हारा शत्रु है इसके सिवा और कुछ नहीं कि बुराई और बेशर्मी की इजाज़त दे और यह कि तुम कहो अल्लाह पर जो नहीं जानते । ” ( आयत 166-169-170 )
आपत्ति
क्या तुम्हारा खुदा बुरों को यातना देने वाला और सदाचारियों पर दया करने वाला है ? या मुसलमानों पर दया करने वाला और दूसरों को दंडित करने वाला । ( बुरों को दंडित करने की सूरत में ) वह खुदा ही हो सकता । यदि खुदा तरफ़दार नहीं है तो जो व्यक्ति जिस जगह धर्म करेगा उसपर खुदा की दया और जो अधर्म करेगा उसको खुदा दंड देगा । ऐसी हालत में मुहम्मद साहब और कुरआन को शफीअ ( सिफारिश करने वाला ) मानना जरूरी न रहा और जो सबको बुराई कराने वाला हरेक मनुष्य का शत्रु शैतान है उसे खुदा ने पैदा ही क्यों किया ? क्या वह भविष्य की बात नहीं जानता था ? यदि कहो कि जानता था लेकिन आज़माइश के लिए बनाया भी तो सही नहीं क्योंकि आज़माइश करना सीमित बुद्धि का काम है ।

परोक्ष ज्ञाता ईश्वर सारी आत्माओं के अच्छे बुरे कर्मों को सदैव से ठीक ठीक जानता है और यदि शैतान सबको बहकाता है तो शैतान को किसने बहकाया ? यदि कहो कि शैतान आप से आप बहकाया जाता है तो और भी स्वयं आप से आप बहकाए जा सकते हैं । बीच में शैतान का क्या काम है ? और यदि ईश्वर ही ने शैतान को बहकाया तो ईश्वर शैतान का भी शैतान ठहरेगा । ऐसी बात अल्लाह की नहीं हो सकती और जो कोई किसी को बहकाता है बुरी संगत और अन जाने के कारण स्वयं पथ भ्रष्ट हो जाता है ।

आपत्ति का जवाब
निः सन्देह मुसलमानों पर बशर्ते कि वे इस्लाम के आदेशों पर अमल करते हों दया करेगा और काफिरों पर जो ईश्वर के आदेशों को झुठलांएगे दुख की मार डालेगा । यदि इसका नाम तरफदारी है तो बताइए , कोई व्यक्ति वेद का इन्कारी हो तो परमेश्वर के निकट क्यों नास्तिक व अधर्मी है । (सत्यार्थ प्रकाश पृ0 347 , समलास 10 नव 2 )

देखिए हम पंडित जी चालाकी लिखते हैं ।

” जो आदमी जिस जगह धर्म करेगा ” भला उसका कौन इन्कारी है । आप हिन्दुस्तान में रहकर मुसलमान हों और इस्लाम के आदेश का पालन करें और एक आदमी मक्का शरीफ में हो । दोनों को बराबर पुन मिलेगा । यह बताइए वेद के विरोधी रहकर किसी हकदार है ? ( सत्यार्थ प्रकाश पृ0 272 , अध्याय 7 न0 81 ) [1- यदि कोई पूछे कि तुम्हारा अकीदा क्या है तो यही जवाब देना चाहिए कि हमारा अकीदा वेद है ।]

इस हवाले को देखकर जवाब दें । कुरआन और नबी करीम सल्ल0 की सिफारिश यही है क्या कम है कि उनके वसीले से बहुत से कट्टर काफिर सीधी राह पर आ गए और बहुत से अपनी मौत की बीमारी में तबाह व बर्बाद भी हुए और हो रहे हैं ।

स्वामी जी के भोले पन की कहां तक शिकायत करें । भला पंडित जी परमेश्वर को यह भी मालूम था कि गाजी महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी हिन्दुस्तान ( आर्य वरत ) की पाक धरती को दुष्टों ( मुसलमानों ) से खराब कर देंगे फिर उनको पैदा ही क्यों किया ? यदि कहो कि पुनर जन्म ( आवा गमन ) के मसले से उनको ऐसा ही शरीर और हुकूमत मिलनी ज़रूरी थी तो सवाल यह है कि हुकूमत और बादशाही तो ( आपके कथनानुसार ) किसी भले काम पर मिलती है जिसका अर्थ यह है कि उनको पहले भले कर्मो का इनाम मिलता है फिर क्या परमेश्वर को मालूम न था कि ये दोनों बादशाह उस इनाम को ऐसी विधि से बरतेंगे कि बहुत से पवित्र आर्यों को और उनकी पवित्र धरती को नष्ट कर देंगे और आर्य वरत में इस्लाम का झडा गाड़ देंगे । इससे बढ़कर देखिए कि बुद्ध को भी पैदा किया जिसने करोड़ों आर्यो को नास्तिक बना दिया कहो जी कौन धर्म है ? ( देखे सत्यार्थ प्रकाश पृ0 541 अध्याय 12 न 04 )

स्वामी जी ! सुनिए अल्लाह ने जो कुछ पैदा किया उसकी हिक्मत तो वही जानता है हां यह ठीक है कि उसने बुद्धि वाले को स्वामी और अपनी मर्जी का मालिक बना दिया है यद्यपि वह भी जानता है कि यह व्यक्ति अपने स्वामित्व को नष्ट करके दंड का भोगी होगा फिर भी वह मात्र अपनी कृपा से उसको बा खबर कर देता है फिर जो कुछ उसे करना होता है करता है और अपने कर्मों का नतीजा पाता है । मेरी इस तकरीर पर आप सत्यार्थ प्रकाश में हस्ताक्षर कर चुके हैं । सुनिए ।

” जिस प्रकार जीव स्वयं अपनी मर्जी से काम करता है उसी प्रकार सब कुछ जानने वाला होने से ईश्वर जानता है उसी तरह जीव काम करता है अर्थात ईश्वर अतीतः भविष्य और वर्तमान के ज्ञान में और नतीजा देने में स्वयं आप ही मालिक है और जीव थोड़ा बहुत वर्तमान के इल्म और काम करने में अपनी इच्छा का मालिक है । ईश्वर का ज्ञान अनादिकालिक होने के कारण कार्य के ज्ञान की तरह सज़ा देने का ज्ञान भी आनादिकाल से होने के कारण क्रिया के ज्ञान की तरह दंड देने का इल्म भी अनादि काल से उसके ये दोनों इल्म सच्चे हैं क्या क्रिया का इल्म सच्चा और दंड देने का इल्म भी कभी झूठा हो सकता है ? अतः इसमें भी कोई खराबी नहीं ” ( पृ0 253 , समलास 7 न0 52 )

तो ईश्वर ने शैतान को पैदा किया और वह जानता था कि बन्दों को बहकाएगा । लेकिन उसने मात्र अपनी कृपा से घोषणा कर दी । फ़ मन तबि अक मिन्हुम फ इन्न जहन्नम म जजाऊ कुम जज़ा अम्मवफूरा ० ( बनी इस्राईल -63 ) इन्न इबादिलै स ल क अलैहिम सुलतानुन ० ( हिज्र -42 )

” ऐ शैतान जो तेरे अधीन होगे तुम सबका ठिकाना जहन्नम होगा। मेरे सदाचारी बन्दों पर तेरा अधिकार कदापि न होगा ।

याद रहे कि शैतान किसी को हाथ से पकड़ कर गुमराह नहीं करता , बल्कि मात्र बुरा रास्ता सुझा देता है । अतएव वह स्वय कयामत के दिन गुमराहों को जब वे उसे आरोपित करेंगे जवाब में कहेगा।

” मेरा तुम पर जोर न था मैंने तो तुम को बुलाया था । तुमने मेरी बात स्वीकार की । तो अब मुझे लानत न करो बल्कि अपने आपको करो । ” ( सूरह इबराहीम -22 )

लोग आप से आप बुरा मार्ग अपनाते हैं । हां उसकी शैतानियत को इतना ही दखल होता है जितना कि किसी बुरी संगत का प्रभाव हो सकता है जिससे आपके अलावा शायद कोई इन्कारी न हो फिर भी याद रहे कि यह शैतानी अपहरण भी उसी समय होता है जब आदमी ईश्वर से संबंध तोड़ लेता है और अपनी मसती और जिहालत में फंस कर तबाह व बर्बाद हो जाता है । सुनो ।

” तुम मुसलमानो ! उन लोगों की तरह मत होना जो ईश्वर को भूल गए । ईश्वर ने उनकी जानों की चिंता उनको भुला दी वही दुष्ट और व्यभिचारी हैं । ” ( सूरह हश्र -19 )

इस लेख पर सत्यार्थ प्रकाश आदि में आप भी हस्ताक्षर कर चुके हैं जहां बौद्धों की गुमराही का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि

” उन्होंने कितनी अधिक अपनी अविद्या में प्रगति की जिस का उदाहरण उनके सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता । विश्वास तो यही होता है कि वेद और ईश्वर का विरोध करने का उनको यही नतीजा मिला। (पृ. 541 समलास 12 न0 27 )

क्या विषय ……..इन्ना इबादी लैं स ल क अलैहिम सुलतानुन० ( हिज्र -42 ) का मतलब नहीं देता ? अतः आपका फरमाना कि शैतान को किसने बहका दिया आदि बिल्कुल शैतानी समर्थन है । यह बहस थोड़ी बहुत न0 11 में गुजर चुकी है पन्ना पलटकर अवश्य देखो ।

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( 33 )

तुम पर मृत , रक्त और मांस सुअर का हराम है और अल्लाह के सिवा जिस पर कुछ पुकारा जाए । ” ( आयत -174 )
आपत्ति
यहां पर सोचना चाहिए कि कोई जानवर आप से आप मुरदार था किसी के मारने से दोनों हालतों में वह मुरदार है हां इनमें कुछ अन्तर भी हो तो मौत में कुछ अन्तर नहीं और जब केवल सुअर की मनाही है तो क्या मनुष्य का मांस खाना सही है । क्या यह बात अच्छी हो सकती है कि ईश्वर के नाम से दुश्मन आदि को यातना देकर उसकी जान ली जाए ? इससे तो ईश्वर के नाम पर धब्बा लगता है । हा ईश्वर ने बिना पूर्व जन्म अर्थात पूर्व जीवन के पापों के मुसलमानों के हाथ से जानदारों को यातना क्यों दिलायी ? क्या उनपर दया नहीं करता ? उनको सन्तान की भान्ति नहीं जानता ? जिस जानदार से अधिक लाभ पहुंचे जैसे गाय[1]
[1- देखें कुरआन की सूरह बकरा की सागात 10]
आदि उनके मारने की मनाही न करने से ईश्वर दुनिया को हानि पहुंचाने वाला साबित होता है और कष्ट देने के पाप से ईश्वर बदनाम भी होता है । ऐसी बातें ईश्वर और ईश्वर की किताब की कदापि नहीं हो सकतीं ।
आपत्ति का जवाब
हमारी समझ में नहीं आता कि मुसलमानों और हिन्दुओं के खाने में क्या अन्तर है ? जो आप सत्यार्थ प्रकाश पृ0 356. समलास 10 न 0 15 में मांसाहारी कौमों के हाथ का खाने से मना करते हैं बल्कि शुद्रों ( हिन्दुओं की नीच कौम ) के हाथों का पका हुआ बल्कि उनके बर्तनों में भी खाने से क्यों मना किया गया है । ऐसे अंध विश्वास का क्या कारण है ? स्वयं मुर्दा जानवर के अन्दर सारा रक्त बन्द रहता है और जबह किए जाने वाले जानवर से निकल जाता है जिससे उसकी हरारत में फर्क आ जाता है यही कारण काफी है । ऐसा ही सुअर आदि भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है मुख्य रूप से गर्म देशों में , आदमी के मांस की हुरमत दूसरी आयतों और हदीसों से समझ में आती है । शेष लेख का जवाब न 0 11 और 2 में आ चुका है । पाठक पन्ने उलट कर ध्यान से देख लें ।
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( 34 )
रोजे की रात तुम्हारे वास्ते हलाल की गयी कि संभोग करना अपनी पत्नियों से वे तुम्हारे वास्ते पर्दा है और तुम उनके वास्ते पर्दा हो । अल्लाह ने जाना कि तुम बेइमानी करते हो अतः अल्लाह ने क्षमा किया तुमको बस उन से मिलो और ढूंडो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दिया है अर्थात सन्तान खाओ पियो यहां तक कि स्पष्ट हो जाए तुम्हारे वास्ते काले धागे से सफेद धागा या रात से जब दिन निकले । ( आयत 184 )
आपत्ति
यह पता चलता है कि जब मुसलमानों का धर्म चल निकला तब या उससे पहले किसी ने किसी पोरानिक से पूछा होगा कि चंद्र रायन ब्रत जो एक महीने भर का होता है उसका तरीका बयान करो , शास्त्र का तरीका यह है कि चांद के घटने बढ़ने के अनुसार लुक्मों को घटाना बढ़ाना और दोपहर के समय खाना खाना चाहिए । उसको न जान कर पोरानिक ने कहा होगा कि चांद को देखकर खाना खाना चाहिए । इस चद्ररायन ब्रत को मुसलमानों ने इस प्रकार का बना लिया लेकिन ब्रत में संभोग की मनाही है पर एक उनके खुदा ने बढ़कर कह दी कि तुम रात को संभोग भी किया करो और रात में जितनी बार चाहो खाओ पियो । भला यह रोजा कहां हुआ ? दिन को न खाया रात को खाते रहे । यह बात प्रकृति के विधान के विरुद्ध है कि दिन में न खाओ और रात में खाओ ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी । झूठ बोलना सारे धर्मों में बुरा है कुरआन शरीफ़ में तो इस पर लानत आयी है मगर । ”
अफ़सोस हठ धर्मी धर्म के अंधेरे में फंस कर बुद्धि को भ्रष्ट कर देते है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ0 7 )
पंडित जी ने यह समझा कि जिस तरह मैं ( पंडित ) ने हिन्दुओं से सुने सुनाए सत्यार्थ प्रकाश प्रथम एडीशन में श्राद्ध को जायज़ लिखा और जब उसकी गलती मालूम हुई तो दूसरे एडीशन में उसका सुधार करके गलती कातिब के मुंह पर थोप दी । इसी तरह यह भी होगा क्यों न हो …… ” आदमी औरों को भी अपने पर कयास करता है । ”
चूंकि आपने इस पर कोई दलील कायम नहीं की इसलिए हम भी इसका जवाब नहीं देते । आपको शायद यह भी मालूम नहीं कि पोरानिक हिन्दू तो गाज़ी औरंगजेब के ज़माने तक भी समुन्द्र चीर कर अरब का मुंह न देख सकते थे तो इससे सैंकड़ों साल पहले कहां नसीब ?
पंडित जी ! आप तो प्रकृति के विधान के विरोध के कट्टर इन्कारी थे और सत्यार्थ प्रकाश में कुदरत के खिलाफ कानून को मुश्किल जानते हैं और लिखते हैं खुदा भी कुदरत के कानून के खिलाफ नहीं कर सकता । अब किसी मुसलमान ने नमाज़ पढ़कर दम कर दिया कि आप रोज़े को कुदरत के कानून के खिलाफ कह बैठ हैं । यदि कुदरत के खिलाफ कनून है ता रोजेदार रोजा रखते कैसे हैं ? समाजियो जरा सोच कर जवाब देना ।
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(35 )
” अल्लाह के मार्ग में लड़ो । उनसे जो तुम से लड़ते हैं मार डालो तुम उनको जहां पा/ओ , कत्ल से बुरा कुफ्र है यहां तक उन से लड़ो कि कुफ्र न रहे और हो दीन अल्लाह का/ उन्होंने जितनी ज्यादती की तुम पर उतनी ही ज्यादती तुम उनके साथ करो । ” ( आयत 187-189 )
आपत्ति
यदि कुरआन में ऐसी बातें न होती तो मुसलमान लोग इतना बड़ा जुल्म जो कि दूसरे धर्म वालों पर किया है न करते । निर्दोष को मारना सख्त गुनाह है । उनके निकट इस्लाम धर्म का कुबूल न करना कुफ्र है और कुफ्र से कत्ल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं अर्थात कहते हैं कि जो हमारे दीन को न मानेगा उसे हम कत्ल करेंगे । अतएव वे ऐसा ही करते हैं और धर्म के लिए लड़ते लड़ते अपनी हुकूमत आदि खोकर बर्बाद हो गए । उनका धर्म दूसरे धर्म वालों से सख्त नफ़रत करता है और जुल्म करना सिखाता है ।
उनसे पूछना चाहिए कि क्या चोरी का बदला चोरी ही है ? जितनी हानि हमारी चोर चोरी से करें क्या हम भी उनकी चोरी करें ? यह तो बड़े अन्याय की बात है , क्या कोई जाहिल हमें गालियां दे तो हम भी उसे गालियां दें ? यह बात ईश्वर की है न उसके विश्वसनीय विद्वान की और न अल्लाह की किताब की हो सकती है । यह तो केवल स्वार्थी और अज्ञानी आदमी की है ।
आपत्ति का जवाब
इस वाक्य ने तो साबित कर दिया कि स्वामी दयानन्द जी का कथन सोने से लिखने के योग्य है ।
” हठ धर्मी की बुद्धि अंधेरे में फंस कर नष्ट हो जाती है । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश )
स्वामी जी महाराज ! इस आयत में ये शब्द भी मौजूद हैं जो आपने भी नक्ल किए हैं यदि मात्र ज़िद और हठ …… पर सोच विचार नहीं किया तो अब ज़रा ध्यान से सुनिए ।
“अल्लाह की राह में लड़ो उन से जो तुमसे लड़ते नहीं । ”
फिर भी आप लिखते हैं कि निर्दोष किसी को मारना सख्त जुल्म है । सच है ।
” नापाक स्वभाव वाले जाहिलों को हकीकत में कोई ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृष्ठ -52 )
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( 36 )
और अल्लाह नहीं दोस्त रखता है दंगा फ़साद को । ऐलोगों कि ईमान लाए हो दाखिल हो बीच इस्लाम के । ( आयत – 202-204 )
आपत्ति
यदि ईश्वर फसाद नहीं चाहता तो क्यों आप ही मुसलामनों को फ़साद करने पर आमादा करता है ? और फ़सादी मुसलमानों से दोस्ती क्यों करता है ? यदि मुसलमानों के धर्म में दाखिल होने से ईश्वर राजी होता है तो वह मुसलमानों ही का पक्षपाती है सारी दुनिया का खुदा नहीं । इससे यह स्पष्ट होता है कि कुरआन का बताया न उसमें कहा हुआ सच्चा खुदा हो सकता है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी को वृद्धि किए गए नम्बरों में बड़ा आनन्द आता है जिससे चेलों को प्रसन्न करना चाहते हैं । मगर हमें तो ज़रूरी नहीं । जवाब न 0 2 में देख लो । हां इतना अवश्य बतलाइए कि ” वेद का इन्कारी अधर्मी तो नहीं । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ- 347 )
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( 37 )
” और अल्लाह अजीविका देता है जिसको चाहता है अनगिनत ” ( आयत -209 )
आपत्ति
क्या बिना गुनाह व पुन के ईश्वर ऐसे ही आजीविका देता है ? तो फिर बुराई भलाई का काम करना समान है क्योंकि दुख व आराम की प्राप्ती उसी की इच्छा पर है इसलिए धर्म से विमुख होकर मुसलमान लोग अपनी मन मानी कार्रवाई करते हैं और कई इस कुरआन के नियमों पर विश्वास न रख कर धर्मात्मा भी होते हैं ।
आपत्ति का जवाब
आवागमन चूंकि असत्य है इसलिए सांसारिक दुख व राहत किसी सदाचार और दुराचार के बदले में नहीं । भलाई बुराई का असली बदला दूसरे जीवन पर है जिसे आप ” परलोक ” कहते हैं । हां कभी कभी ऐसा होता है कि जब कोई कौम अत्यन्त उदंडता करे और अपने कर्तव्यों को पूरा न करे तो ईश्वर उससे वह नेमत छीन लेता है । तनिक ध्यान से सुनो ।
” अल्लाह किसी कौम की हालत नहीं बदलता जब तक वह अपने कर्म नहीं बदलते । ” ( सूरह राअद -11 )
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(38)
” और सवाल करते हैं तुझ से धर्म मासिक से , कह वह नापाकी है अतः औरतों से अलग रहो बीच धर्म मासिक के और मत निकट जाओ उनके यहां तक कि पाक हों । जब नहा लें तो जाओ उनके पास इस जगह से कि आदेश किया तुम को अल्लाह ने , पत्नियां तुम्हारी खेतियां हैं वास्ते तुम्हारे । अतः जाओ खेत अपने में जिस तरह चाहो । तुमको अल्लाह बेकार की कसम में नहीं पकड़ता । ” ( आयत 216-218 )
आपत्ति
मासिक धर्म के दिनों में संभोग न करने का आदेश तो अच्छा है लेकिन औरत को खेत से उपमा देना और यह कहना कि जिस तरह चाहो उनके पास जाओ । मनुष्य की जिंसी वासना भड़काने का कारण है । यदि अल्लाह बेकार की कसम पर नहीं पकड़ता तो सब झूठ बोलेंगे । कसम तोड़ेंगे , इससे अल्लाह झूठ का प्रसारित करने वाला हो जाएगा । अपत्ति का जवाब
कैसा मूर्ख है वह मनुष्य जो अपना घर शीशे का बना कर दूसरों पर पत्थर बरसाता है । समाजियो ! स्वामी कैसे पक्षपाती हैं कि जिस कसम का संकेत वह स्वयं बोलते हैं उसी कसम का संकेत वाला कलाम यदि कुरआन में उनको दीख जाता है तो तुरन्त बिगड़ जाते हैं । सुनो और ध्यान से सुनो ।
” औरत मर्द को ध्यान रखना चाहिए कि वीर्य को बहुमूल्य समझें । जो कोई इस बहुमूल्य वस्तु ( वीर्य) को परायी औरत रंडी या बुरे मर्दो की संगत में खोते हैं वे बड़ी बुरी बुद्धि के होते हैं । ( अर्थात मूर्ख ) क्योंकि किसान या माली , जाहिल होकर भी अपने खेत या बाग के सिवा और कहीं बीज नहीं बोते जबकि मामूली बीज और जाहिल का ऐसा नियम है तो जो व्यक्ति सबसे उच्च मानव शरीर के पेड़ के बीज को बुरे खेत में खोता है वह भारी मूर्ख कहा जाता है क्योंकि उसका फल उसे नहीं मिलता । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 156 -समलास 4 न 0 142 )
बताइए इस वाक्य में खेत किस को कहा है और पेड़ किस को ? क्यों जी स्वामी जी सच है ना? ” नापाक बातिनों को ज्ञान नहीं ( भूमिका पृष्ठ -52 )
हां अब याद आया कि स्वामी जी इस वाक्य पर “ जाओ अपने खेत में जिस तरह चाहो । ” क्यों नाराज हैं । पंडित जी ने तो औरत को खेती इस हद तक कहा था कि यदि मर्द के वीर्य में कमजोरी हो तो दूसरे से सन्तान लेकर पति का वारिस बना सकती है अतएव आप लिखते हैं ।
” जब पति सन्तान पैदा करने के योग्य न हो तब अपनी पत्नी को अनुमति दे कि ऐ भाग्यवान सन्तान की इच्छा करने वाली और तू मुझ से अलावा दूसरे पति की इच्छा कर ( समाजियो ! अमल करो तो जानें ) क्योंकि अब मुझ से सन्तान नहीं हो सकेगी , तब औरत दूसरे के नियोग करके सन्तान पैदा कर ले । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 154 , समलास 10 न 0 138 ) [1- वीरज दाना अर्थात नियोगी को पसन्द करने में ताकि मर्द को भी कुछ दखल है या सारा अख्तियार औरत ही को इस बारे में स्वामी जी ने कुछ नही लिखा ।]
कुरआन शरीफ ने बड़ा जुल्म किया कि स्वामी जी की इस तरक्की को रोक कर केवल पतियों को खेतों में जाने की अनुमति प्रदान की है और यही बड़ा गुनाह है ।
मुझ एक ऐब बड़ा है कि वफादार हूं मैं
उनमें दो वस्फ़ हैं बदसू भी बदकाम भी हैं
बेकार कसम उसे कहते हैं कि किसी पुराने जमाने के बारे में अपने विचार में घटना क्रम को सही समझ कर कसम खा ले यद्यपि घटना में वह नहीं आया या बेध्यानी में बोलने से वह ज़बान से निकल जाए जैसे कुछ लोग हर बात में वल्लाह बिल्लाह कहा करते हैं । अतः आयत का मतलब यह है कि ऐसी कसमों पर जो गलती से अतीत की घटनाओं पर खाओ या बेध्यानी में तुम्हारे मुंह से निकल जाए उन पर पकड़ नहीं । अर्थात ऐसी कसमों पर वह परायश्चित नहीं जो कसम के तोड़ने की सूरत में तुम पर है । अर्थात दस मिसकीनों को खाना देना , या तीन दिन के रोजे रखना या गुलाम आजाद करना । बताइए आपको क्या आपत्ति है । हां पंडित जी ने क्या ही सच कहा है ।
” बहुत से ऐसे जिद्दी व हठ धर्म होते हैं कि वे वाचक की मन्शा के विरुद्ध बहाने बाजी किया करते हैं मुख्य रूप धार्मिक लोग , क्योंकि धर्म के कारण उनकी बुद्धि अंधेरे में फंस कर नष्ट हो जाती ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
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( 39 )
” कौन है जो कर्ज दे अल्लाह को अच्छा । तो दोगाना करे उसे वास्ते उसके । ” ( आयत -239 )
आपत्ति
भला अल्लाह को कर्ज लेने से क्या ? क्या जिसने सारी सृष्टि को बनाया वह मनुष्य से कर्ज लेता है ? कदापि नहीं । ऐसा तो बिना सोचे समझे कहा जा सकता है । क्या उसका खजाना खाली हो गया था? क्या उसको हुंडवी पर्चा सौदागरी आदि में व्यस्त होने से घाटा हो गया था जो कर्ज लेने लगा ? और एक का दो दो देना कुबूल करता है क्या यह साहूकारों का काम है ऐसा काम तो दिवालियों या बेतहाशा खर्च करने और कम आय वालों को करना पड़ता है अल्लाह को नहीं ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी का कहना बिल्कुल सच है ।
मनुष्य को सम्पूर्ण ज्ञान के लिए तर्क देना चाहिए कि इस मंत्र ( आयत ) का मतलब क्या है ? केवल मंत्र ( या आयत ) सुन कर मात्र तर्क ( अपनी अटकल ) से मंत्रों ( या आयतों ) के मायना बयान कर देना काफ़ी नहीं । जब तक मनुष्य अच्छे बुरे या महत्ता या बुद्धि को समझने की योग्यता हासिल न कर ले और मंत्रों ( और आयतों ) के मायना को अच्छी तरफ साफ न कर ले और अपने जिन्स वालों में ज्ञान में माहिर और उच्च कोटि का विद्वान न हो जाए तब तक वह अच्छी तरह सोच विचार के साथ उत्तम दलील से वेद ( या कुरआन ) के मायना नहीं कर सकता । ” ( भूमिका पृष्ठ -52 )
यह भी सच है कि ।
कुछ हठ धर्म लोग वाचक की मन्शा के विरुद्ध बहाने बाजी करते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश – पृ 07 )
अतः यदि वाचक की मन्शा के विरुद्ध आगे पीछे को मिलाकर मायना करना सही हैं तो सुनिए ।
कुरआन मजीद बताता है ।
‘ अल्लाह ही जिसे चाहे आजीविका खोलता है और जिसे चाहता है तंग करता है । ( सूरह राअद -26 )
यह आयत बता रही है कि इस उल्लिखित आयत में कर्ज से वह कर्ज तात्पर्य नहीं जो तंगी व गरीबी में एक दूसरे से लिया करते हैं बल्कि इससे तात्पर्य यह है कि अल्लाह बन्दों को प्रेरित करता है कि तुम भलाई के कामों में अपने खर्चों को नष्ट हो जाना समझो बल्कि यह समझो कि हम अल्लाह को कर्ज देते हैं जो इसका बदला कई दर्जा बढ़ाकर हमें प्रदान करेगा । मेरे इस स्पष्टीकरण पर आप भूमिका में हस्ताक्षर कर चुके हैं जहां लिखते हैं । ”
जहां अर्थों में संभावना पाने की आशा न हो वहां संकेत व उपमा का इस्तेमाल होता है जैसे कोई सच्चा विद्वान अर्थात हक परस्त किसी से यह कहे कि मचान ( हिरन का चमड़ा ) बोलते हैं यहां यह तात्पर्य समझा आएगा कि मचान पर बैठे हुए मनुष्य बोलते हैं।” ( पृष्ठ -10 )
अतः जब कुरआन शरीफ़ स्वयं ही बता दिया कि ईश्वर सब का पालन कर्ता है वही स्वामी है वही पैदा करने वाला है तो कर्ज के असली मायना संभव न रहे । फिर आपका उन पर आपत्ति करना अपने ही कथन की पुष्टि नहीं ? कि ” नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( देखे भूमिका पृ ० -52 )
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आपत्ति ( 40 )
” उनमें से कोई ईमान लाया और कोई काफिर हुआ जो अल्लाह चाहता है न लड़ते जो चाहता है अल्लाह करता है । ( आयत – 248 )
आपत्ति क्या जितनी लड़ाइयां होती हैं वे सब अल्लाह की मर्जी से होती हैं । क्या वह अधर्म करना चाहे तो कर सकता है ? यदि ऐसी बात है तो वह अल्लाह ही नहीं क्योंकि नेक भले लोगों का यह काम नहीं कि सन्धि तोड़कर लड़ाई करते । इससे पता चलता है कि यह कुरआन अल्लाह का बनाया और न किसी दीनदार विद्वान का बनाया हुआ है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! हरेक बात पर सोच विचार करना शर्त है । आपने रज़ा ( इच्छा ) और इरादा में फर्क नहीं समझा जो कुछ दुनिया में होता है अल्लाह के इरादा से ही होता है इरादा उसके कानून का नाम है । कभी कभी शाही कानून पर अमल करने से रजा प्राप्त नहीं होती । क्या आज कल पश्चिमी व उत्तरी देशों के मुसलमानों का उर्दू के बचाव में सम्मेलन करना , मेमोरेंडम पर मेमोरेंडम देना शाही कानून के अनुसार नहीं ? जिस का अर्थ ही यह है कि वह सब पश्चिमी व उत्तरी देशों के गवर्नरों की मन्शा से है अर्थात सरकारी कानू न के अनुसार हैं मगर जहां तक हमें विश्वस्त सूत्रों से मालूम है उल्लिखित देखों के गवर्नर की मर्जी इसमें नहीं ?
यह एक उदाहरण मानव इच्छा व इरादा की है । यह उदाहरण बहुत पुराना है जो पहले एडीशन में दिया गया आज कल का उदाहरण स्वराज की मांग समझो जो कि संवैधानिक तरीके से अंग्रेजी हुकूमत के कानून से है मगर क्या आप कह सकते हैं कि सरकार इस पर तैयार भी है ? स्वयं न जानते हों तो किसी राजनीतिज्ञ से पूछकर बताना । अब सुनिए ईश्वरीय कानून , एक ज़ालिम किसी मज़लूम पर हमला करके सारा माल व सामान छीन लेता है कई तरह के अत्याचार करता है कुछ सन्देह नहीं कि ईश्वरीय कानून के अनुसार वह कार्य होता है अर्थात ईश्वरीय कानून है कि जबरदस्त कमज़ोर को दबा सके चाहे वह हक पर हो या ना हक पर । अतः किसी शक्तिशाली का किसी कमज़ोर पर हमला करके उस पर जुल्म व अत्याचार करना ईश्वरीय कानून के अनुसार तो है मगर क्या इसमें ईश्वर की इच्छा व इरादा भी है ? समाजियो अच्छी तरह सोच कर जवाब देना । अब सुनो ! जवान मर्द जवान औरत जब एक दूसरे को देखते हैं तो दोनों के दिल में जो विचार उत्पन्न होते हैं कुछ सेंदेह नहीं कि वे ईश्वरीय कानून के अन्तर्गत होते हैं इसके बाद दोनों पक्षों से जो कुछ घटित हो जाता है जिसे हर धर्म बुरा मानता है वह भी इसी ईश्वरीय कानून के अन्तर्गत होता है तो क्या कानून का मालिक ( परमेश्वर ) इन कामों पर राज़ी है ? समाजियो ! नियोग इससे अपवाद है इसलिए सोच समझकर जवाब देना । अतः आप इस संक्षिप्त वक्तव्य पर सोच विचार करें और भविष्य में ईश्वरीय इच्छा व इरादा में अन्तर समझा करें मुख्य रूप से इस वाक्य पर ध्यान दें ।
” क्या जितनी लड़ाइयां होती हैं अल्लाह ही की मर्जी से होती हैं ” यूं सुधार कीजिए । “ जितनी लड़ाइयां होती हैं अल्लाह ही की इच्छा ( कानून ) से होती हैं । ” जिस का जवाब हम देंगे । ‘ हाँ ‘ क्यों कि अल्लाह की इच्छा व इरादा के बिना कुछ नहीं हो सकता । दमा तशाऊन इल्ला अय्यशा अल्लाह ( सूरह तकवीर – 29 ) के भी यही मायना हैं । कुरआन की इस आयत में भी यशाऊ का शब्द है जिसका मायना यही बनता है कि ” जो चाहता है अल्लाह करता है ” अल्लाह का जो कानून उसके बन्दों के लिए है वह सारे काम उसी के अनुसार करता है जो एक तरह से आपकी पुष्टि थी क्योंकि आप भी सुपर नेचरल ( कुदरत के कानून के विरुद्ध ) को मुश्किल मानते हैं । मगर चूंकि आप आपत्तियों के शौक़ में मस्त हैं इसलिए समर्थन का भी खंडन करने बैठ गए क्योंकि आपके कथनानुसार हठ धर्म लोग अंधेरों में फंस कर बुद्धि भ्रष्ट कर लेते है ।। ” ( भूमिका सत्यार्थ पृ 07 )
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( 41 )
” जो कुछ आसामान व जमीन में है सब उसके लिए है । चाहे[1] उसकी कुर्सी ने आसमान और ज़मीन को समा लिया है । ” ( आयत -250 )

[फुटनोट1:- चाहे का शब्द नकल करके पंडित जी ने हमारे दावे की पुष्टि कर दी कि आप समझ और ईमानदारी से काम नहीं लेते थे । पाठकों कुरआन का अनुवाद देखो तो यह चाहे का शब्द उनको बताएगा । फिर हमारी तसदीक से हमें बताना]

आपत्ति
जो आसमान ज़मीन पर चीजें हैं वे सब मनुष्यों के लिए अल्लाह ने पैदा की हैं अपने लिए नहीं क्योंकि उसे किसी वस्तु की जरूरत नहीं । जब उसकी कुर्सी है तो वह सीमित स्थान वाला हुआ और जो सीमित स्थान हो वह ईश्वर नहीं कहलाता क्योंकि ईश्वर तो सर्व व्यापक और सर्वव्यापी हैं । [फुटनोट1- आर्य समाजियो ने पहले एडीशन के बाद इस वाक्य को काट दिया]

आपत्ति का जवाब
धन्य हो महाराज जी धन्य हो , पंडित जी बेचारे भी विवश हैं अरबी से परिचित नही उर्दू फारसी जानते तक नहीं । न जाने इस अल्पज्ञान से आपने क्या क्या धोखे खाए होंगे । भूमिका पृ. 52 का वाक्य हम कई बार नकल कर चुके हैं । जिसे आप स्वयं भी स्वीकारते हैं । जब तक किसी विषय में महारत व पूर्ण ज्ञान न हो कलाम के मायना नहीं समझे जा सकते सुनिए उल्लिखित आयत इस तरह है ।

लहु मा फ़िस्समावाति वमा फिल अर्जि ( हज – 64 )

अरबी में ल ( लाम ) सम्पत्ति के लिए आता है अतएव कहा करते हैं कि हाजल माल लिजैद ( यह जैद का माल है ) अतः आयत का मतलब साफ़ है

” उसी का है जो कुछ आसमान और ज़मीन में है । ‘ शाह अब्दुल कादिर साहब ने ठीक यही अनुवाद किया है । कुर्सी का अर्थ भी आप नहीं समझे- सुनिए । शाह वलीउल्लाह साहब का फारसी अनुवाद जो है उसका तर्जुमा यह है ।

” ऐसा अनुवाद किया , केवल आपको समझाने को । हां परमेश्वर के सर्वव्यापी होने के मायना तनिक आपके शब्दों में बयान करके थोड़ा सा प्रश्न करने को हमारा भी मन करता है । आप सत्यार्थ प्रकाश ईश्वर के जन्म ( पैदाइश ) न लेने की दलील लिखते हैं ।

” यदि कोई व्यक्ति इस असीम आकाश को कहे कि गर्भ में समा गया या मुट्ठी में रख लिया गया तो ऐसा कथन कभी सच नहीं हो सकता क्यों कि आकाश असीम और सर्वव्यापक है इसी लिए आकाश न बाहर आता है और न अन्दर जाता है इसी प्रकार परमेश्वर असीम और सर्व व्यापी होने के कारण उसका आना जाना कभी साबित नहीं हो सकता । किसी का जाना और आना उस जगह हो सकता है जहां वह न हो । क्या परपेश्वर गर्भ में नहीं था जो अन्दर से निकला ? ईश्वर के बारे में ऐसी बात ज्ञान से अनभिज्ञ लोगों के सिवा कौन कह सकता है और मान सकता है । ( सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ – 249. समलाक 8 न 0 45 )

अर्थो से जो सर्व व्यापी का अनुवाद पंडित जी ने किया है ( यदि हमारी समझ गलत न हो ) तो हम यह समझते है कि स्वामी जी परमेश्वर को ऐसा जानते हैं कि जैसे पानी में खांड होती है जिससे यह नतीजा निकालना कुछ सुदूर नहीं कि उनके विचार में परमेश्वर भी लम्बाई , चौढ़ाई और गहराई वाला है अतः जो चीज़ लम्बाई चौढ़ाई वाली होगी वह समाप्त होने योग्य भी होगी और यह तो पंडित जी भी मानते है कि समाप्त होने योग्य वस्तु एक समय से आरंभ होकर एक समय में अन्तहीन हो जाया करती है । ( इसे विस्तार से न 0 16 में देखो )

दूसरा सवाल यह है कि स्वामी जी की इस तकरीर के अनुसार ईश्वर सीमित व व्यापक विहीन हो जाएगा इसलिए कि सृष्टि चाहे कितनी ही हमारी गिनती में अन गिनत हो फिर भी घटना क्रम में अनगिनत नहीं क्योंकि इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान संसार का आरंभ तो अवश्य है और पंडित जी भी इसका आरंभ मानते हैं ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 287 , समलास 8 न 0 28 ) हम तो इसके सिलसिले के भी न 0 16 में आरंभ साबित कर आए हैं अतः आवश्यक 123

है कि एक समय से इसका शुरारभ हो और यह तो बिल्कुल साफ और स्पष्ट है कि परमेश्वर ने प्रारंभ में जो वस्तुएं पैदा की थीं वे भी सीमित थीं । उनपर हर दिन और हर घड़ी सीमित ही बढ़ती चली आयी । सीमित बढ़ने से सीमित ही रहेगी । आखिर आज तक वे सब की सब सीमित ही रही । यद्यपि वे ऐसे दर्जे तक पहुंच गयी हों कि बन्दों का हिसाब उस तक न पहुंच सकता हो मगर इससे वास्तव में असीमित और असीम नहीं हो सकती । अतः जब यह पूरी दुनिया एक हद तक सीमित है चाहे इसकी सीमा को हम न जानें । परमेश्वर भी इसकी पाबन्दी से सीमित होगा । कौन नहीं जानता कि पानी जब गिलास में सीमित है तो खांड भी सीमित होगी । अतः या तो आप परमेश्वर को सीमित और छोटा माने या आप इस दावे को कि ” परमेश्वर असीम है ” वापस लें । ( सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ -245 . समलारा , 7 ) विज्ञान से पहले झंडा गाड़ने वाले समाजियो इन तर्को को सोच कर जवाब दो या स्वीकार करो ।
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( 42 )
अल्लाह सूर्य को पूरब से लाता है बस पश्चिम से ले आ । बस काफ़िर हैरान था । बेशक अल्लाह गुनाहगारों को राह नहीं दिखाता । ( आयत -254 )
आपत्ति
देखिए यह ज्ञान की कमी की बात है । सूर्य न पूरब से पश्चिम और न पश्चिम से पूरब कभी आता जाता है । वह अपनी परिधि में गर्दिश करता रहता है । इस से यह हकीकत जानी जाती है कि कुरआन के लेखक को भुगोल और खगोल शास्त्र भी नहीं आता था । यदि गुनाहगारों को राह नहीं बतलाता तो परहेजगारों के लिए भी मुसलमानों के अल्लाह की जरूरत नहीं क्योंकि धर्मात्मा तो धर्म 124
1 की राह में होते ही हैं । जो पथ भ्रष्ट हैं । उन्को रास्ता बतलाना चाहिए इसलिए इस कर्तव्य को अदा न करना कुरआन के लेखक की बड़ी गलती है ।

आपत्ति का जवाब
किसी ने सच कहा है कि कुछ लोग न शोध कर्ता होते हैं न बुद्धिमान परन्तु अपने ज्ञान का ढिंडोरा अवश्य पीटते हैं । पूरब और पश्चिम से तात्पर्य उस स्थान का पूरब और पश्चिम है जहां हज़रत इबराहीम थे जिनका यह कलाम है । यदि कोई दुनिया का किनारा पूरब और पश्चिम नहीं तो आप भूगौलिक ज्ञान का हम क्या करें । यदि आप धरती की हरकत को मानते हों और सूर्य को अपनी धुरी पर हरकत करने वाला समझें तब भी पूरब व पश्चिम जो देखने में आता है उसके अनुसार हरेक व्यक्ति मुख्य रूप से ऐसे मूर्ख के सामने जो स्वयं ही खुदा बनता हो जैसा हज़रत इबराहीम का सम्बोधित नमरूद था जिसके जवाब में उन्होंने यह वाक्य कहा था ऐसे कहने से दलील लायी जा सकती है । स्वामी जी को क्या पड़ी है कि आगे पीछे को देखें और सोच विचार करें । उन्हें उल्लिखित वाक्य भूमिका पृष्ठ 52 की पुष्टि स्वीकार है कि ” जल्द बाजों को ज्ञान नहीं होता ।

” स्वामी जी ! पथ प्रदर्शन दो प्रकार का है एक पथ प्रदर्शन तो वह है जिसे मार्ग दर्शन कहते हैं यह तो सारे मनुष्यों को बराबर मिलता है । एक पथ प्रदर्शन वह है जिसे भला सौभाग्य कहते हैं । वह खास , भले , सदाचारी लोगों का हिस्सा है । इस लेख को आपने भी सत्यार्थ प्रकाश के कई एक अवसरों में प्रस्तुत किया है एक अवसर के शब्द यह हैं । जब आत्मा ( मन ) को और मन इन्द्रियों को किसी महसूस की जाने वाली वस्तु में लगाता है या जिस क्षण में आत्मा चोरी आदि पर या भले कामों को करना आरांभ करती है तो जीव की इच्छा और ज्ञान आदि चूंकि उस समय इसी इच्छा की हुई वस्तु की ओर झुक जाते हैं इसलिए उस क्षण में जो आत्मा के अन्दर बुरे काम के करने में भय व संकोच और शर्म और अच्छे कामों के करने में निडर , असंकोच , प्रसन्नता और उमंग व हौसला पैदा होता है वह जीव आत्मा की ओर से नहीं बल्कि परमात्मा ( ईश्वर ) की ओर से है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 55 , समलास 7 न 0 11 )

और सुनिए । ” जो पाप करने की इच्छा के समय सन्देह और शर्म पैदा होती है वह अन्तरयामी परमात्मा की ओर से है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 55 )

अतः एक समय मनुष्य के दुराचार का वह आता है कि यह सन्देह और भय गुनाहों पर उसको नहीं होता और वह बे खटक पाप करता है बल्कि अपने दुष्ट व बुरे कामों को अच्छा जानता है इसी लेख को आपने भी टूटे फूटे शब्दों में बौद्धों की गुमराही के सबब बयान करते हुए यूं प्रस्तुत किया है । ” उन्होंने ( बौद्धों ने ) किस दर्जा अज्ञानता में प्रगति की है जिसकी मिसाल उनके सिवा दूसरी हो ही नहीं सकती । विश्वास तो यही होता है कि वेद और ईश्वर से विरोध करने का यही नतीजा मिला ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 541 अध्याय 12 न 0 27 )

सुनो कुरआन मनुष्य की प्राकृतिक स्थिति को बताता है वाअलमू अन्नल्ला ह यहूलु बैनल मर इ व कल्बिही 0 ( सूरह अन्फाल –24 ) याद रखो कि एक समय ऐसा भी होता है कि अल्लाह आदमी के दिल में पर्दा हो जाता है ( समझने से रोक देता है ) ति स्वामी जी यही वह सोच है जो आप भूमिका पृ  52 में ( जिसको हम कई बार नकल कर चुके हैं ) लिख चुके हैं क्या यह सच है ? ”
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( 43 )
“ कहा जानवरों से ले उनकी सूरत पहचान रख फिर हर पहाड़ पर उनमें से एक एक टुकड़ा रख दे । फिर उनको बुला दौड़ते तेरे पास चले आएंगे । ( आयत -256 )
आपत्ति
वाह वाह देखो जी मुसलमानों का अल्लाह शोबदा दिखाने वालों की तरह खेल कर रहा है क्या ऐसी ही बातों से खुदा की खुदाई ज़ाहिर होती है । बुद्धिमान लोग ऐसे खुदा को छोड़कर अलग हो जाएंगे और जाहिल लोग फसेंगे । इससे भलाई का बुराई बदला उसे मिलेगा ।
आपत्ति का जवाब
इस आयत के शब्द ये हैं । फ़ खुज अरब अ तम्मिनत्तौरि फ़सुरहुन्ना इलैक सुम्मजअल अला कुल्लि ज ब लि म्मिन्हुन्ना जुज़अन 0 ( बकरा 260 )

इस आयत का शाब्दिक अनुवाद यह है कि । ” चार जानवर लेकर उनको अपनी ओर बुलाओ । तुम उनमें से हरेक को एक एक पहाड़ पर रखो । ‘ मतलब यह है कि हज़रत इबराहीम को अल्लाह की ओर से कहा गया था कि तुम चार जानवर लेकर अपने साथ बुलाओ । फिर उनको पहाड़ पर रखकर अपनी ओर बुलाओ । चूंकि वे तुम से मिले होंगे इसलिए तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे पास तुरन्त आएंगे । इससे तुम समझना कि अल्लाह मुर्दो को ज़िन्दा कर सकता है क्योंकि ये वहशी जानवर कुछ दिनों में तुम्हारी निकटता से इतने पहचान वाले हो गए कि तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे पास आएंगे। प्राणी तो सारे अल्लाह से प्राकृतिक रूप से परिचित हैं फिर क्या हैरत कि अल्लाह के बुलाने पर वे उसके आदेशों का पालन करें बल्कि न करें तो हैरत है ।

सारांश यह कि कुरआन शरीफ के असली शब्दों के अनुवाद पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती जो होती है वह उन बातों पर होती है जिसको मानने वाले स्वयं जिम्मेदार हैं कुरआन ज़िम्मेदार नहीं ।
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( 44 )
“ जिसको चाहे हिम्मत ( सूझ बूझ ) देता है । ” ( आयत 346 )
आपत्ति
यदि जिसको चाहता है हिम्मत देता है तो जिसको नहीं चाहता नहीं देता होगा । यह खुदा की बात नहीं बल्कि जो तरफदारी छोड़ कर सबको हिम्मत की हिदायत करता है वही खुदा और सच्चा उपदेशक हो सकता है दूसरा नहीं ।
आपत्ति का जवाब
इस वाक्य का जवाब न 0 26 में और उससे पहले कई बार आ चुका है । पंडित जी को न 0 गिनने का शौक हो जाता है इसके अलावा मन्शा के मायना न 0 40 में हम बता आए हैं ।
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( 45 )
वह 1 कि जिसे चाहेगा माफ करेगा जिसको चाहेगा यातना देगा क्योंकि वह चीजों पर समर्थ है । ” ( आयत -280 )
आपत्ति
क्या माफी के हकदार को न माफ किया जाएगा और जो हकदार न हो उसे माफ । यह तो एक बे इन्साफ बादशाह का काम यदि खुदा जिसको चाहता है गुनाहगार या धर्मात्मा बनाता है तो आत्मा को गुनाह व सवाब करने वाला न कहना चाहिए । जब अल्लाह ने उसको वैसा ही करना है तो मनुष्य को दुख व सुख भी न
1 – पता नहीं यह किस आयत में नकल किया है ऐसा बार बार हो रहा है । 128
होना चाहिए जैसे सेनापति के आदेश से किसी नौकर ने किसी को मारा तो उसका फल ( नतीजा ) हासिल करने वाला वह नहीं होता वैसे ही वे भी नहीं हैं ।
आपत्ति का जवाब
भोले स्वामी ! यह शब्द का मतलब है कि हकदार को अल्लाह माफ न करे और जो हकदार न हो उसे माफ करे । मन्शा व इरादा जिसे अरबी में मशीयत कहा गया है धातु के अर्थों में है न 0 40 में हम यही बात बता आए हैं । इसके अलावा इससे पहले भी एक अवसर पर इसका उल्लेख आया है । अतः आयत के मायना साफ हैं कि जो लोग उसकी माफ़ी के कानून के पाबन्द रहे होंगे अर्थात हकदार होंगे उनको माफ करेगा और जो नहीं रहे होंगे उनको नहीं । मगर । ” जिद्दियों को ज्ञान कहां ” ( भूमिका पृष्ठ 52 देखे )
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( 46 )

” सूरह आले इमरान- ” इस से अच्छी और क्या परहेज़ गारों को ख़बर दूं कि अल्लाह की ओर से जन्नते हैं जिनमें नहरें चलती हैं उनमें सदैव रहने वाली पाक पत्नियां हैं । अल्लाह की खुशी है अल्लाह उनको देखने वाला है साथ बन्दों के । ” ( आयत न ० 13 )

आपत्ति
भला यह जन्नत है या वैश्यालय ? इसको खुदा कहना या स्त्रियों का शौकीन । क्या कोई भी बुद्धिमान ऐसी बातें जिसमें में उसे खुदा की बनायी हुई किताब मान सकता है ? अल्लाह पक्षपात से काम क्यों लेता है ? जो पत्नि जन्नत में सदैव से रहती है क्या वे यहां से पैदा होकर वहां गयी हैं ? या वहीं पैदा हुई हैं ? यदि यहां से पैदा होकर वहां गयी हैं और क्यामत की रात में सबका न्याय होगा इस वचन को क्यों तोड़ा ? यदि वहीं पैदा हुई हैं तो कयामत तक वे क्यों और कैसे गुज़ारा करती हैं ? यदि उनके वास्ते आदमी भी हैं । यहां से जन्नत में जाते मुसलमानों को अल्लाह बीवियां कहां से देगा ? और जैसे बीवियां जन्नत में सदैव रहने वाली बनायीं वैसे मर्दो को वहां सदैव रहने वाले क्यों नहीं बनाया ? इस वास्ते मुसलामनों का अल्लाह भी अन्यायी और बे समझ है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी का अनुवाद यूं तो पूरा का पूरा नूर होता है मगर इस वाक्य के शब्दों ने तो साबित कर दिया कि स्वामी जी का फरमान वास्तव में सोने से लिखने योग्य है कि ” हठ धर्मी की बुद्धि पर पत्थर ” ( भूमिका सत्ययार्थ प्रकाश पृ 0 7 )

अल्लाह अल्लाह ! जिस व्यक्ति को इतनी भी खबर नहीं कि खबर और खबर देने वाले में अन्तर कर सके । मामूली उर्दू और उर्दू से नागरी किया हुआ अनुवाद भी साफ़ साफ़ नकल नहीं हो सकता तो पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसे ज्ञान एवं बुद्धि के महात्मा ने कहां तक कुरआन शरीफ पर जिसको हज़ारों विद्वान ईश्वरीय किताब मानते हैं और मुक्ति का मार्ग जानते हैं थोड़ा सा भी सोच विचार किया होगा ।

हम हर वाक्य पर यह शिकायत करते तो ऐसी शिकायत ही से यह किताब भर जाती । पाठक मुख्य रूप से हमारे समाजी दोस्त अपने चौथे उसूल को याद करके ज़रूर अपने स्वामी का अनुवाद जहां हमने उनपर आपत्ति की है कुरआन के अनुवादों से मुकाबला कर लें । वाक्य न 09 में भी स्वामी जी ने यही आपत्ति की है । पंडित जी को आपत्तियां बढ़ाने का ऐसा शौक चर्राया हुआ है कि एक ही आपत्ति को कई एक अवसरों पर करके मूर्खो में अपनी गिनती कराते हैं ।
कुरआन शरीफ का मतलब किसी विद्वान से पूछ लिया होता कुरआन में जन्नतियों के लिए बीवियों का होने का निस्संदेह उल्लेख है लेकिन समझ में नहीं आता कि इस पर स्वामी जी को क्या सवाल है ? यदि खुदा किसी भले आदमी की नेक बीवी को जन्नत में उसके साथ ही जगह दे तो क्या मुसीबत है ? हां जो भले मर्द बिना शादी किए मरेंगे उनका मिलाप उन औरतों से होगा जो वैसी हैं भले कामों में बे निकाह मरेंगी या खुदा उनके लिए जन्नत में उनके मुनासिब औरतें पैदा करेगा । यह भी संभव है कि यदि जन्नती मर्दो को एक औरत से ज्यादा की इच्छा होगी तो और औरत वहां की पैदाइश से उसको मिल जाएगी । पंडित जी ने चूंकि सारी उम्र कुदरत के कानून का उल्लंघन करके ब्रहम्वर्य में गुजार दी है इसलिए वे जब सुनते है कि जन्नतियों को बीवियां मिलेंगी तो हैरान रह जाते हैं कि मैं तो जीवन में संघर्ष करने के बावजूद दुनिया में भाग्य हीन रहा मुसलमान इस लोक के अलावा परलोक ( अन्तिम जीवन ) में भी सफल हुए जाते हैं । मगर यह दोष किसका ? बाकी जवाब न 0 9 में देखिए ।
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( 47 )

” बेशक अल्लाह की ओर से दीन इस्लाम है ” ( आया )
आपत्ति
क्या अल्लाह मुसलमानों ही का है औरों का नहीं ? क्या तेरह सौ सालों से पहले खुदा का धर्म था ही नहीं ? इससे मालूम हुआ कि यह कुरआन खुदा का बनाया हुआ नहीं बल्कि किसी कट्टर पक्षपाती का बनाया हुआ है ।
आपत्ति का जवाब
एक व्यक्ति ने एक तोते का लालन पालन किया और उसे “ दरी चेह शक ” ( इसमें क्या संदेह है ) का शब्द ऐसा याद कराया कि हर  बात के जवाब में तोता ” दरीं चेह शक ” तुरन्त कह देता । आखिर उसका मालिक उसे बेचने के लिए ले गया और खरीदार के पूछने पर सौ रूपए मोल किया । खरीदार की तकरार पर मालिक ने कहा- कि तोता महाराज से पूछ लो । तोता महाराज झट बोल उठे कि ” दरीं चेह शक ” खरीदार ने समझा कि ऐसा तोता कहां मिलेगा ? कि फ़ारसी में हर बात का जवाब देता हैं । ठीक इसी तरह पंडित जी को इन शब्दों से बड़ा प्रेम है कि

” मुसलमानों ही का खुदा है औरों का नहीं । ” मगर अपने ऊपर बीतती है तो साफ कह जाते है कि ” वेद का इन्कारी नास्तिक है ” ( सत्यार्थ पृ 0 247 ) और । ” यदि कोई किसी से पूछे कि तुम्हारा क्या अकीदा है तो यही जवाब देना चाहिए कि हमारा वेद है ”
( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 272 , समलास 7 न 081 )
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( 48 )
“ हरेक आत्मा को पूरा दिया जाएगा जो उसने कमाया और वे जुल्म न किए जाएंगे । कहो या अल्लाह तू ही मुल्क का मालिक है जिसे चाहे देता है जिससे चाहे छीनता है जिसे चाहे सम्मान देता है जिसे चाहे अपमानित कर देता है सब कुछ तेरे ही हाथ में है हर चीज़ पर तू ही समर्थ है । रात को दिन में और दिन को रात में बिठाता है और मुर्दा को ज़िन्दा से और जिन्दा को मुर्दा से निकालता है और जिसे चाहे असीमित आजीविका देता है । मुसलमानों को चाहिए कि काफिरों को दोस्त न बनाए सिवाए मुसलमानों के । अतः जो कोई यह करे वह अल्लाह की आरे से नहीं । कह जो तुम चाहते हो अल्लाह का अनुसरण करो और मेरा । अल्लाह चाहेगा तुम को और तुम्हारे गुनाह माफ़ करेगा । बेशक वह माफ करने वाला कृपालु है । ” ( आयत – 21–27 )
आपत्ति
जब हर आत्मा को कर्मों का पूरा पूरा फल दिया जाएगा तो गुनाह माफ नहीं हो सकेंगे और यदि माफ़ होंगे तो पूरा फल नहीं दिया जाएगा और अन्याय होगा । यदि बिना सद कर्म के हुकूमत देगा तब भी अन्याय ही हो जाएगा । भला जिन्दा से मुर्दा और मुर्दा से जिन्दा कभी हो सकता है । ईश्वर की व्यवस्था पूर्ण एवं अनादि कालिक है कभी उसमें हेर फेर या परिवर्तन नहीं होता न हो सकता है । अब देखिए पक्षपात की बातें जो इस्लाम दीन में नहीं हैं । उनको काफिर कहा गया है गैर धर्म के सदाचारी लोगों से भी दोस्ती न रखना और दुष्ट मुसलमनों से दोस्ती रखने की शिक्षा देना खुदा को शोभा नहीं देता । इसलिए यह कुरआन और कुरआन का खुदा और मुसलमान लोग मात्र पक्षपात और अज्ञानता से भरे हैं । और मुसलमान अंधियारे में हैं और देखिए मुहम्मद साहब की लीला कि तुम मेरी तरफ होगे तो अल्लाह तुम्हारी तरफ़ होगा । यदि तुम पक्षपात से गुनाह करोगे तो उसे माफ़ भी करेगा इससे साबित होता है कि मुहम्मद साहब की नीयत साफ़ न थी और मुहम्मद साहब ने अपने स्वार्थ के लिए यह कुरआन बनाया है ।
आपत्ति का जवाब
कैसे हठ धर्मी हैं वे लोग जो धर्म के अंधियारे में फंस कर बुद्धि भ्रष्ट कर बैठे हैं । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 7 ) हरेक काम का पूरा बदला वही होता है जो शासक ने निर्धारित किया हो । तो जिन गुनाहगारों के सद कर्म अधिक और दुष्ट कर्म कम होंगे उनका बदला यही है कि वे मुक्ति पाए हों । तनिक ध्यान से सुनो । व अम्मा मन सकुलत मवाजीनु हु फहुवा फी ईशतिर्राज़ियहा ( सूरह कारियह – 6-7)
(फुटनोट – जिनके सदकर्म अधिक होंगे वे मुक्ति पा जाएंगे]

” और जिन के गुनाह ने कियों से बढ़ कर होगे उनकी सजा जहन्नम से सुनो । व अम्मा मन खफफत मवाजीनुहु फउम्मुहु हावियह. ( सूरह कारिआ – 8-9 ) [जिनके सदकर्म कम होंगे वे जहन्नम में जाएंगे]

फिर यह कानून निर्धारित है कि ऐसे गुनाहगारों में से जो जहन्नम के योग्य होंगे यदि कोई गुनाहगार अल्लाह का बागी अर्थात बहुदेव वादी नहीं तो किसी कदर सज़ा दे कर उनको भी मुक्ति मिल सकेगी । ज़रा ध्यान से पढ़ो । इन्नल्लाह ला यगफिरू अय्युशरक बिहि व यगफिरु मा दूना जालि क लिमय्य शाऊ  ( सूरह निसा -48 )

[बहुदेव वादीयों के सिवा जिसको चाहेगा ( थोडी ) बहुत के बाद ) माफ कर देगा]

अतः आपके पहले हिस्से का जवाब आ गया । ज़िन्दों से मुर्दे और मुर्दो से ज़िन्दे हर दिन निकलते हम स्वयं देख रहे हैं। क्या जिन मुर्दो को आग में जलाते हो वे तुम्हारे जिन्दों में से नहीं थे ? और जो रोज मर्रा पैदा होते हैं । वे पहले मुर्दा ( बेजबान वीर्य ) नहीं होते ? देखिए कुरआन शरीफ अपनी टीका आप करता है । कयफा तकफुरू न बिल्लाहि व कुन्तुम इसका अनुवाद है । ” कैसे तुम अल्लाह से मुन्किर होते हो यद्यपि तुम बे जान ( वीर्य के रूप में ) थे फिर उसने तुमको जीवन बख्शा । ” ( सूरह बकरा 28 )

” पूर्ण ज्ञान के लिए हर बात का उत्तम और हल्का अवसर देखना और सोचना अवश्य है और नापाक बातिन वाले जाहिलों को वास्तव में इल्म नहीं होता । ( भूमिका पृ 0 5-2 )

काफ़िर कहने का जवाब वाक्य न 0 20 में आ चुका है आप अपनी आदत से मजबूर हैं तो हम भी महबूर हैं ।

गैर धर्म के भले लोगों के मिलने से मना नहीं किया बल्कि उन पापियों दुष्टों से मना किया है जिनका हाल स्वयं अल्लाह ने बताया है । कान खोल कर सुनो ।

” मुसलमानों गैर कौमों से दोस्ती न करो वे तुम्हे नुक्सान पहुंचाने में कमी नहीं करते । तुम्हारी तकलीफों से खुश होते हैं स्वयं उनके मुंह से शरारतें हो चुकी हैं और जो गुस्सा तुम्हारे हक में उनके दिलों में भरा पड़ा है वह बहुत बढ़ कर है हमने तुमको निशानियां बता दी हैं यदि तुम अकल्मन्द हो । ” ( आले इमरान -118 )

समाजियो ! भूमिका पृ  52को जिसके वाक्य हमने कई बार लिखे हैं देखो और कुरआन की रूदाद जो ऐसी हरकतों से कैसे सख्त शब्दों में मना करता है । तनिक ध्यान से सुनो । ” क्यों ऐसी बातें कहते हो जिन पर स्वयं अमल नहीं करते । अल्लाह के यहां यह प्रकोप की बात है कि कहे पर अमल न करो । ” ( सूरह सपफ – 2-3 )
हां स्वामी जी ! यदि आप ऐसे ही सुलह पसन्द और नर्म स्वभाव थे कि गैर धर्म के लोगों को अपनी तरह जानते हैं तो बेचारे बे ज़बान ब्रहमणों पर क्यों इतने नाराज़ हैं जो लिखते हैं ।

” उन्होंने अंग्रेज़ , मुसलमान , चंडाल आदि से भी खाने पीने का अन्तर नहीं रखा । उन्होंने यही समझा खाने और जात पात का भेद भाव तोड़ने से हम और हमारा देश सुधर जाएगा लेकिन ऐसी बातों से सुधार कहां उल्टा बिगाड़ होता है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 497 , समलास 11 न 0 105 )

और भी सुनिए ! पंडित जी बयान करते हैं ।

” अब इदबार बख़्त आर्यों की सुस्ती , लापरवाही और आपसी  कपट के कारण दूसरे देशों में राज करने की तो बात ही क्या है बल्कि स्वयं आर्य वरत ( हिन्द ) में भी इस समय आर्यों का सम्पूर्ण स्वतंत्रता और स्वायमित्व , निडर राज नहीं , जो कुछ है उसे भी विदेशी रौंद रहे हैं । कुछ थोड़े से राजा खुद मुख्तार हैं । [फुटनोट- समाजियो ! कौन सा राजा खुद मुख्तार है बता सकते हो]

जब बुरे दिन आते हैं तब देश के रहने वालों को कई प्रकार का कष्ट भोगना पड़ता है । कोई कितना ही करे लेकिन जो अपने देश का राज होता है वह सबसे श्रेष्ठ होता है अर्थात विदेशियों का राज पूरा पूरा ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 298 , समलास 8 न 0 49 )

गुरू कुल और आर्य कालेज के समर्थकों ! स्वामी जी की इस इबारत से सहमत हो ?

पंडित जी ! मुसलमान और ईसाई चाहे कितने ही सदाचारी हों उनके साथ खाना उचित नहीं । हां मुझे याद आया , वेद की पाबन्दी के सिवा कोई भला काम कैसे हो सकता है ? क्योंकि ” वेद का इन्कारी नास्तिक है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश समलास 8 )

काफिर कहने का जवाब न 0 20 में देखो ।

स्वामी जी ! हैं ? ऐसी बे इन्साफी परमेश्वर से कराते हो कि वैदिक मत वालों के सिवा कोई आस्तिक नहीं ।
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( 49 )

” जिस समय कहा फ़रिश्तों ने कि ऐ मरयम अल्लाह बरगुज़ीदा किया और पाक किया ऊपर दुनिया की औरतों के । ” ( आयत -39 )
आपत्ति
भला जब आज कल ईश्वर के फरिश्ते और स्वयं ईश्वर किसी से बातें करने को नहीं आते तो पहले क्योंकर आते होंगे ? यदि कहो कि पहले के आदमी धार्मिक होते थे आजकल के नहीं होते तो यह बात गलत है । जब ईसाई और मुसलमान । काम चला था उस समय इन देशों में जंगली और जाहिल व्यक्ति अधिक थे इसीलिए ऐसे ज्ञान के विरुद्ध धर्म चल गए । अब ज्ञान एवं विद्वान अधिक हैं इस वजह से ऐसा धर्म अब चल नहीं सकता बल्कि जो जो ऐसे रद्दी धर्म हैं वे लुप्त होते जाते हैं उनके प्रगति करने की तो बात ही क्या है ।

आपत्ति का जवाब
भला जब आज कल किसी को ईश्वरीय संकेत नहीं होता तो पहले वेद किस प्रकार उतरे होंगे ? या आज कल कोई जवान आदमी पैदा नहीं होता तो पहले भी क्यों कर जवान पैदा हुए होंगे ? ( देखो सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 294 , समलास 8 न 0 42 )
यदि कहिए कि उन दिनों आवश्यकता थी तो ठीक इसी तरह चमत्कार की इन दिनों आवश्यकता थी और यह तो साफ है कि आवश्यक्ता और आवश्यकता के न होने का पता करना कर्ता का काम है । हम कभी कभी बारिश की ज़रूरत समझते हैं लेकिन ईश्वर के निकट नहीं होती इसीलिए बारिश होती भी नहीं ।

हां यह भली कही कि जब ईसाई और मुसलमानों का धर्म चला था उस समय अज्ञानता थी ठीक है इसलिए कि उस समय वेद पर उन लोगों का नियम था कि क्योंकि वेद तो आदि काल से मनुष्यों को एक के बाद एक ( विरासत में ) मिले थे ।

समाजियोः तुम्हारी क्या राय है ?
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( 50 )
“ उसको कहता है कि हो बस हो जाता है और चाल चली काफिरों ने और चाल चली अल्लाह ने और अल्लाह बड़ी चाल चलने वाला है । ” ( आयत – 44-50 )
आपत्ति
जब मुसलमान अल्लाह के सिवा दूसरी कोई वस्तु नहीं मानते तो अल्लाह ने किससे कहा और उसके कहने से कौन हो गया । इस बात का जवाब मुसलामान लोग सात जन्म में भी नहीं दे सकेंगे । क्योंकि दलील के बिना कोई बात ठीक से फिट नहीं बैठ सकती । बिना दलील बात को साबित करना ऐसा ही है जैसा कोई कहे कि बिना अपने मां बाप के मेरा शरीर बन गया । जो धोखा खाता है या धोखा देता है वह ईश्वर कदापि नहीं हो सकता ईश्वर तो की बात कोई शरीफ आदमी भी ऐसी बात नहीं करता ।
आपत्ति का जवाब
उपर्युक्त वाक्य में पहला भाग एटम से संबंधित है जिस का जवाब हम वाक्य न 0 27 में दे चुके हैं । अलबत्ता ” चाल में पंडित जी ने भी चाल चली है । अतः भूमिका के लेखक स्वयं पृष्ठ 52 पर अमल करते तो उनसे यह गलती न होती । अरबी भाषा में जो शब्द मकर है उसके मायना शब्द कोष में खुफिया हुक्म या खुफ़िया तदबीर है अतः आयत का अर्थ यह हुआ कि काफिरों ने हज़रत मसीह अलैहि 0 को कष्ट पहुंचाने में खुफिया तदबीरें की और अल्लाह ने उनको बचाने का खुफिया आदेश जारी कर दिया और ईश्वर की चाल सब पर भारी होती है । चूंकि अल्लाह के सारे काम लोगों की नजरों से छुप छुपाकर होते है । वर्ना बता दे कि जान निकलने के समय क्या ईश्वर सामने आकर धपड़ मारता है ? नहीं बल्कि ऐसे खुफिया सामान होते हैं जो अन्दर ही अन्दर अपना काम कर जाते हैं । इसी लिए कहा गया । ” म क रू व म क रुल्लाहु ” यही इसका अर्थ भी है । असल यह है कि कुछ शब्द अरबी के अरबी में इतनी सख्ती रखते हैं जितनी उर्दू में दिखाते हैं जैसे “ जाहिलु ” जिसका अनुवाद नादान है या ” अहमक ‘ जिसका अनुवाद भी नादान है अरबी में ठीक उतना ही वजन रखते है जितना उर्दू में नादान रखता है अर्थात एक ” साधारण सा ” और उर्दू में , ये दोनों शब्द ( जाहिल और अहमक ) कितनी घृणा रखते हैं , भाषा विदों से यह बात छुपी नहीं , यही हाल ‘ मकर ” का है । अरबी में खैरुल माकिरीन गिलेड स्टोन और मुस्तफा कमाल पाशा जैसे योग्य राजनीतिज्ञों को कहा जाता है न कि हर ऐरे गैरे को । मगर हिन्दी भाषा में यह शब्द ” मकर बड़े घृणित अर्थों में बोला जाता है इसलिए आर्यों के गुरू और स्वयं आर्यों को भी बुरा लगता है वर्ना असल में यह ऐसा बुरा नहीं है । इसके अलावा स्वामी जी भी इस बात को मानते हैं । ” जहां असली अर्थ न हो सकें वहां उपमा या मजाज तात्पर्य होता ( भूमिका पृ 0 10 ) फिर क्या कारण है कि स्वामी जी ने यहां मजाज़ ( वास्तविक ) मुराद न लिया क्योंकि धोखा तो कमज़ोर आदमी किया करता है और ईश्वर तो सारे लोगों को पैदा करने वाला , स्वामी व पालनहार है । वह स्वयं कहता है । ” ईश्वर सारे मनुष्यों पर छाया हुआ है । ‘ ‘ स्वामी साफ अर्थ क्यों करते जबकि अपने कथन की मान्यता मन्जूर थी कि । ” नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृ 0 52 ) इसे विस्तार से जानने के लिए हमारी किताब तुर्क इस्लाम ब जवाब तर्क इस्लाम में देखिए ।
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( 51 )

” क्या यह किफायत न करेगा कि मदद करे तुमको साथ तीन हजार फरिश्तों के । ” ( आयत – 18 )
आपत्ति
यदि मुसलमानों को तीन हजार फरिश्तों के साथ मदद देता था
तो अब जबकि उनकी बादशाहत बहुत सी बर्बाद हो गयीं और हो रही है क्यों मदद नहीं देता ? इसलिए जाहिलों को लालच देकर फंसाने का ढकोसला है । ”
आपत्ति का जवाब
भली कही , मगर स्वामी जी ! क्या कारण है कि ईश्वर का वायदा उल्लिखित सुलतान महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के मुकाबले में स्पष्ट न हुआ बल्कि आज तक भी वैसा ही है । सुनो ! ईश्वर आज्ञा ( आदेश ) देता है ।
” तुम्हारे सारे शस्त्र व हथियार और तीर कमान आदि मेरी कृपा से शक्तिशाली और विजय नसीब हो । दुराचारी दुश्मनों की पराजय और तुम्हारी विजय हो । तुम्हारी सेना भारी भरकम और नामी गरामी हो ताकि तुम्हारा विश्व व्यापी शासन इस धरती पर स्थापित हो । ”
( कभी हुआ भी ? ) ऋगवेद अषटक । अध्याय 3 वरग 1 मन्त्र 2 यदि कहीं वेद में भी यह लिखा है कि ।
” जब तक लोग धर्म पर चलते रहते हैं जब तक शासन बढ़ता रहता है और जब दुष्कर्म होने लगते हैं तो राज विनष्ट हो जाता है । ” ( मंडल – 1 – सकत 31 मन्त्र 2 )
तो इसी के वज़न का कुरआनी आदेश भी सुन लीजिए और तनिक ध्यान से सुनिए । अन्तुमुल अवलव न इन कुन्तुम मोमिनीन ० ” तुम्ही विजयी रहोगे यदि तुम.ईमान में मजबूत होगे । ” ( आले इमरान 139 ) पंडित जी ! क्या बारे में सच है कि । ” हठ धर्मी धर्म के अंधेरे में फंस कर बुद्धि को भ्रष्ट कर लेते हैं ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश )
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( 52 )
” और मदद दे हमें ऊपर काफिरों के बल्कि अल्लाह संरक्षक है तुम्हारा और वह बेहतर है मदद करने वाला और यदि मारे जाओ तुम बीच राह अल्लाह के या मर जाओ तुम अलबत्ता क्षमादान है अल्लाह की ओर से । ”
आपत्ति
देखिए मुसलमानों की गलती कि जो अपने धर्म के नहीं उनके लड़ने के वास्ते ईश्वर से प्रार्थना करते हैं क्या ईश्वर इतना सादा है जो इनकी बात मान लेगा । यदि मुसलमानों का संरक्षक अल्लाह ही है तो फिर मुसलमानों के काम क्यों बर्बाद होते हैं और अल्लाह भी मुसलमानों के साथ झूठी मुहब्बत में फंसा हुआ नज़र आता है । यदि अल्लाह ऐसा पक्षपाती है तो धार्मिक लोगों की उपासना के योग्य नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
पंडित जी ! “ पंडित ” का अर्थ तो बुद्धिमान का था आप पंडित होकर ऐसी बातें करें तो दूसरा क्या करेगा ?
किए लाखों सितम इस प्यार में भी आपने हम पर खुदा ना ख्वास्ता गर खशमगी होते तो क्या करते
कुरआन ने तो काफिरों के मुकाबले के लिए मदद की प्रार्थना सिखायी है मदद भी कैसी सदैव नहीं बल्कि उनकी शरारतों से बचने की । यह तो केवल आप की अल्पबुद्धि का नतीजा है । हां ईश्वर का आदेश सुनिए । ” मैं उसका रक्षक कायनात का प्रतापीमान सम्मान वाला अत्यन्त बलवान विजयी सारी दुनिया की सारी हुकूमतों का राजा सर्व शक्तिमान और सबको शवित्त देने वाले परमेश्वर को जिसके आगे सारे बलवान , योद्धा अपना शीश झुकाते है और जो न्याय से मनुष्यों की रक्षा करने वाला अन्दर से हर जंग में विजय पाने के लिए आमंत्रित करता है और शरण लेता हूं । ” ( यजुर वेद अध्याय , 20 मंत्र 50 ) यह बात विस्तार से न 0 2 में देख लें । मुसलमानों की बर्बादी का जवाब न 0 51 में आ चुका है ।
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( 53 )
” और नहीं है अल्लाह कि सचेत करे तुमको ऊपर परोक्ष के . लेकिन अल्लाह पसन्द करता है ईशदूतों को अपने में से जिसको चाहे । अतः ईमान लाओ साथ अल्लाह के और उसके सन्देष्टाओं के । ( आयत 173 )
आपत्ति
जब मुसलमान लोग सिवाए अल्लाह के किसी पर ईमान नहीं लाते और न किसी को ईश्वर का साझी मानते हैं । तो पैगम्बर साहब को क्यों ईमान में ईश्वर के साथ साझी किया है ? अल्लाह ने रसूल पर ईमान लाना लिखा है इसलिए रसूल भी शरीक हो गया । फिर ला शरीक ( नहीं साथ कोई ) कहना ठीक न हुआ । यदि इसका मतलब यह समझा जाए कि मुहम्मद साहब के पैगम्बर ( दूत ) होने पर ईमान लाना चाहिए तो सवाल पैदा होता है कि मुहम्मद साहब की क्या जरूरत है । यदि ईश्वर बिना दूत के अपनी इच्छानुसार काम नहीं कर सकता तो यह तो वह कुदरत ( अपनी सर्व शाक्ति से ) से खाली ही हुआ ।
आपत्ति का जवाब
पंडित जी ! बहुदेव वादियों की सन्तान , बल्कि स्वयं बहुदव वादी हो कर भी बहुदे व वाद से डरें तो बड़ी प्रसन्नता की बात है मुसलमानों का तो इसपर भी विश्वास है कि दो दुना चार और पांच दुना दस बल्कि और सुनिए वे इस बात पर भी विश्वास रखते हैं कि पंडित दयानन्द जी आर्यों के स्वामी महाराज हैं बल्कि और सुनिए ! वे यह भी मानते हैं कि स्वामी जी के सवाल बड़े उचित और ज्ञान एवं विद्या से खाली हैं बताइए ! आप कितने ईश्वरों को मानने वाले हुए ? आप लिखते हैं कि ” यदि मतलब इसका यह समझा जाए । ” अगर मगर का क्या अर्थ ? कोई और अर्थ भी है ? यही तो है कि हज़रत मुहम्मद , मूसा ईसा ( अलैहि 0 ) अल्लाह के बन्दे और ईशदूत हैं । हां यह बड़ा कठिन सवाल है कि यदि बिना ईश्वर ईशदूत के अपनी इच्छा के अनुसार काम नहीं कर सकता । पीछे 31 न 0 में हम लिख आए हैं कि स्वामी जी दिल में वेदों के इन्कारी थे देखिए और कान लगा कर हमारे दावे की दलील सुनिए ।
” उस परमात्मा का खज़ाना 33 देवताओं से सुरक्षित या उनमें स्थापित है परमात्मा के उस खज़ाने को जिसकी देवता रक्षा करते हैं कौन जान सकता है । ” ( अथरवेद कांड 10 , प्रफाटक 23 , अनुवादक 4 , मंत्र -23 )
और सुनिए ।
” 33 देवता उस परमात्मा के विभाजित किए हुए कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं । ( मंत्र -27 )
और सुनिए ।
” अग्नि वायु आदि ईश्वर की ओर से भेजे गए वेद के ईश्वरीय वाणी के होने पर विश्वास करना चाहिए या नहीं ? ठीक इसी तरह ईश्वर के रान्देष्टओं गुख्य रूप से सय्यदुल अम्बिया हज़रत मुहम्मद सल्ल 0 पर हमें विश्वास है । पंडित जी ! ईश्वर के काम जितने भी दुनिया में हैं वे इसी प्रकार के हैं कि ईश्वर ने उनके कारण पैदा कर दिए हैं । इसी प्रकार बन्दा के पथ प्रदर्शन के लिए भी उसने यह नियम बनाया हुआ है कि यथा अवसर व जरूरत अपन दा में से जिसे इस उच्च पद के योग्य समझता है ( अग्नि , वायु , ब्रहमा हों या मूसा , ईसा और मुहम्मद सल्ल 0 हों नियुक्त कर देता है । पाठक गणों ! पंडित जी अपने अहं में घिरे हैं । इस अवसर पर एक स्थान का हवाला देना उचित मालूम होता है ताकि आप लोगों को विश्वास हो जाए । सत्यार्थ प्रकाश के तेरहवें अध्याय में पंडित जी ने ईसाइयों से जंग आरंभ कर रखी है इसमें से न 0 28 का वाक्य हम ठीक वहीं नकल करते हैं ताकि पाठक इस हीरो ( कौम के नायक ) को न्याय की दाद देने के योग्य हो जाएं ।
” खुदा वंद मेरा खुदा अबराहाम का खुदा मुबारक है जिसने मेरे पति को अपनी दयालुता और अपनी कृपा से खाली न छोड़ा खुदावन्द ने मुझे मेरे पति के भाइयों के घर की ओर मार्ग दिखाया । ” मतलब इस वाक्य का यह है कि हज़रत इबराहीम ( अलैहि 0 ) ने अपने एक नौकर को अपने बेटे इसाहक की शादी अपनी बिरादरी में करने के लिए भेजा और पता बताया अतएव वह नौकर वहां सफल हुआ और ये शब्द शुक्रिए के लिए कहे । इस पर पंडित जी अपनी समीक्षा करते हैं ।
” क्या वह अबराहाम ही का खुदा था ? और जिस प्रकार कल बेगारी या मार्गदर्शक मार्ग दर्शन करते हैं वैसा ही खुदा ने भी किया होगा । लेकिन आज कल रास्ता क्यों नहीं दिखाता और आदमियों से बातें क्यों नहीं करता । इसलिए साबित हुआ कि ऐसी बातें ईश्वर की या ईश्वर की किताब की कभी नहीं हो सकतीं बल्कि जंगली आदमियों की है । ” ( न 028 ) ईसाइयो ! कहां हो ? देखा खुदा ने सय्यदुल अम्बिया सल्ल 0 का तुम से बदला लेने वाला कैसा पैदा किया ।
[1- अग्नि , वायु आदि ईश्वरीय वाणी वाले वेद के बारे में हमें चूकि कुछ पता नहीं इसलिए संभव है कि भले और सदाचारी हों मगर विश्वास से नहीं कह सकते क्योंकि इनके हालात का हमें कुछ पता नहीं । मुजद्दिद अल्फ सानी ( रह ) का कथन भी यही है । ]
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( 54 )
” ऐ ईमान वालो सब्र करो । आपस में रोके रखो और लड़ाई में लगे रहो और अल्लाह से डरो कि तुम छुटकारा पाओ । ”
आपत्ति
यह कुरआन का खुदा और रसूल दोनों लडाकू थे जो जंग का आदेश देता है वह शान्ति में गड़बड़ी डालता है । क्या थोडा बहुत नाम मात्र को अल्लाह से डरने पर रिहाई हो सकती है ? या अधर्म की जंग आदि करने के डर से । यदि पहली बात ठीक है तो डरना न डरना बराबर है और यदि दूसरी बात ठीक है तो यही सही ।
आपत्ति का जवाब
बड़ा ही पापी है वह मनुष्य जिसका अपना घर शीशे का हो और वह दूसरों पर पत्थर बरसाए मगर क्या करें ? ” हठ धर्मी की अंधेरों में फंस कर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
जिहाद और जंग का विस्तृत उल्लेख न 0 2 में आया है । यहां केवल मनु जी का आदेश सुनाते हैं जिसको स्वामी जी ने भी अनुसरण योग्य समझ कर नकल किया है । सुन लीजिए । ” जब मालूम हो जाए कि तुरन्त लड़ाई करने से थोड़ी बहुत तकलीफ़ पहुंचेगी और बाद में करने से अपनी सफलता और विजय अवश्य होगी तब शत्रु से सन्धि करके उचित समय तक सब्र करे । ” ( क्यों न हो मतलब बरी बला है- लेखक )
” जब अपनी सारी जनता या सेना को अत्यन्त दर्जा सम्पन्न , प्रगति शील हो जाने और वैसा ही अपने को भी समझे तब शत्रु से जंग कर ले ।
” और आगे सुनिए । ”
जब अपनी सम्पूर्ण शक्ति अर्थात सेना को सम्पन्न और ठीक ठीक देखे और शत्रु की ताकत इसके विपरीत कमजोर हो जाए तब शत्रु की ओर जंग करने के लिए कूच करे । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 206 , अध्याय 6 न 0 47 )
समाजियो मुंह न छुपाओ । साफ कह दो कि हुआ क्या ? आखिर स्वामी जी और मनु जी आर्य समाज के एक सदस्य थे जिनसे गलती होना संभव है यदि तुम यह जवाब दोगे तो हम से लिखवा लो कि हम तुम को वाक्य नम्बर 2 की ओर कभी ध्यान आकृष्ट नहीं करांएगे । अल्लाह से डरने का यह मतलब है कि उसके आदेशों का पालन किया जाए और बुराइयों से बचा जाए । ईश्वर स्वयं सदाचारियों की प्रशंसा करके बताता है कि अल्लाह से डरने वाले कौन हैं ? सुनिए । ” ईश्वर से डरने वाले लोग वे हैं जो ईश्वर पर और पिछले दिन के जीवन पर और फरिश्तों और अल्लाह की किताबों पर और रसूलों पर ईमान लाएं और अल्लाह के प्रेम में गरीब , नातेदारों , यतीमों , फकीरों , मुसाफिरों और मांगने वालों को दें और गुलाम आजाद कराने में खर्च करें । नमाज़ पढ़ें , जकात दें , वायदा पूरा करें और कष्टों और मुसीबतों और जंग के अवसर पर दृढ़ रहें । यही लोग ईमान के दावे में सच्चे हैं और अल्लाह से डरने वाले सदाचारी ( सूरह बकरा -177 )
परन्तु अफसोस !
” जो लोग अवसर व उचित स्थान न देखें न आगे को पीछे से संबंध जोड़ने दें ऐसे नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही 1
कोई ज्ञान नहीं होता । ( भूमिका पृष्ठ -52 )
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( 55 )
” सूरह निसा , यह अल्लाह की सीमाएं हैं और जो कोई हुक्म माने अल्लाह और उसके रसूल का , दाखिल करेगा उसे जन्नतों में , चलती हैं नीचे उनके नहरें सदैव रहने वाली बीच उनके । और यह है मुराद पाना बड़ा और जो कोई अवज्ञा करे अल्लाह की और उसके रसूल की और सीमाओं को फलांग जाए , उसे दाखिल करेगा आग में सदैव रहने वाली बीच उसके और उसके लिए है यातना अपमानित करने वाली । ( आयत – 12-13 )
आपत्ति
अल्लाह ने स्वयं ही मुहम्मद साहब को अपना साझी बना लिया है और स्वयं कुरआन ही में यह बात लिख दी है और देखो अल्लाह रसूल के साथ कैसा फंसता है कि जिसने जन्नत में रसूल का साझा कर लिया है । किसी एक बात में भी मुसलमानों का अल्लाह खुद मुख्तार नहीं तो ला शरीक कहना व्यर्थ है । लेकिन ऐसी बातें अल्लाह की बनाई हुई किताब में कदापि नहीं हो सकतीं ।
आपत्ति का जवाब
कैसा पापी और अक्ल का दुश्मन है वह व्यक्ति जो वाचक के विरुद्ध कलाम की मन्शा का अर्थ बताता है ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 7 )
जी में तो आता है कि स्वामी जी की बातों पर अमल करें । कभी बिना पूछे या अन्याय से पूछने वाले को अर्थात जो धोखे से पूछता है उसे जवाब न दें उसके सामने बुद्धिमान व्यक्ति शिथिल वस्तु की तरह खामोश रहे । ” नकल मनु स्मृति ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 350 समलास 10 न 0 3 )
मगर अल्लाह का आदेश । “ समझा दे ताकि कोई व्यक्ति अपने बुरे कर्मों के कारण विनष्ट न हो । ” ( अनआम -70 ) की दृष्टि से पाठकों को न 0 21 , 53 की ओर ध्यान दिलाते हैं ।
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( 56 )
” और कण बराबर भी अल्लाह जुल्म नहीं करता और यदि हो नेकी दुगना करेगा उसको । ” ( आयत -38 )
आपत्ति
यदि एक कण भर अल्लाह अन्याय नहीं करता तो अच्छाई का सवाब व गुनाह क्यों देता है ? और मुसलमानों का पक्ष क्यों लेता है ? निश्चय ही कर्मो का दुगना या पूरा फल न देने से अल्लाह अन्यायी ठहरता है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! आपने बड़ी गलती खायी । मुनाज़रा को समाज मन्दिर समझ गए कि जिस प्रकार अनाप शनाप समाज में बक देने पर कोई पूछ ताछ नहीं इसी तरह मैदाने जंग में भी होगी मगर यह कभी न सुना था कि ।
संभल कर पांव रखना मयकदा में सरस्वती साहब यहां पगड़ी उछलती है इसे मयखाना कहते हैं
किसी भले मजदूर की निष्ठा की दृष्टि से निर्धारित मजदूरी से अधिक देना किस न्याय के विरुद्ध है ? विस्तृत जवाब वाक्य न 0 22 में देखें । नाम के मुसलमानों का कोई सम्मान नहीं बल्कि धर्मी का सम्मान है सुनो ! ” मुसलमानो ! नजात ( मुक्ति ) न तुम्हारी इच्छाओं पर है न किताब वालों की इच्छा पर कोई बुरा काम करेगा तो उसकी सजा पाएगा । ” ( सूरह निसा 123 )

” तुम में से बड़ा सम्मानित वह है जो अल्लाह से डरता हो । ” ( सूरह हुजरात 13 )
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( 57 )
” जब तेरे पास से बाहर निकलते हैं मश्वरा करते हैं सिवाए उस चीज के कि कहता है तू और अल्लाह लिखता है जो मश्वरा करते हैं और अल्लाह ने उल्टा किया उसे उस चीज की वजह से कि कमाया उन्होंने । क्या इरादा करते हो तुम यह कि राह पर लाओ जिसे गुमराह किया अल्लाह ने और जिसे गुमराह करे अल्लाह तो कदापि न पाएगा तू वास्ते उसकी राह । ( आयत 79-87 )
आपत्ति
यदि अल्लाह ऐसी बातों का रोजनामचा रखता है तो वह सर्वज्ञाता नहीं है । यदि सर्व ज्ञाता है तो लिखने का क्या काम है और मुसलमान कहते हैं । शैतान ही सबको बहकाने के कारण फटकारा हुआ है तो जब अल्लाह ही मनुष्यों को गुमराह करता है तो फिर अल्लाह और शैतान में क्या फर्क रहा ? हां इतना फर्क कह सकते हैं कि अल्लाह बड़ा शैतान और वह छोटा शैतान , क्योंकि मुसलमानों ही का कथन है कि जो बहकाता है वही शैतान है तो इस उसूल से अल्लाह को भी शैतान बना दिया ।
आपत्ति का जवाब
जिस शब्द पर स्वामी जी को संदेह है वे शब्द ये हैं ।
वल्लाहु यकतुबू मा युबय्यतून । ( निसा 81 )
जिसका शाब्दिक अनुवाद यही है जो पंडित जी ने नकल किया है मगर हम कई जगह बता आए हैं और पंडित जी के हस्ताक्षर भी कर आए हैं कि “ जहां असली मायना मुश्किल हों वहां वास्तविक होते हैं । अतः खुदा का लिखना क्या मायना अर्थात वह उनको बदला देगा । बाकी शैतानी बातों का जवाब वाक्य न 0 11 व न 0 32 में दिया जा चुका है ।
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( 58 )
” और न बन्द करें हाथों को अपने को तो पकड़ो उनको और मार डालो जहां पाओ । और मुसलमान को मुसलमान का मारना वाजिब नहीं मगर धोखे में जो कोई मार डाले मुसलमान को तो आज़ाद करना है एक गर्दन मुसलमान की और इसका बदला सौंपी हुई तरफ़ लोगों उस के कि मगर यह कि दान कर देवें तो यदि होवे उस कौम से कि दुश्मन हैं वास्ते तुम्हारे और जो कोई मुसलमान को जान कर मार डाले । तो वह सदैव जहन्नम में रहेगा और क्रोध अल्लाह का उसके ऊपर और फटकार है । ” ( आयत – 89-91 )
आपत्ति
अब देखिए परले दर्जे के भेदभाव की बात कि जो मुसलमान न हो उसे जहां पाओ मार डालो और मुसलमानों को न मारो , भूल से भी मुसलमानों के मारने में जहन्नम और गैरों के मारने से जन्नत मिलेगी । ऐसी शिक्षा कुएं में डालनी चाहिए । ऐसी किताब , ऐसे रसूल और ऐसे धर्म से सिवाय हानि के लाभ कुछ भी नहीं । इनका न होना अच्छा है ऐसे जाहिलाना धर्मो से बुद्धिमानों को अलग रह कर वेदों की शिक्षा एवं आदेशों को मान लेना चाहिए क्योंकि इनमें झूठ कण भर भी नहीं है ।
तुम कहते हो कि जो मुसलमान को मारे उसे जहन्नम मिलेगी और दूसरे धर्म वाले कहते हैं कि जो मुसलमान को मारे उसे जन्नत मिलेगी । अब बताओ कि इन दोनों धर्मों में से किस को स्वीकारें और किसे छोड़ें । ऐसे जाहिलों के मनगढ़त धर्मों को छोड़कर वेदों के मत ही समस्त मनुष्यों के स्वीकारने योग्य है जिसमें आर्य मार्ग अर्थात भले लोगों के मार्ग पर चलने और बुरे लोगों के मार्ग से बचने की शिक्षा दी गयी है और वही सब से श्रेष्ठ है ।
आपत्ति का जवाब
इस वाक्य में तो पंडित जी बड़े घबराए हुए मालूम होते हैं । 1महाराज खैर ( ठीक ठाक ) तो है ऐसे क्यों घबराए । क्या सवेरे सवेरे किसी मुसलमान का मुंह देख लिया । विस्तृत जवाब न 0 2 आदि अवसरों पर हम लिख आए हैं यहां केवल स्वामी जी के इस वाक्य की पुष्टि करते हैं कि ऐसी किताब , ऐसे ईश्वर और ऐसे धर्म से सिवाए हानि के लाभ कुछ भी नहीं । सुनिए ! कुरआन भी आपकी पुष्टि करता है ।
” हम ( खुदा ) कुरआन को लोगों के लिए शिफा नाजिल करते हैं और मोमिनों के लिए दयालुता मगर अन्यायियों को सिवाए हानि के कुछ भी नसीब नहीं होता । ( सूरह बनी इसराईल ‘ – 82 )
समाजियो ! आओ हम तुम्हे स्वामी जी की बेसमझी या झूठ बता दें । कुरआन मजीद के अनुवाद में वह शब्द देखो जिस पर हमने मार्क कर दिया और अपने स्वामी की आपत्ति में भी मार्क वाले शब्दों को देखिए न देखते हो न समझते हो तो सुनो ! कुरआन में है ” जान कर मारे ” और स्वामी जी कहते हैं भूल कर भी मार दे ” जहन्नम है । क्या अब भी इसमें कोई संदेह है ? कि ज़िद्दी और पक्षपाती जो बुद्धि खो देते हैं वाचक के खिलाफ कलाम की मन्शा के अर्थ किया ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
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( 59 )
” और जो कोई करे बर खिलाफ रसूल के पीछे इसके कि ज़ाहिर होवे वास्ते उस के हिदायत और अनुसरण करे सिवाए राह मुसलमानों के ज़रूर हम उसे जहन्नम में दाखिल करेंगे । ” ( आयत -113 )
आपत्ति
अब देखिए अल्लाह और रसूल के पक्षपात की बातें । मुहम्मद साहब आदि समझते थे कि यदि हम अल्लाह के नाम से ऐसी बातें न लिखेंगे तो अपना धर्म उन्नति न कर पाएगा और माल न मिलेगा सुख वैभव नसीब न होगा । इससे स्पष्ट होता है कि वह अपना मतलब निकालने और दूसरों के काम बिगाड़ने में पूरे उस्ताद थे इसी वजह से कहा जा सकता है कि वे झूठ के मानने वाले और झूठ पर चलने वाले होंगे । भले सदाचारी विद्वान उनकी बातों को प्रमाणिक नहीं मान सकते ।
आपत्ति का जवाब
” जो कोई दूसरे धर्म को जिसे करोड़ों आदमी मानते हों झूठ कहे उससे बड़ा झूठा कौन है ? ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 697 अध्याय 14 न 073 )
पंडित जी ! कैसी पक्ष पातियों की सी बात है कि जो वेद को न माने वह नास्तिक ( अधर्मी ) है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 247 , रामलास 10 न 0 1 )
और सुनिए ।
” जो कोई पूछे कि तुम्हारा अकीदा क्या है तो यही जवाब देना चाहिए कि हमारा अकीदा वेद है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 272 समलास 7 10 81 ) विस्तृत जवाब पहले नम्बरों में कई जगह आ चुका है ।
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( 60 )
” जो अल्लाह के फ़रिश्तों किताबों , रसूलों और कयामत के साथ कुफर करे बेशक वह गुमराह है । बेशक जो लोग ईमान लाए फिर काफिर हुए फिर ईमान लाए फिर काफ़िर हुए फिर कुफ्र में अधिक बढ़ गए कदापि अल्लाह उनको नहीं क्षमा करेगा । और न राह दिखाएगा । ” ( आयत 134-135 )
आपत्ति
क्या अब भी ला शरीक रह सकता है ? क्या ला शरीक कहते जाना और उसके साथ बहुत से शरीक भी मानते जाना हठ धर्मी नहीं ! क्या तीन बार क्षमा करने के बाद अल्लाह क्षमा नहीं करता ? और तीन बार कुफ्र करे तो कुपर बहुत बढ़ जाए ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी के बहुदेव वाद का विस्तृत जवाब न। 21 , 53 और न । 85 आदि में देखिए । दूसरे हिस्स में भी आपने भूमिका पृ 0 52 पर अमल नहीं किया ।
” हर बात के लिए संदर्भ व अवसर को ठीक से पहचानना और आगे पीछे सोच विचार करना आवश्यक है । ” ( भूमिका -१० 52 )
सुनिए इस आयत की टीका अल्लाह ने दूसरे स्थान पर स्वंय कर दी है ध्यान से सुनिए । ” कुफ्र ही पर मर जाएगा तो दुनिया व आखिरत में उसके सारे कर्म नष्ट हुए । ” ( बकरा 217 )
अतः तीन और चार की संख्या तात्पर्य नहीं बल्कि अंजाम की दृष्टि से यद्यपि विषय साफ है मगर इसका इलाज हो कि पंडित जी के कथना नुसार
” नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृ 0 52 )
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( 61 )
” बेशक अल्लाह जमा करने वाला है कपटियों और काफिरों को जहन्नम में बेशक कपटी धोखा देने वाले हैं । अल्लाह को और वह धोखा देने वाला है उन को । ऐ लोगो ! जो ईमान लाए हो मुसलमानों के सिवा काफिरों को दोस्त मत बनाओ । ” ( आयत- 138-140 )
आपत्ति
मुसलमानों के जन्नत में और दूसरे लोगों के जहन्नम में जाने का क्या सबूत है । वाह जी वाह । यदि खुदा कपटियों के धोखे में आता है और दूसरों को धोखा देता है तो ऐसा खुदा हम से वह धोखे बाज़ों से जाकर मिले और धोखे बाज उसे मिलें क्योंकि जैसे को तैसा , तभी गुजारा होता है । जिनका खुदा धोखेबाज है उसके श्रद्धालु धोखेबाज़ क्यों न हो ? क्या बदकार मुसलमान से दूर रहे  । वह धोकेबाज़ों से जा कर मिले और धोके बाज़ उसे

मिलें क्योंकि जैसे को तैसा, तभी गुज़ारा होता है । जिन का खुदा धोखेबाज़ है उसके श्रद्धालु धोखेबाज़ क्यों न हों ? क्या बदकार मुसलमान से दोस्ती और गैर धर्म के अच्छे लोगों से दुश्मनी करना किसी को वाजिब है ?

आपत्ति का जवाब
मुसलमानों के जन्नती होने का वही सबूत है जो आपके इस वाक्य का सबूत है कि– ” जो कोई पूछे कि तुम्हारा अकीदा क्या है तो यही जवाब देना चाहिए कि हमारा अकीदा वेद है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 272 समलास 7 न 0 81 )
और सुनिए एक बड़ा सबूत मुसलमानों के जन्नत में जाने का यह है कि मुसलमानों के धर्म पर कोई आपत्ति नहीं आती क्योंकि जो आपत्तियां आती थीं वे यही कुछ कायनात हैं जो आपने की हैं जिनकी आवभगत आर्यों ने देख ली है । विस्तृत सबूत देखना हो तो हमारा मुबाहेसा ” इल्हामी किताब ” और ” तकाबुल सलासा ” तौरेत इंजील और कुरआन का मुकाबला गौर से पढ़ो । खुदा न तो किसी के धोखे में आता है और न किसी को धोखा देता है बल्कि असल यह है कि
” केवल मंत्र ( या आयत ) सुनकर मात्र दलील से मंत्रों ( और आयतों ) के मायना बयान कर देना काफी नहीं है बल्कि हमेशा अवसर व स्थान के हिसाब से आगे व पीछे के सबंध व सर्पक को देखकर मायना करने चाहिए । ” ( भूमिका पृ 0 52 )
अतः आयत का साफ मतलब है कि कपटी अपने ईमान को प्रकट करके अल्लाह के रसूल को धोखा देते हैं अल्लाह उनको इस धोखे की सजा देगा ।
पहले वाक्य में हमने खुदा के शब्द से खुदा का रसूल तात्पर्य लिया है इसे अरबी भाषा में हजफ मुजाफ कहते हैं इसके यह मायना हैं कि मिश्रण शब्द से ख्याति की वजह से एक हिस्से को अलग कर देते हैं जैसे आर्य समाज की जगह समाज ही बोला जाता है मगर हां ऐसे इस्तेमाल के लिए कोई करीना आवश्यक होता है इसका अर्थ यह नहीं जैसे कुछ हठ धर्मियों [ 1- पंडित लेखराम लेखक के झूठ की ओर इशारा है । ]
ने गलत समझे हैं कि मुज़ाफ इलैह से तात्पर्य मुज़ाफ़ है नहीं , बल्कि मुजाफ़ वहां हज़फ़ होता है । इसका दूसरा उदाहरण अरबी में लेना चाहो तो सुनो ।
“ व जाहिदू फिल्लाहि ” जिसका शाब्दिक अनुवाद है “ अल्लाह में जिहाद करो ” मगर मुज़ाफ़ है अर्थात ( फ़ी सबीलिल्लाहि ) ” अल्लाह की राह में जिहाद करो । अतः ठीक इसी तरह इस आयत इन्नल मुनाफिकूना युखादिशूनल्लाहि ( सूरह निसा 142 ) का यह मायना हैं कि कपटी अल्लाह के रसूल को धोखा देते हैं । इस मायना की बात यह है कि एक और स्थान पर अल्लाह ने इस धोखे का उल्लेख किया है तो खास पैगम्बर साहब को धोखा का शिकार बताया है सुनो ।
” कुछ लोगों ( कपटियों ) की बातें दुनिया में भली मालूम हों और वे तेरी मुहब्बत और निष्ठा पर अल्लाह को गवाह बनाते हैं यद्यपि वे सख़्त दुश्मन हैं । ” ( सूरह बकरा 204 )
दूसरा करीना इस वजह का वह आयत है जहां पर अल्लाह ने इस धोखा के बारे में मुसलमानों का उल्लेख किया है और रसूल का उल्लेख नहीं किया बल्कि बजाए रसूल के स्वयं अपना नाम लिया है । सुनो ।
” युखादिशूनल्लाह वल्लजीन आमनु ” ( बकरा -9 ) अल्लाह को ( अर्थात खुदा के रसूल को ) और ईमानदारों को धोखा देते हैं इसलिए कि जो मामला दूत से दूत की हैसियत से होता है वह हकीकत में दूत भेजने वाले से नहीं होता है कौन नहीं जानता कि डिपटी कमिशनर से जो राज्य का साधारण अफसर है कोई सन्धि या विद्रोह करे वह ठीक राज्य और राज्य के मालिक से है चाहे इस सन्धि की या विद्रोह की उसे खबर भी न हो । यही मायना हैं इस आयत के जिस पर पक्षपातियो ने अपने पक्ष पात का सबूत दिया है कि मुहम्मद को आखिर कार खुदा बनने का शौक हुआ था । सुनो वह यह है ।
” वे लोग जो तुझ से ( ऐ रसूल ) बैअत करते हैं वे अल्लाह से ( बैअत ) करते हैं । अल्लाह का हाथ उनके हाथों पर है । ” ( सूरह फतह – 10 )
खुदा के संबंध में धोखा का शब्द भी इसी प्रकार उल्लेखनीय है क्योंकि धोखा जो कमजोर बलवान से करता है उसकी संभावना अल्लाह की निसबत नहीं हो सकती । अल्लाह स्वयं फ़रमाता है । व हुवल काहिरू फव क इबादिही ( सूरह अनआम -18 )
” वह अपने सब बन्दों पर छाया हुआ है । ” अतः मालूम हुआ कि धोखा देना जो कमज़ोरी से होता है अल्लाह की निसबत सही नहीं अतः उसके मायना यही सही हैं कि अल्लाह उनको इनकी सज़ा देगा । स्वामी जी ! भूमिका पृ 0 52 पर हमने अमल किया या तुमने अपने कहे हुए पर स्वयं ही अमल न किया । कहो जी ! कौन धर्म है ? मुसलमानों की दोस्ती और गैरों से दुश्मनी का जवाब न 0 48 में देखिए ।
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( 62 )
” ऐ लोगो ! निस्संदेह आया तुम्हारे पास सन्देष्टा हक के साथ तुम्हारे पालनहार से , अतः ईमान लाओ अल्लाह पर जो उपास्य अकेला है । ” ( आयत 166–167 )
आपत्ति
क्या जब सन्देष्टाओं पर ईमान लाना लिखा तो ईमान में सन्देष्टा अल्लाह का साझी हुआ या नहीं । अल्लाह सीमित स्थान वाला है सर्व व्यापक नहीं तब ही तो उसके पास सन्देष्टा आते जाते हैं । ऐसा तो खुदा नहीं हो सकता । कहीं सर्व व्यापक लिखते हैं कहीं सीमित स्थान वाला । इससे स्पष्ट होता है कि कुरआन एक व्यक्ति का बनाया हुआ नहीं है बल्कि बहुत से लोगों ने बनाया है ।
आपत्ति का जवाब
बड़ा पापी है वह मनुष्य जो वाचक के कलाम की मन्शा के खिलाफ मायना निकाले । ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 ) विस्तृत जवाब के लिए न 0 21 , न 0 53 , न 0 55 , न 0 122 आदि देख लीजिए ।
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( 63 )
सूरह मायदा । ” तुम पर हराम किया गया मुर्दार , रक्त सुअर का मांस , जिसपर अल्लाह के सिवा कुछ और पढ़ा जाए , गला घोंटे , लाठी मारे , ऊपर से गिर पड़े , सींग मारे और दरिंदे का खाया हुआ । ” ( आयत -2 )
आपत्ति
क्या इतनी ही चीजें हराम हैं ? और बहुत से हैवान कीड़े मकौड़े आदि मुसलमानों के लिए हलाल हैं । ये सारी बातें मनुष्य की गढंत हैं ईश्वर की नहीं । इसलिए प्रमाणिक ही नहीं ।
आपत्ति का जवाब
क्या ही उचित सवाल है पंडित जी ! आप तो बताइए कि सिवाए मांस और अंडों जैसे स्वादिष्ठ आहार के आर्यों पर कुछ और चीजें भी हराम हैं ? शेष न 0 33 में देखिए ।
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( 64 )
” और कर्ज दो अल्लाह को अच्छा अलबत्ता मैं तुम्हारी बुराई दूर करूंगा और तुम्हें जन्नतों में दाखिल करूंगा । ” ( आयत -11 )
आपत्ति
वाह जी वाह , मुसलमानों के खुदा के घर में कुछ भी दौलत नहीं रही होगी । यदि होती तो कर्ज क्यों मांगता ? और उनको क्यों बहकाता । यह कह कर कि तुम्हारी बुराई दूर करके तुम को जन्नत में भेजूंगा । इस से स्पष्ट होता है कि अल्लाह के नाम से मुहम्मद साहब ने अपना मतलब निकाला है ।
आपत्ति का जवाब
” जो लोग आगे पीछे संदर्भ एवं अवसर को न समझें ऐसे नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका – पृ 0 52 ) विस्तृत जानकारी न 0 39 में देख लीजिए ।
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( 65 )
” बख्शता है जिसे चाहता है और यातना देता है जिसे चाहता है और दिया तुम को कुछ न दिया किसी को । ” ( आयत – 17-18 )
आपत्ति
जिस प्रकार शैतान जिसे चाहता है गुनाहगार बनाता है वैसे ही मुसलमानों का खुदा भी शैतान का काम करता है ? यदि ऐसा है तो फिर जन्नत और जहन्नम में अल्लाह ही जाए क्योंकि वह गुनाह व सवाब का कराने वाला है । आत्माएं दूसरे की मोहताज हैं जिस तरह कि सेना अपने सेनापति के अन्तर्गत रहती और उसके आदेश से किसी को मारती हैं तो इस हालत में भलाई एवं बुराई सेनापति को होती है सेना को नहीं ।
आपत्ति का जवाब
अल्लाह की इच्छा व इरादा का जवाब न 0 40 में दे आए हैं अलबत्ता इस वाक्य का कि वह ( खुदा ) ” गुनाह व सवाब कराने वाला है जवाब सार में यहां प्रस्तुत करते हैं । स्वामी जी सुन लीजिए ।
परमेश्वर आदेश देता है और उस आदेश से पहले आप भूमिका में लिखते हैं कि
” उस ईश्वर के पथ प्रदर्शन दिखाए हुए धर्म को मानना हर मनुष्य पर समान अनिवार्य है और चूंकि उसकी मदद के बिना सच्चे धर्म का ज्ञान और पाबन्दी और पूर्ति व सफलता नहीं हो सकती इसलिए हर मनुष्य को ईश्वर से इस प्रकार मदद मांगनी चाहिए । ‘ ( भूमिका पृ 0 60 )
इससे आगे यजुरवेद का मंत्र दुआ वाला प्रस्तुत है जो हमने न 0 22 में दिया है । तो बताइए कि जब परमेश्वरी पथ प्रदर्शन पर अमल करना बिना उसकी मदद के नहीं हो सकता तो गुनाह व सवाब कराने वाला कौन हो ? वही निराकार सचदानन्द सर्वशक्तिमान वहदहु ला इला ह इल्ला हू फिर भी हम यही कहेंगे कि आपने अल्लाह के इरादा के मायना जिससे यहां का शब्द यशा ऊ वर्तमान काल निकला है आप नहीं समझे । तनिक न 0 40 फिर दोबारा ध्यान से पढ़िए ।
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( 66 )
” और आज्ञा पालन करो अल्लाह का और कहा मानो रसूल का । ” ( आयत -90 )
आपत्ति
देखिए ! यह बात ईश्वर के साझी होने की है फिर ईश्वर को ला शरीक मानना व्यर्थ है ।
आपत्ति का जवाब
व्यर्थ की बातों का जवाब बार बार नहीं दिया जाता । न 0 21,53 , 55 आदि देख लीजिए ।
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( 67 )
” माफ किया अल्लाह ने उस चीज़ से जो कि गुजरा और जो कुछ फिर करेगा । ता बदला लेगा अल्लाह उससे । ” ( आयत -93 )
आपत्ति
किए हुए गुनाहों का माफ करना मानो गुनाहों को कम करने का आदेश देकर बढ़ाना है । गुनाह माफ करने का उल्लेख जिस किताब में हो वह न तो अल्लाह का कलाम है और न किसी विद्वान की किताब बल्कि गुनाहों को बढ़ाने का सबब है । हां भविष्य में गुनाहों से बचने के लिए किसी से दुआ और स्वयं छोड़ने के लिए कोशिश व तौबा करना वाजिब है लेकिन यदि केवल तौबा ही करता जाए और छोड़े नहीं तब भी कुछ नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी की तो आदत है कि एक ही बात की बे फायदा तकरार करते हैं तौबा के बारे में विस्तृत जवाब न 0 22 में देखें ।
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( 68 )
सूरह अनआम और उस आदमी से अधिक गुनाहगार कौन है जो अल्लाह पर आरोप लगाता है और कहता है कि मेरी तरफ वहय की गयी है लेकिन उसकी तरफ वहय नहीं की गयी और कहता है कि मैं भी उतार दूंगा जैसे अल्लाह उतारता है । ” ( आयत -98 )
आपत्ति
इस बात साबित होता है कि जब मुहम्मद साहब कहते थे कि मुझ पर अल्लाह की तरफ से वहय उतरती है तो किसी दूसरे ने भी मुहम्मद साहब की तरह लीला रची होगी कि मेरे पास भी आयतें उतरती हैं । मुझको भी पैगम्बर मानो । उसको हटाने और अपना सम्मान बढ़ाने के लिए मुहम्मद साहब ने यह तदबीर की होगी ।
आपत्ति का जवाब
निस्संदेह मेसैलमा कज्जाब ( झूठे ) ने यमामा में नुबुवत का दावा किया था और आप उस समय होते तो जैसी कुछ आपकी सत्य से दुश्मनी साबित है पूरी पूरी संभावना है कि आप मेसैलमा कज्जाब से बढकर नुबुवत के दावेदार होते लेकिन हम आपको उस समय भी यही दोस्ताना नसीहत करते कि आपकी यह कोशिश बेकार है । मगर आयत का मतलब यह नहीं बल्कि आपके भाई बिरादर अरब के इन्कारी नबियों के सरदार भी झुठलाया करते थे और कहते थे कि इसको तो वहय पहुंचती नहीं । यू ही अपने पास से गढ़ लेता है । इनके जवाब में यह आयत उतरी थी लेकिन चूंकि आप अरबी पाठ शाला में विद्यार्थी नहीं रहे इसलिए मन गढ़त बातें बनानी आती हैं क्यों न हो । ” नापाक बातिन वालों को ज्ञान कहां ? ” ( भूमिका पृ 0 52 )
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( 69 )
सूरह आराफ- “ बेशक पैदा किया हमने तुमको फिर सूरतें बनायीं हमने तुम्हारी और कहा हमने वास्ते फ़रिश्तों के कि आदम को सज्दा करो । अतः उन्होंने सज्दा किया मगर इबलीस सज्दा करने वालों में से न हुआ । कहा जब मैंने तुझे हुक्म दिया फिर किसने रोका कि तूने सज्दा न किया । कहा मैं इससे बेहतर हूं । तूने मुझे आग से और इसे मिट्टी से पैदा किया । कहा बस उतर इसमें से । अतः नहीं लायक वास्ते तेरे यह घमंड करे तू बीच इसके । तो बेशक तू अपमानितों में से है । कहा ढील दे मुझको उस दिन तक कि कब्रों से उठाए जाएं । कहा ढील दिए गए हुओं में से है । कहा तो कसम है उसकी कि गुमराह किया तूने मुझे अलबत्ता बैलूंगा मैं वास्ते इनके तेरे सीधे रास्ते पर और अधिकांश तू इनमें शुक्र करने वाला न पाएगा । और कहा इससे बुरे हाल से निकल भटकता हुआ अलबत्ता जो कोई अनुसरण करेगा तेरा इनमें से अलबत्ता भर दूगा जहन्नम को तुम सब से । ” ( आयत – 9-15 )
आपत्ति
ध्यान से खुदा और शैतान के झगड़े सुनिए । एक फ़रिश्ता जैसा कि चपरासी होता है होगा वह भी खुदा से न दबा और खुदा उसकी रूह को भी पाक न कर सका फिर ऐसे बागी को जो सबको गुनाहगार बनाकर उज्र ( बहाना ) करने वाला है खुदा ने छोड़ दिया । खुदा की यह सख्त गलती है कि शैतान सबको बहकाने वाला और खुदा शैतान को बहकाने वाला होने से यह साबित होता है कि शैतान का शैतान खुदा है क्योंकि शैतान मुंह पर कहता है कि तूने मुझे गुमराह किया । इससे खुदा में पाकीजगी भी नहीं पाई जाती और सारी बुराइयों के पैदा होने का सबब खुदा हुआ । ऐसा खुदा मुसलमानों ही का हो सकता है दूसरे सज्जन विद्वानों का नहीं और मुसलमानों का खुदा फ़रिश्तों से मनुष्य की भान्ति बात चीत करने से साकार अल्प बुद्धि , अन्यायी साबित होता है इसीलिए विद्वान इस्लाम धर्म को पसन्द नहीं करते ।
आपत्ति का जवाब
” बड़ा पापी है वह मनुष्य जो वाचक की मन्शा के विरुद्ध मायना ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
अपराधी का हाकिम के सामने अपना मुकदमा प्रस्तुत करने का नाम झगड़ा रखना स्वामी जी या उनके चेले पंडित लेख राम की समझ का नतीजा है ।
स्वामी जी ! अभी तो पिछले नम्बरों में आप तौबा कुबूल होने पर सख्त नाराज़ हैं यहां कहते हैं कि ” खुदा उसकी आत्मा को पाक न कर सका । ” तौबा की स्वीकृति बिना पवित्रता के कैसी ? क्या तौबा कुबूल होकर गुनाहों की माफ़ी को मानते हो ? यदि इस्लामी नियम पर सवाल है तब भी गलत क्योंकि इस्लामी नियमानुसार पाक होने के लिए तौबा और लज्जित होना शर्त है जो शैतान ने नहीं किया तो आप ही बताएं कि वाचक की मन्शा के खिलाफ अनुवाद करना हठ धर्मियों का काम है या किसी और का ?
बाकी शैतानी बातों का जवाब न 0 32 में देख लें , हां यह भली कही कि मुसलमानों का खुदा फ़रिश्तों से मनुष्यों की भान्ति बात करने से साकार अल्प बुद्धि व अन्यायी साबित होता है ।
स्वामी जी सुनिए ! ईश्वर आदेश देता है ।
” ऐ इन्सानों ! जो व्यक्ति मानव परिधि में उच्चतम तेज व प्रताप रखता हो । ” ( यजुर वेद )
और सुनिए ! ईश्वर पथप्रदर्शन करता है कि ।
” ऐ आज्ञा पालकों ! तुम्हारे अग्नि वाले हथियार । ‘ ( ऋगवेद सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 181 समलास 6 न 0 5 , 6 , 7 )
स्वामी जी ! यहां पर परमेश्वर इतनी ही बातें बनाने , सर्कुलर पारित करने से भी अल्पबुद्धि और अन्यायी साबित हुआ या नहीं ?
प्रिय पाठकों ! हम सिफारिश करते हैं कि पंडित जी को ऐसे उचित सवाल करने में विवश समझए आखिर वह तो एक मनुष्य ही हैं ।
ईश्वरीय कामों के बारे में कि वे किस तरह होते हैं हम न 0 53 में बयान कर चुके हैं ।
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( 70 )
” बेशक अल्लाह तुम्हारा पालनहार है जिसने आसमानों और जमीनों को पैदा किया छः दिन में फिर करार पकड़ा उसने ऊपर अर्श को पुकारा अपने पालनहार को विनम्रता से । ” ( आयत – 50-51 )
आपत्ति
भला जो छ : दिन में दुनिया को बना दे अर्श पर तख्त पर आराम करे वह खुदा व सर्वशक्ति मान और सर्व व्यापक कभी हो सकता है ? इन गुणों के होने से वह खुदा भी नहीं कहला सकता । क्या तुम्हारा खुदा बहरा है जो पुकारने से सुनता है ? ये सारी बातें खुदा की ओर से नहीं हैं इसी से कुरआन खुदा का बनाया हुआ हो नहीं सकता । यदि छः दिन में जन्नत बनायी और सातवें दिन अर्श पर आराम किया तो थक भी गया होगा और अब सोता या जागता है ? यदि जागता है तो अब कुछ काम करता है या निकम्मा बनकर सैर सपाटा और ऐशो आराम करता फिरता है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! महीने में खेती पकती है नौ महीने में बच्चा पेट में बनता फिरता है तो सर्व शक्ति मान कभी हो सकता है ? कहिए इन गुणों के न होने से वह परमेश्वर भी कहला सकता है ? ठीक इसी तरह अल्लाह के काम हैं । अफ़सोस कि आप आपत्ति करते हुए विश्व व्यवस्था पर सोच विचार नहीं करते ।
इस्तवा अलल अर्शि ( यूनुस –30 ) का शाब्दिक अनुवाद बेशक यही है जो आपने किया है लेकिन ।
” केवल आयत सुनकर या मात्र दलील से आयतों के मायना बयान कर देना काफी नहीं है बल्कि हमेशा पृष्ठ भूमि व संदर्भ के ठीक आगे और पीछे के विषय को देखकर मायना निकालना चाहिए । ( भूमिका- पृ 0 52 )
और सुनिए ।
” जहां मायना की संभावना न हो वहां अ वास्तविक मायना लिए जाएंगे । ” ( भूमिका पृ 0 10 )
तो अब सुनिए कुरआन बताता है ।
” क्या वे लोग नहीं जानते कि जिस खुदा ने आसमानों और जमीनों को पैदा किया और उनके पैदा करने से थका भी नहीं । ” ( सूरह अहकाफ -33 )
और सुनिए अल्लाह कहता है ” उस खुदा के जैसी कोई चीज नहीं वह सुनता और देखता है । ( सूरह शूरा — 11 )
और सुनिए अल्लाह की किताब बताती हैं । न उसे ऊंघ आती है न नींद । वह जमीन व आसमान की हिफाजत से थकता नहीं और वह बहुत बुलन्द दर्जा और बड़ी महानता वाला है । ” ( सूरह बकरा 55 )
इन आयतों से साफ मालूम होता है कि अल्लाह आसमान व जमीन के पैदा करने से नहीं थका बल्कि आयत का टुकड़ा व लम यअया बिखलकिहिन्न ( अहकाफ़ -33 )
से यहूदियों और ईसाइयों की किताबों के एक गलत वाक्य का सुधार मंजूर है क्योंकि कुरआन के बारे में अल्लाह ने मुहैमिना ‘ नाम का गुण भी बताया है ( अर्थात निगहबान या रक्षक देखो न 0 5 ) वह टुकड़ा खुरूज -31 अध्याय की 17 में मौजूद है ।
” और छः दिन में खुदा ने आसमान और जमीन को पैदा किया और सातवें दिन आराम किया और ताज़ा दम हुआ ।
” तो अब इस आयत का मतलब सुनिए ! खुदा ने छः दिन में आसमान व ज़मीन और जो कुछ इनमें है पैदा किए फिर इन पर उचित शासन करना आरंभ किया अर्थात इनकी देखरेख और विनाश से रक्षा करता है ।
सुनो कुरआन बताता है ।
” इस्तवा अलल अर्शि का मायना हमने ” लोगों ( प्राणियों ) पर आदेश पारित किए हैं इसलिए कि जब कोई बादशाह किसी देश का शासन अपने हाथ में लेता है चाहे तख्त पर बैठे या न बैठे तो अरबी इस अवसर पर कहा करते थे … … इस्तवा अलमुल्कु अलल अर्श अर्थात बादशाह तख्त पर बैठा है । ( देखो किताबुल इशारा इलल ईजाज़ फी बाअज अनवाउल मजाज पृ 0 110 )
और यदि कुरआनी आयत पर सोच विचार करे तब भी यही मायना स्पष्ट रूप से समझ में आते हैं जिस आयत का अनुवाद पंडित जी ने नकल किए हैं ।
” बेशक तुम्हारा रब तो अल्लाह है जिसने आसमानों और ज़मीन को छः दिन में पैदा कर दिया । फिर अर्श पर ( अर्थात कायनात की बादशाही के तख्त पर ) स्वयं ही प्रदर्शित हुआ । वही ढांक देता है रात से दिन को जो लगातार एक एक दूसरे के आगे पीछे दौड़ते हुए आते रहते हैं और सूरज और चांद तारों को उसने अपने आदेश से काम में लगा रखा है । सचेत रहो कि पैदा करना और हुक्म चलाना केवल उसी का काम है बड़ी बरकत वाला अल्लाह है जो पालनहार है सारे जहानों का । ” ( सूरह आराफ -54 )
यदि इस अनुवाद को ही ध्यान पूर्वक देखा जाए तो यही समझ में आता है कि अल्लाह तआला अपने शासन के बारे में बयान करता है अतएव आयत के समापन पर अला लहुल खल्क वल अमरू ( सुन रखो उसी की खल्क है और उसी का हुक्म है ) इन्हीं मायना की ओर इशारा करता है और एक अवसर पर भी अल्लाह ने इस्तवा अलल अर्श के बराबर ऐसे शब्द को रखा है जो हुकूमत के मायना में है अतएव इर्शाद है- ” अल्लाह ऊपर से नीचे वालों का इन्तज़ाम करता है । ” ( सज्दा -5 )
तो इन और पूर्व के हवालों से यह साफ समझ में आता है कि इन विवादित आयत के मायना जो हमने किए हैं सही हैं । हां यदि यह सन्देह हो कि जमीन व आसमान आदि के पैदा करने से पहले अल्लाह की हुकूमत न थी तो वाक्य न 0 16 को देखिए ।
अल्लाह बहरा नहीं बल्कि आप भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 7 पर जमे हुए हैं । अल्लाह तो स्पष्ट फ़रमाता है ।
” छुपकर पुकारो या जोर से खुदा तो सीनों के भेदों से भी परिचित है । ” ( सूरह मुल्क -1 13 )
स्वामी जी ! भूमिका पृ 0 52 का मतलब केवल गैरों के लिए है आपके लिए नहीं ? अल्लाह के निकम्मा होने की बाबत एक तो आयत जो गुजर चुकी उसमें काफी जवाब है दूसरी सूरह रहमान की आयत न 0 29 कुल्ला यवमिन हुवा फी शानिन 0
” और उसकी यह शान है कि हर दिन काम में व्यस्त है । ” ( रहमान -29 )
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( 71 )
“ मत फसाद करते फिरो ज़मीन पर । ‘ ( आयत -77 )
आपत्ति
यह बात तो अच्छी है लेकिन इस के विपरीत दूसरे स्थानों पर जिहाद करना और काफिरों को कत्ल करना भी लिखा है । अब कहो क्या यह जिद व हठ धर्मी नहीं है । इससे यह स्पष्ट होता है कि जब मुहम्मद साहब पराजित हुए होंगे तब उन्होंने यह तरीका निकाला होगा और जब विजयी हुए होंगे तब झगड़ा फसाद किया होगा । इसलिए इस ज़िद व हठ धर्मी के कारण दोनों बातें सही नहीं हैं ।
आपत्ति का जवाब
” हठ धर्मी आदमी को कोर बातिन बना देती है । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
विस्तृत जवाब वाक्य 10 2 आदिम देखो ।
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( 72 )
” अतः डाल दिया असा ( लाठी ) अपना अचानक और वह अजदहा था देखने में ।
आपत्ति
इसके लिखने से स्पष्ट होता है कि ऐसी झूठी बातों को मुहम्मद साहब भी मानते थे । यदि ऐसा है तो ये दोनों विद्वान नहीं थे जैसा कि आंख से देखने और कान से सुनने के अमल को कोई भी खिलाफ नहीं बता सकता वैसे ही लाठी का अजदहा नहीं हो सकता इसलिए यह शोबदा बाजों की बातें हैं ।
आपत्ति का जवाब
चमत्कार को मानने वाले सारी दुनिया के लोग हैं सिवाए कुछ आर्यो के जिनकी गिनती उंगलियों पर गिनी जा सकती है अतः बताइए ।
” जो कोई दूसरे धर्म को जिसे करोड़ों आदमी सच्चा जानते हों झूठा कहे और आप सच्चा बने उससे बढ़कर झूठा कौन है ? ” ( सत्यार्थ प्रकाश 0217. समलास 14 1073 )

विस्तृत देखो वाक्य न.  14 , 23
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( 73 )
” अतः हमने उस पर वर्षा का तूफान भेजा , टिडडी , चिचड़े मेंढ़क और रक्त । अतः उनसे हमने बदला लिया । और उसे डुबो दिया दरिया में । और हमने बनी इसराईल को पार उतारा बेशक वह दीन झूठा है कि जिसमें हैं और उनका काम भी झूठा है । ” ( आगत -119 125 )
आपत्ति
देखिए । जैसा कोई पाखंडी किसी को डराए कि हम तुझ पर सांपों को मारने के वास्ते छोडेंगे । वैसी ही बात कि भला जो ऐसा पक्षपाती है कि एक कौम में डुबोए और दूसरी को पार उतारे वह खुदा हठ धर्म क्यों नहीं ? जो धर्म दूसरे धर्मों को कि जिनके हज़ारों करोड़ों आदमी अनुयायी हों झूठा बतला दे और अपने को सच्चा जाहिर करे उससे बढ़कर झूठा धर्म कौन सा हो सकता है ? क्योंकि किसी धर्म में सारे आदमी बुरे और भले नहीं हो सकते । किसी एक को डिग्री देना बड़ा भारी जाहिलों का ही धर्म है क्या तौरेत जुबूर का दीन जो कि उनका झूठा हो गया ? या उनका कोई धर्म था कि जिसको झूठा कहा और यदि यह धर्म कोई और था तो कौन सा था बताओ ? यदि उसका नाम कुरआन में मौजूद है ।

आपत्ति का जवाब
इस वाक्य का पिछला हिस्सा पहले का काफी जवाब है । पाठक तनिक इस वाक्य को ध्यान से पढ़ें । फिर समाजियो से इस वाक्य का ध्यान रखते हुए पंडित जी के लिए कोई उचित पद प्रस्तावित कराएं । हम भी इसी पर हस्ताक्षर कर देंगे ।
समाजियो ! बताओ हज़रत मूसा के चमत्कारों को मानने वाले करोड़ों हैं या कम हैं । यहूदी ईसाई और मुसलमान तो खास इन चमत्कारों को मानने वाले हैं हिन्दू भी अपने बुजुर्गों के लिए इन तीनों कौमों के चमत्कारों को मानने में किसी से कम नहीं । क्योंकि स्वामी जी ने किसी तर्क पर बुनियाद नहीं रखी बल्कि केवल यही फ़रमाया कि जिस धर्म के करोड़ों श्रद्धालु हो । हां यह भली कही कि ” जो ऐसा पक्षपाती है कि एक कौम को डुबो दे और दूसरी को पार उतार दे । वह खुदा अधर्मी क्यों नहीं ?
पंडित जी ! परमेश्वर की आज्ञा सुनो ।
” ऐ मनुष्यों ! तुम्हारे पास अग्नि हथियार और तीर व कमान आदि शस्त्र मेरी कृपा से शक्ति शाली और तुम्हें विजय प्राप्त हो । चरित्रहीन दुश्मनों की पराजय और तुम्हारी विजय हो और तुम्हारा मुकाबिल पराजित हो और नीचा देखे । मैं बदकार जालिमों को आशीर्वाद नहीं देता । ” ( ऋग वेद अष्टक- 1. अध्याय 3 वरग 18 मंत्र 2 )
इस मंत्र में सारे मनुष्य तो तात्पर्य नहीं हो सकते बल्कि खास आर्य तात्पर्य हैं क्योंकि समस्त मनुष्य तात्पर्य हों तो उनके दुश्मन कौन होंगे । इस मंत्र ने कई एक लेखों में फैसला दिया है बड़ा प्रसिद्ध लेख आर्य समाज का प्राचीन वेद है अर्थात समाजी दावा करते हैं कि वेद प्रारंभिक दुनिया में ईश्वरीय संकेत द्वारा वजूद में आया था । इससे पहले दुनिया में आबादी न थी बल्कि उसके तत्व ही शुरू में पैदा थे और उन्हीं पर वेद ईश्वरीय संकेतों द्वारा उतरे थे । यह मंत्र बता रहा है कि उसके बनते या आर्य समाज के कथनानुसार ) या उतरने के समय मनुष्य विभिन्न सांस्क्रतिक हालत में थे ऐसे कि एक दूसरे से दुश्मनी व दोस्ती की भी नौबत पहुंच चुकी थी । इस मसले में पूरा एक मुस्तकिल रिसाला वेद है आप लोग उसे अवश्य पढ़ें ।
स्वामी जी ! क्या इस न्याय से भी ईश्वर अधर्मी नहीं होता तो किससे होगा । आर्यों का दुश्मन चाहे सच पर भी है । फिर भी उसे विनष्ट करने पर ईश्वर तत्पर है फिर यह भी एक तरफ़ा हुआ कि नहीं ? गाजी महमूद और मुहम्मद गौरी के हालात पढ़ने वाले डी ए वी स्कूल और कालेज के छात्रों ! बता ओ हम सच कहते हैं या नहीं ?
असल यह है कि पंडित जी को कुरआन शरीफ़ से नहीं बल्कि हक्कानी शिक्षा से ऐसी कुछ दुश्मनी मालूम होती है कि कुरआन शरीफ मुकाबले पर एक और एक दो कहने से भी जी चुराते हैं देखते नहीं कि यह अवज्ञाकारी , दुष्ट , पापी फ़िरऔनी का हाल है जिसने बन्दगी से चढ़ कर ईश्वरत्व का दावा किया और जिस अल्लाह के बन्दे ( हजरत मूसा ) ने उसको बन्दा कहा और बन्दा कहलाने पर जोर दिया उसको उस जालिम ने यह कह कर धमकाया ।
“ ऐ मूसा ! यदि तू मेरे सिवा किसी और को खुदा समझेगा तो मैं तुझे कैद कर दूंगा । ” ( सूरह शोअरा -29 )
इसी पाजी को सजा मिलने पर स्गमी दयानन्द आर्यो महा वृषि खुदा को अधर्मी कहते हैं क्यों न हो सत्य से दुश्मनी करने के यह मायना हैं ।
जो निकले जहाज उनका बच कर भंवर से
तो तुम डाल दो नाव अन्दर भंवर के
स्वामी जी का न्याय और ईमानदारी स्पष्ट करने को हम इस बहस वाली आयत को पूरी नकल करते हैं ताकि लोगों को मालूम हो जाए कि उस खुदा के बन्दे को सत्य कितनी नफरत थी । वही मूर्ति पूजा है जिसकी जड़ उखाड़ने पर आर्य तुले बैठे हैं मगर कुरआन शरीफ में जब उस मूर्ति पूजा का विरोध आता है तो आप उसकी हिमायत पर खड़े हो जाते हैं । पूरी आयत यूं है ।
” ध्यान से सुनो अल्लाह फ़रमाता है- ” हमने बनी इसराईल को दरिया से पार उतारा वे एक मूर्ति पूजक कौम पर से गुजरे । उनको देख कर उन्होंने हज़रत मूसा से प्रार्थना की कि जैसे इनके उपास्य हैं हमें भी उपास्य बना दे । हजरत मूसा ने कहा । तुम बड़े नादान हो यह नहीं समझते कि ये लोग जो कुछ कर रहे हैं सब का सब व्यर्थ है और जिस दीन पर ये हैं ( मूर्ति पूजक ) वह दीन झूठा है । क्या मैं अल्लाह के सिवा तुम्हारे लिए कोई और उपास्य बना दूं ? यद्यपि उसने तुमको सारे जहान पर बुजुर्गी प्रदान की है । ( आराफ -138 -140 )
समाजियो सच कहना , अपने चौथे उसूल को याद करके कहना कि इस नम्बर में स्वामी जी की नाराजगी मूर्ति पूजा की हिमायत में है या नहीं । क्यों न हो कुछ ता वैदिक मत का समर्थन और कुछ बिरादरी का प्राचीन लिहाज , आखिर इतना भी न करें तो क्या बिल्कुल ही छोड़ दें । चोर चोरी से जाए हेरा फेरी से तो नहीं जाता ।

[[सत्यार्थ प्रकाश 14:73 अब हिन्दी में 3 लाइन में रह गयी ]

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( 74 )
” तो अलबत्ता देख सकेगा तू मुझको । तो जब प्रकाश किया पालनहार ने उस पहाड़ की ओर । किया चूरा चूरा उसको और गिर पड़ा मूसा बेहोश । ”
आपत्ति
जो देखने में आता है वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता और यदि ऐसे चमत्कार करता फिरता था तो ईश्वर इस समय ऐसे चमत्कार किसी को क्यों नहीं दिखलाता । बिल्कुल झूठ होने से यह बात मानने योग्य नहीं ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! यदि कोई बात समझ में न आए तो पूछने में क्या शान में कमी आ जाएगी ? मुख्यरूप से ऐसी कि जिसके प्रकटन पर अन्त में लज्जित होना पड़े । वही बात है कि ।
” हठ धर्मी धर्म की अंधियारियों में फंस कर बुद्धि को भ्रष्ट कर लेते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
हम स्वामी जी और उनके चेलों के लिए नहीं बल्कि सामान्य पाठकों के न्याय के लिए इस बहस वाली आयत को पूरा का पूरा नकल करते हैं ताकि मालूम हो कि इस आयत से ईश्वर का देखना साबित होता है या न देख सकना ।
” हजरत मूसा जब हमारे निश्चित किए समय पहाड़ पर पहुंचे और उनसे बातें की तो वह कहने लगा । मेरे रब मुझे देखने की शक्ति प्रदान कर कि मैं तुझे देखू .. कहा- तू मुझे कदापि न देख सकेगा , हां पहाड़ की ओर दख । यदि वह अपने स्थान पर जमा रह जाए तो फिर तू मुझे देख लेगा । अतएव जब उसका रब पहाड़ पर प्रकट हुआ तो उसे चकना चूर कर दिया और मूसा बेहोश होकर गिर पड़ा । फिर जब होश में आया तो कहा महिमा है तेरी , मैं तेरे समक्ष तौबा करता हूं और सबसे पहला ईमान लाने वाला मैं हूं । ” ( आराफ -143 )
पाठक बताएं ! इस आयत से क्या समझ में आता है । हज़रत मूसा की तौबा तक तो उल्लेख है लेकिन स्वामी जी अपनी कहते चले जाएं लेकिन आखिर क्या करें वे तो अपने कथन की पुष्टि कराने की कोशिश में हैं कि
” नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृ 0 52 )
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( 75 )
“और याद कर अपने पालन हार को अपने दिल में विनम्रता और डर से और कम आवाज से सुबह और शाम को । ” ( आयत -189 )
आपत्ति
कहीं तो कुरआन में लिखा है कि ऊंची आवाज से अपने पालनहार को पुकारो और कहीं लिखा है कि धीमी आवाज़ से अल्लाह की याद करो । अब कहिए कि कौन सी बात सच्ची और कौन सी झूठी है ? एक दूसरे के परस्पर विरोधी बातें पागलों की बकवास की भान्ति होती हैं यदि कोई बात भूल से विरुद्ध निकल जाए तो कोई परेशानी की बात नहीं।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! पागल तो एक तरह से विवश भी हैं लेकिन ( आप के कथना नुसार ) नापाक बातिन वाले जाहिल जिनको अवसर व उचित स्थान की समझ न हो और वाचक की मन्शा के खिलाफ मायना निकाल कर समय बर्बाद करें पागलों से कहीं बढ़कर पागल होते हैं । ”
सुनो कुरआन बताता है ।
” तुम अपनी बात छिपाओ या उसे व्यक्त करो , वह तो सीनों तक में छिपी बातों तक को जानता है । ” ( मुल्क -13 )
समाजियो ! यदि कोई आयते कुरआनी इस विषय की बताओ कि ” ऊंची आवाज़ से अपने पालन हार को पुकारा ” तो निम्न विवरण हल करके हम से इनाम ले लो ।
यदि बताने वाला मास पार्टी का सदस्य हो तो डी ए वी कालेज के लिए एक सौ रूपया चेहरा दार , और यदि घास पार्टी का महात्मा हो तो एक सौ रूपया लेखराम मेमोरियल फंड के लिए और एक सौ गुरुकुल के लिए सबसे पहले हम देंगे और कोई शर्त नहीं लगाएंगे । यह भी सुन लो कि यह इनाम पहले के इनाम के अलावा हैं ।
दयानन्दियो ! तीन चार सौ के इनाम के अलावा अपने गुरू का मान सम्मान रख लो वर्ना दुनिया क्या कहेगी । न 0 70 में स्वामी जी को जिस आयत से ऊंचे पुकारने का संदेह हुआ है और ईश्वर को बहरा बना दिया है वह भी सुन लो वह यह है
” अपने पालनहार से दुआ मांगो विनम्रता से और छुपकर । ” ( आराफ -55 )
बताओ यह आयत जोर से पुकारने के लिए मना करती है या हुक्म देती है । असल में स्वामी जी भी मजबूर हैं । उर्दू में शाब्दिक अनुवाद किसी साहब ने अदवा का पुकारो कर दिया तो स्वामी जी को भला क्या पड़ी थी कि खुफ़यतुन के शब्द को भी देखते । फिर देखो चालाकी कि खुफिया के शब्द का अनुवाद ही छोड़ गए और आजिजी ( विनम्रता ) से पर वाक्य समाप्त कर दिया । देखो न 0 70 , यद्यपि सारे अनुवादकों में खुफिया का अनुवाद छुपकर किया हुआ मौजूद है सच है ।
” हठ धर्म वाचक की मन्शा के खिलाफ मायना किया करते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ0-7 )
और सुनिए- ” आगे पीछे की न समझने वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश – पृ0-52 )
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( 76 )
सूरह अनफाल ” सवाल करते हैं तुझ को लूटों से , कह लूटे वास्ते अल्लाह के और रसूल के – अतः डरो अल्लाह से । ( आयत -1 )
आपत्ति
हैरत है कि जो लूट मचाएं , डाकू का काम कराएं वे खुदा , पैगम्बर और ईमानदार कहलाएं । इसी के साथ अल्लाह का डर बताते और डाका मारते जाते हैं । फिर यह कहते शर्म नहीं आती कि हमारा धर्म अच्छा है । इससे बढ़कर और क्या बुरी बात हो सकती है कि पक्षपात को छोड़कर सच्चे वेदिक धर्म को मुसलमान स्वीकार नहीं करते ( महाराजः बड़े पापी हैं )
आपत्ति का जवाब
इस न ० का विस्तृत जवाब हम न 0 2 में दे आए हैं और वायदा भी कर आए थे कि आगे को इसी न 02 के हवाले पर सन्तोष करेंगे । यहां स्वामी जी और उनके चेलों की खातिर मनु जी का आदेश सत्यार्थ प्रकाश से सुनाते हैं । दिल लगा कर सुनो । मनु जी आदेश देते हैं ।
” इस विधान को कभी न तोड़ें कि लड़ाई में जिस कर्मचारी या अफसर ने जो जो गाडी , घोड़ा , हाथी , छतर , दौलत , सामान , गाय आदि जानवर और औरत ( हे स्वामी जी यह क्या ? ) और अन्य प्रकार का माल और घी व तेल आदि के कुप्पे विजय किए हों वहीं उसे लेवें । लेकिन सेना के आदमी विजय की हुई चीजों में से सोलहवां हिस्सा राजा को देवें । ‘ ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 196. रामलास 6 न 0 32 )
समाजियों ! यह कहने के तुम हकदार नहीं कि मनु जी का कलाम हम नहीं मानते इसलिए कि तुम्हारे वृषि बल्कि महर्षि ने जब इसको विश्वसनीय और प्रमाणिक समझकर नकल किया है तो तुम्हारा यह हक समाप्त हो गया ।
यही वह लूट है जिसका उल्लेख कुरआन में है न यह कि जिसे डाका कहा करते हैं क्योंकि जिस शब्द कुरआनी का यह अनुवाद है वह अनफाल है और अनफाल बहुवचन है नफल का । नफ़ल शब्द कोष में माले गनीमत को जो कि जंग में विजय पाने वाले के हाथ आता है उसे कहते हैं ।
बदर की जंग की विजय के बाद जो इस्लाम में पहली विजय थी गनीमत के माल के बांटने के बारे में मुसलमानों में आपसी तकरार हुई । इस पर यह आयत उतरी कि गनीमत का माल तुम्हारी राय पर नहीं , बांटा जाएगा बल्कि जिस तरह अल्लाह और अल्लाह के बताने से उसका रसूल आदेश करेगा उसी तरह करना होगा और इस आदेश का विरोध करने में अल्लाह से डरते रहो । अतएव थोड़ा आगे वह हुक्म सुनाया जिसे स्वामी जी ने न 0 79 में अधूरा नकल किया है वह इस प्रकार है सुनों
” समझ लो कि जो तुम्हें गनीमत मिले उसका पांचवा हिस्सा ऐसे बांटो कि पांचवा हिस्सा इस पांचवे हिस्से में से अल्लाह के रसूल का ( जो समय का इमाम हो ) और बाकी रिश्तेदारों और यतीमों , मिसकीनों और गरीब मुसाफिरों का है ( अल्लाह का नाम केवल बरकत के लिए है वर्ना उसका कोई अलग हिस्सा नहीं ) ( सूरह अनफाल -41 )
पांचवा हिस्सा हकदारों के लिए निकाल कर शेष सब जंगी सेना पर बांटा जाएगा । हां स्वामी जी आप ही बताइए कि इसके सिवा उस माल को बांटने की कोई अच्छी विधि भी है । मगर बताते मनु जी का उपर्युक्त बयान याद रहे ।
हां यह तो हम मानते हैं कि मुसलमान वास्तव में बड़े पापी हैं कि वेदिक धर्म को नहीं मानते ताकि नियोग आदि में उनको आसानी हो ।
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( 77 )
” और काटे जड़ काफिरों की । मैं मदद दूंगा तुम को साथ हजार फरिश्तों के पीछे से आने वाले . अलबत्ता मैं काफिरों के दिलों में आतंक डाल दूंगा अतः गर्दनों के और मारो उनमें से हरेक को पोरी पर । ” ( आयत 7-12 )
आपत्ति
वाह जी वाह ! खुदा और पैगम्बर कितने दयालू हैं जो लोग इस्लाम धर्म में नहीं हैं उन काफिरों की जड़ काटने उनकी गर्दन मारने और उनके जोड़ों को काटने का आदेश देता है और इस काम में उनका सहयोगी बनता है । क्या यह खुदा रावन से कुछ कम है ? यह सब धोखा [1] कुरआन के लेखक का है । अल्लाह का नहीं । यदि अल्लाह का हो तो ऐसा खुदा हम से दूर रहे और हम उससे दूर रहें ।
[1- दयानन्दियो ! परमेश्वर के नाम से कहना कि यही कलाम की मधुरता है जिसकी बाबत तुम्हारे स्वामी जी उपदेश मंजरी पृ 0 20 पर वे दीनी कहते हैं या हाथी के दांत दो प्रकार के हैं ।]
आपत्ति का जवाब
विस्तृत जवाब न 0 2 आदि में मिलेगा । हां खुदा से आपकी दूरी की हम बल्कि कुरआन पुष्टि करता है -सुनो । ” बेशक काफिर उस दिन दूर पर्दे में रखे जाएंगे । ‘ ( मुतफिफफीन -15 )
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( 78 )
“ अल्लाह मुसलमानों के साथ है । ऐ लोगो ! जो ईमान लाए हो पुकारना स्वीकार करो वास्ते अल्लाह के और वास्ते रसूल के । ऐ लोगो ! जो ईमान लाए हो तुम ये ईमानी न करो अल्लाह की और रसूल की और मत बेइमानी करो अमानतों अपने को और मकर करता था अल्लाह और भला मकर करने वालों का है । ( आयत – 19-29 )
आपत्ति
क्या अल्लाह मुसलमानों का हिमायती है ? यदि ऐसा है तो अधर्म करता है । अल्लाह तो सारे प्राणियों का मालिक है । क्या अल्लाह पुकारे बिना नहीं सुन सकता ? उसके साथ रसूल को साझी करना बहुत बुरा है । अल्लाह का कौन सा खजाना भरा है जो चुराया जा सके । क्या रसूल की और अपनी अमानत की बेइमानी छोड़कर और सब की बेइमानी किया करें ? इस प्रकार की शिक्षा जाहिल और अधर्मियों की हो सकती हैं । भला यदि खुदा मकर करता और मक्कारों का साथी है तो फिर वह खुदा मक्कार धोखे बाज और अधर्मी क्यों नहीं ? इसलिए यह कुरआन खुदा का बनाया हुआ नहीं है किसी मक्कार , धोखे बाज का बनाया हुआ होगा । नहीं तो ऐसी बेकार की बातें क्यों लिखी होती ? मगर हमें क्या जरूरत है ।
आपत्ति का जवाब
न 0 12 , 53,75 और 50 में सब बातों का विस्तृत जवाब आ चुका है । स्वामी जी को तो न ० बढ़ाने का शौक चर्रा जाता है । हा यह भली कही कि अल्लाह का कौन सा खजाना है । हम कई बार कह आए हैं। कि स्वामी जी यदि किसी मौलवी साहब के पास थोड़ा बहुत समय लगाकर कुरआन शरीफ सुन लेते तो ऐसे धक्के न खाते । स्वामी जी ! कुरआन खुदा की अमानत की टीका स्वयं करता है …… सुनो ।
” हमने अपने आदेश आसमानों , जमीनों और पहाड़ों पर उतारे ( अथ उनके मुनासिब तौर उनको काम दिया ) उन सब ने पालन किया मगर इन्सान ने इस अमानत में बेइमानी की । बेशक इन्सान बड़ा ही अन्यायी और जाहिल है । ” ( सूरह अहजाब -72 )
अल्लाह के आदेश ही अल्लाह की अमानत हैं अतः आयत का मतलब बिल्कुल साफ है कि शरी आदेशों से सुस्ती , लापरवाही और उन्हें अनदेखा करना ठीक नहीं । ऐसा न करो । बताइए .. भूमिका पृ 0 52 का चरितार्थ कौन है ?
हां यह नई लाजिक है कि अपनी अमानत की बेइमानी छोड़कर और सब की बेइमानी किया करें ? यह बिल्कुल इसी प्रकार की तकरीर है जो किसी टेढ़े दिमाग वाले लड़के ने खड़े पानी के अन्दर पाखाना कर दिया दूसरे ने उसे टोका और कहा कि खड़े पानी के अन्दर पाखाना करने को मना किया गया है तूने यह क्या किया । वह बोला बोल करने से मना किया है पाखाना से तो मना नहीं वर्ना शब्द दिखाओ । ऐसी बे समझी की हम भी दाद देते हैं । स्वामी जी को मालूम नहीं कि मुसलमानों के धर्म में दूसरी कौमों के साथ दो तरह से मामला होता है । यदि वह शान्ति से हैं तो शान्ति से और यदि जंग की हालत में हैं तो जंग से । शान्ति से रहने वालों का शरीअत में वही हुक्म है जो आपस में मुसलमानों का है । जंग वालों का हुक्म वही है जो मनु जी का फरमान है सुनो ।
” उस दुश्मन के देश को तकलीफ पहुंचाकर चारा , आहार , पानी और बेज़म को विनष्ट कर दो । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 211- समलास 6 न 0 53 ) लेख तो साफ है मगर इसका क्या इलाज है कि । ” नापाक बातिन वालों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृ 0 52 )
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( 79 )
” और लड़ो उन से यहां तक कि न रहे फितना अर्थात काफिरों का जोर और सारा दीन अल्लाह के वास्ते हो जाए । और जानो तुम यह कि जो कुछ लूट लो किसी चीज़ से बेशक वास्ते अल्लाह के है पांचवा हिस्सा उसका और वास्ते रसूल के । ” ( आयत- 38-40 )
आपत्ति
ऐसे अन्याय से लड़ने वाला मुसलमानों के खुदा के सिवाए शान्ति में हस्तक्षेप करने वाला दूसरा कौन होगा । अब देखिए यह कैसा धर्म है क्या अल्लाह और रसूल के नाम पर सारे जहान को लूटना लुटवाना तबाही व बर्बादी का काम नहीं है ? और क्या खुदा भी लुटेरा नहीं है कि लूट का हिस्सेदार बनेगा ? ऐसे विनाश कारियों का हिमायती बनने से खुदा अपनी खुदाई में बट्टा लगाता है । बड़ी हैरत की बात है कि एक ऐसी किताब ऐसा खुदा और ऐसा पैगम्बर जहां में ऐसे लड़ाई झगड़ा कराने और शान्ति व्यवस्था में अड़चन व बाधा बनकर लोगों को तकलीफ देने के लिए कहां से आ गए हैं । यदि ऐसे धर्म दुनिया में मौजूद न होते तो सारी दुनिया प्रसन्न व खुश रहती ( मजे से ऐश होते और शराब कबाब उड़ाते )
आपत्ति का जवाब
जिहाद के बारे में विस्तृत जवाब न 0 2 आदि में मौजूद है । मनीमत के बारे में न 0 76 में लिख चुके हैं ।
हा यह भली कही कि ” ऐसे धर्म दुनिया में न चल रहे होते तो सारी दुनिया प्रसन्न व खुश रहती मगर क्या करें वेद भगवान ने भी तो यही आदेश दिया कि ।
” तुम दुश्मनों की सेना को पराजित करके उन्हें पछाड़ दो तुम्हारी सेना भारी और शक्ति शाली हो ताकि तुम्हारी विश्वव्यापी हुकूमत धरती पर स्थापित हो और तुम्हारा विरोधी पराजय का मुंह देखे और नीचा देखे । ( ग वेद अष्टक 1 अध्याय 3 वरग 13 )
स्वामी जी ! आयत तो स्वयं शान्ति को व्यक्त कर रही है देखिए किस स्पष्टीकरण से लिखा है और आपने भी बड़े जोश के साथ नकल किया है कि लड़ो इनसे यहां तक कि न रहे फितना । जिस से साफ मालूम होता है कि शान्ति स्थापित कराने के लिए लड़ना स्वीकार है । कहिए अकल बड़ी या भैंस ? स्वामी जी आप की तरह बहुत से समाज सुधारकों ने यह शिक्षा दी है या उनके जिम्मे लगायी गयी कि
” जो कोई तेरे गाल पर तमाचा मारे दूसरा गाल भी उसकी ओर कर दे और यदि कोई चाहे कि तुझ पर नालिश करके तेरी कबा ले । कुर्ते को भी उसे दे दे और जो कोई तुझे एक कोस वेगार में ले जाए तो उसके साथ दो कोस चला जा । जो कोई तुझसे कुछ मांगे उसे दे और तुझ से कर्ज चाहे उससे मुंह मत मोड़ । ” ( इन्जील मत्ती 5 की 40 )
मगर इन आदेश से सिवाए ज़बान की तरी के और भी कुछ हासिल ? विश्वास न हो तो ईसाई कौमों का हाल देख लो जिन्होंने स्वयं ही ऐसे आदेश को रद्दी के सन्दूक में डाल कर साबित कर दिया कि
” नाच न जाने आंगन टेढ़ा । ”
क्यों न हो कुदरत के कानून का मुकाबला कोई आसान काम नहीं । दुश्मनों से बचाव करना मानव प्रकृति में है विस्तार से देखना हो तो हमारी किताब तकाबुले सलासा तौरेत , इंजील व कुरआन का मुकाबला पढ़ो या ईश्वरीय किताब मुबाहेसा आर्या पढ़ो ।
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( 80 )
” और काश कि देखे तू जिस समय कि निकालते हैं जान उन लोगों की कि काफिर हुए . फ़रिश्ते मारने मुंह उनके और पीठे उनकी और कहते हैं चखो तुम यातना जलने की । अतः विनष्ट किया हमने उनको साथ गुनाहों उन के और डुबोया हमने फिरऔन को । और तैयारी करो वास्ते उनके जो कुछ तुम कर सको । ( आयत -48 , 52,58 )
आपत्ति
क्यों जी आजकल तो रूस ने रूम की और इंगलैंड ने मिश्र की बड़ी बुरी गत बनायी है अब फ़रिश्ते कहां सो गए ? पहले खुदा अपने बन्दों के दुश्मनों को मारता डुबोता था । यदि यह बात सच्ची है तो आज कल भी ऐसा करे । चूंकि ऐसा नहीं करता इसलिए यह बात मानने के लायक नहीं । देखिए यह कैसा बुरा हुक्म है कि जो यथा संभव गैर धर्म वालों के लिए कष्टदायक काम किया ऐसा आदेश विद्वान और धार्मिक दयावान का नहीं हो सकता फिर लिखते हैं कि खुदा दयावान और न्याय करने वाला है ऐसी बातों से स्पष्ट है कि मुसलमानों के खुदा से न्याय और दया आदि भले गुण दूर भागते हैं।

आपत्ति का जवाब
इसका जवाब न 0 51 में विस्तार से दिया जा चुका है हां यह कह देना ज़रूरी है कि यह कोई नई बात नहीं है कि स्वामी जी ने इस आयत को बिल्कुल नहीं समझा । एक तो यह आयत काफिरों की भौतिक मौत के समय से संबंधित है जिसको स्वामी जी ने जिहाद से संबंधित बना दिया । दूसरे यह भी गलती है कि यथा संभव गैर धर्म वालों के लिए कष्ट दायक काम क्यिा करो । ” बल्कि आयत का ।मतलब साफ है पहले कुरआनी शब्दों को सुनो ।
व आइददू लहुम मसत तअतुत मिन कुबतिवं व मिन रिबातिल खैलि 0 ( अनफाल -60 )
इसका पूरा अनुवाद और असल मतलब मनु जी के भाव में प्रस्तुत करता हूं – सुनिए
” राज्य की राजनीति को जानने वाला राजा ऐसा अच्छा प्रस्ताव अमल में लाए . किसी तरह उसके सहयोगी बे गाने लोग और दुश्मन अधिक शाक्ति शाली न हो जाएं । ” ( सत्यार्थ प्रकाश – पृ 0 207 )
यही मतलब इस आयत का है कि दुश्मनों के मुकाबले के लिए सैनिक नियम और घुड़ दौड़ आदि कार्य सेना में चुस्ती व चालाकी पैदा करते हैं ।
पंडित जी ने जिस शाब्दिक अनुवाद से आयत का अनुवाद नकल किया है उसमें भी यूं लिखा हुआ मौजूद है । ” और तैयारी करो वास्ते उनके जो कुछ कर सको तुम शक्ति से और बांधने घोड़ों से । ” जिसका मतलब उर्दू मुहावरे में वही है जो हमने बताया ।
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( 81 )
” ऐ नबी किफायत तुझको अल्लाह और उनको जिन्होंने अनुसरण किया तेरा मुसलमानों में से , ऐ नबी प्रोत्साहित कर मुसलमानों को लड़ने पर । यदि हों तुम में से बीस सब्र करने वाले विजयी हो जाएं दो सौ पर । अतः खाओ उस चीज़ से कि गनीमत किया है तुमने हलाल पवित्र और डरो अल्लाह से । बेशक अल्लाह क्षमा करने वाला कृपालु है । ” ( आयत – 62-67 )
आपत्ति
भला यह कौन से न्याय , ज्ञानात्मक और धर्म की बात है जो अपना अनुसरण करे और चाहे अन्यायी ही क्यों न हो उसकी हिमायत करें और लाभ पहुंचाएं और जो जनता की शान्ति में खलल डालकर जंग करे और कराए और लूट के माल को हलाल बता दे उसे क्षमा किया हुआ और मेहरबान नामों से पुकारा जाए । यह शिक्षा ईश्वर की तो क्या बल्कि किसी शरीफ आदमी की भी नहीं हो सकती । ऐसी ऐसी बातों से कुरआन खुदा का कलाम कदापि नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
विस्तृत जवाब पहले कई बार लिखा जा चुका है मुख्य रूप से न 0 2 व न 0 76 में देखें । स्वामी जी ! यह भी कुरआन शरीफ का और नबी करीम सल्ल 0 का चमत्कार है कि आप जैसे योग्य विद्वान को कुरआन शरीफ पर आपत्ति करने की सूझी । विश्वास न हो तो कुरआन मजीद की आयत को ध्यान से सुनो ।
” इस तरह हमने नबी के लिए जिन्नों और इन्सानों में गुमराह लोगों को दुश्मन बनाया है जो एक दूसरे को धोखा और फरेब की बातें सुनाते रहते हैं । ( सरह अनआम – 112 )
समाजियो ! इस आयत को अच्छी तरह समझ कर हमारी दाद दो ।
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( 82 )
सूरह तौबा- ” सदैव रहेंगे बीच इसके . बेशक अल्लाह निकट उनके है सवाब बड़ा । ऐ लोगों ! जो ईमान लाए हो मत पक्ड़ो बापों अपने को और भाइयों को अपने दोस्त । यदि दोस्त रखें कुफर को ऊपर ईमान के । पर उतारी अल्लाह ने सन्तोष अपने ऊपर रसूल अपने के और ऊपर मुसलमानों के और उतारे लश्कर नहीं देखा तुमने और अज़ाब किया उन लोगों को कि काफिर हुए और यही सज़ा है काफिरों की । फिर फिराएगा अल्लाह पीछे उनके ऊपर और लड़ाई करो उन लोगों से जो ईमान नहीं लाते । ” ( आयत 20-27 )
आपत्ति
भला जो जन्नत वालों के निकट अल्लाह रहता है तो सर्वव्यापक किस तरह हो सकता है यदि सर्व व्यापक नहीं , दुनिया का बनाने वाला और आदिल ( न्याय करने वाला ) नहीं हो सकता और लोगों को अपने मां बाप भाई और दोस्त से अलग कराना केवल अन्याय की बात है । हां यदि वे बुरी शिक्षा दें तो न माननी चाहिए लेकिन उनकी सेवा सदैव करनी चाहिए । पहले खुदा मुसलमानों पर मेहरबान था और उनकी मदद के लिए सेना उतारता था यदि यह बात सच होती तो अब ऐसा क्यों नहीं करता ? और यदि पहले काफिरों को सजा देता था और फिर उनपर रहमत करता था तो अब कहां गया है ? क्या खुदा लड़ाई के बिना ईमान कायम नहीं कर सकता ? ऐसे खुदा को हमारी ओर से हमेशा तलांजली है । खुदा क्या है । एक तमाशा करने वाला ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी का कहना बिल्कुल सच है और सोने से लिखने योग्य है कि आगे पीछे को न देखकर अटकल पच्चू मन गढ़त कलाम का अर्थ करने वाला नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ( भूमिका पृ०-52 )
स्वामी जी को पहले आयत का सही अनुवाद बताते हैं आशा है कि अनुवाद सुनते ही आपको अपने सवालों का मूल्य व महत्व मालूम हो जाएगा आपने शाह रफीउद्दीन साहब का शाब्दिक अनुवाद अपने सामने रखा है मगर अफसोस कि उसे भी नहीं समझा यद्यपि वह अनुवाद अरबी के कारण शाब्दिक अनुवाद होने और दोनों भाषाओं ( अरबी और उर्दू ) के मुहावरों के मिलाप के लिए लाभकारी नहीं । फिर भी चूंकि आपने इसी को अपने सामने रखा हुआ है इसलिए बेहतर है कि उसी में से नकल करके समाजियों से आपकी समझ और ईमानदारी की प्रशंसा करा दें । तो समाजियो ! सुनो असल आयत यह है ।
” वास्ते उनके बीच उसके नेमत है पायेदार हमेशा रहेंगे बीच उसके सदैव बेशक अल्लाह के निकट उसका बड़ा सवाब । ” ( सूरह – 21-22 )
स्वामी जी इसमें क्या कमाल किया है एक तो ” इसके शब्द ” को शब्द ” उनके से ” से बदला । दूसरे उसके सारे को पहले कलाम से मिला दिया । तीसरे “ सवाब बड़ा ” का शब्द बेताल्लुक छोड़ दिया , मालूम नहीं कि यह खबर है या खबर देने वाला । चौथे आयत का शुरू का हिस्सा ही हज्म । फिर बताइए मतलब क्यों न बिगड़े । सच है ।
लुत्फ पर लुत्फ है इमला में मेरे यार के चार
हा हुत्ती से गदह लिखता है हव्वज़ से हिमार
आयत का मुहावरे वाला अनुवाद यह है । “ अल्लाह के पास बड़ा सवाब है । ” देखो अनुवाद शाह अब्दुल कादिर साहब )
समाजियो ! अनुवादित कुरआन को देखो और स्वामी की मेहनत और ईमानदारी की प्रशंसा करो । मा बाप को छोड़ने के वह मायना है जिनपर आपने भी हस्ताक्षर किए है अर्थात उनकी बुरी शिक्षा को न मानना और शेष मामलों में उन से व्यवहार करना वाजिब है । सुनो !
कुरआन शरीफ बताता है ।
” यदि मां बाप तुझे मुझ से ( अर्थात अल्लाह से ) शिर्क करने को कहें तो उनकी बात न मान और सांसारिक बातों में उनसे सुलूक करता रह ) स्वामी जी ! बताइए ( भूमिका पृ 0 51 ) हाथी दांत हैं या कुछ और ? काफिरों की बातों का जवाब न 02,51 आदि में देखें ।
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( 83 )
” और हम प्रतीक्षा कर रहे हैं वास्ते तुम्हारे यह कि पहुंचा दे तुम को अल्लाह अज़ाब अपने पास से या हमारे हाथों से । ” ( आयत -49 )
आपत्ति
क्या मुसलमान ही ईश्वर की पुलिस बन गए हैं कि वे अपने हाथ से या मुसलमानों के हाथ से गैर धर्म वालों को गिरफ्तार करता है ? क्या दूसरे करोड़ों आदमी ईश्वर को ना पसन्द हैं ? और मुसलमानों के गुनाहगार भी पसन्द हैं ? यदि ऐसा हाल है तो अंधेर नगरी चौपट राज का उदाहरण चरितार्थ होता है । हैरत है कि बुद्धिमान मुसलमान भी इस निराधार और अनुचित धर्म को मानते हैं ।
आपत्ति का जवाब
विस्तृत जवाब न 0 2 में आ चुका है । स्वामी जी ! एक बात को बे मतलब बार बार कहते जाना पानी बिलोना होता है हैरत है बुद्धिमान आर्य ऐसी निराधार और अनुचित आपत्तियों को सुनकर भी स्वामी जी को अपना लीडर मानते हैं और नियोग जैसी गलत , गैर अमानवीय और अवैध शिक्षा को सुन कर भी वेद वेद कहे जा रहे हैं और इस पर तनिक भी लज्जित नहीं होते । अफसोस …… अफसोस ?
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( 84 )
” वायदा किया है अल्लाह ने ईमान वालों को और ईमान वालियों से । जन्नतें , चलती हैं नीचे उनके से नहरें हमेशा रहने वाले बीच उसके और घर पाकीज़ा बीच जन्नतों के और रजामन्दी तरफ अल्लाह की से बहुत बड़ी है । यह वह है मुराद पाना । तो वे ठट्टा करते हैं उनसे , ठट्टा करता है अल्लाह उनसे । ” ( आयत – 69-75 )
आपत्ति
यह ईश्वर के नाम से औरत मर्द को अपने मतलब के लिए लालच देना है क्योंकि यदि ऐसा लालच न देते तो कोई मुहम्मद साहब के जाल में न फंसता । ऐसा है और धर्म वाले भी किया करते हैं । आदमी तो आपस में ठट्टा मजाक ही किया करते हैं लेकिन खुदा को किसी से ठट्टा करना वाजिब है । यह कुरआन क्या है बड़ी खेल है ।
आपत्ति का जवाब
न 0 2 व न 0 31 में कई एक जगह इसका जवाब मिल सकेगा । स्वामी जी सदैव भूमिका का पृ ० न ० 10 भूल जाते हैं । ” जहां मायना असंभावित हों वहां अवास्तविक उपमा होती है । ” अतः आयत के मायना साफ हैं कि ईश्वर उनको ठट्टे की सजा देगा या अपमानित करेगा क्यों ? जिस शब्द का यह ठट्टा अनुवाद है वह उपहास है जिसके मायना शब्द कोष में तुच्छता के भी हैं और ठट्टे में एक प्रकार की तुच्छता पायी जाती है अतः आयत के मायना साफ है कि अल्लाह उनको अपमानित करेगा । विस्तृत हाल के लिए न 061 को देखें ।
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( 85 )
” लेकिन रसूल और जो लोग ईमान लाए साथ इसके जिहाद किया और साथ मालों अपने के और अपनी जानों के और ये लोग वास्ते और नहीं के हैं । भलाइयां और मुहुर रखी अल्लाह ने ऊपर दिलों के उनके वे नहीं जानते । ” ( आयत – 84-89 )
आपत्ति
अब देखिए स्वार्थ की बात कि वे ही अच्छे हैं कि जो मुहम्मद साहब पर ईमान लाए और जो नहीं लाए वे बुरे हैं । क्या यह बात पक्षपात और जिहालत से भरी हुई नहीं है ? जब अल्लाह ने मुहुर लगा दी तो उनका दोष गुनाह करने में कोई भी नहीं बल्कि खुदा ही का दोष है क्योंकि उन बेचारों को भलाई करने से दिलों पर ठप्पा लगाकर रोक दिया । यह कितनी बड़ी बे इन्साफी है ।
आपत्ति का जवाब
न 0 3. न 06 , न 065 आदि को देख लें ।
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( 86 )
” ले माल उनके से खैरात कि पाक करे तो उनको जाहिर और पवित्रता करे तो उनको साथ उसके अर्थात बातिन में । बेशक अल्लाह ने मोल ली हैं । मुसलमानों से जानें उनकी और माल उनके बदले उसके वास्ते उनके जन्नत है लड़ेंगे बीच राह अल्लाह के । तो मारेंगे और मारे जाएंगे । ” ( आयत – 99-107 )
आपत्ति
वाह जी वाह ! मुहम्मद साहब आपने तो कलिए गुसाइयों की समानता कर ली । क्योंकि जिनका माल लेना उन्हीं को पाक करना , तो गुसाइयों का काम है । वाह अल्लाह मियां आपने अच्छी सौदागरी चलायी कि मुसलमानों की पहचान गरीबों की जानें लेना ही लाभ समझ रखा है । और यतीमों को मरवाने और जालिमों को जन्नत देने से मुसलमानों का खुदा निर्दयी और अन्यायी होकर अपनी खुदाई में बट्टा लगा बैठा है और अक्ल मन्द शरीफों के निकट नफरत योग्य हो गया है ।
आपत्ति का जवाब
ओहो ! ओहो ! पंडित जी ! आपने भी धार्मिक वादियों की समानता कर ली कि वाचक की मन्शा के विरुद्ध अर्थात मायना लेकर अक्ल के पीछे लठ लिए फिरते हो । ( भूमिका सत्यार्थ पृ 07 )
स्वामी जी ! यह माल कहां खर्च होगा ? जहां मनु जी आदेश देंगे । तनिक ध्यान से सुनो।
” बढ़ती हुई पूंजी का वेदों ( कुरआन ) की शिक्षा और धर्म के प्रचार , छात्र और उपदेशक वेद ( कुरआन ) और मोहताजो , यतीमों के लालन पालन में खर्च करे । ‘ ( मनु -99 , सत्यार्थ पृ 0 198 , समलास 6 न 0 33 )
यदि विश्वास न हो तो कुरआन में देख लो । इस माल का इस्तेमाल क्या बताया है । पढ़ो ।
सदके केवल फकीरों , मिसकीनों और जमा करने वालों और इस्लाम से मुहब्बत करने वालों के लिए हैं और गुलाम आज़ाद कराने के लिए हैं और कर्जदारों के लिए और सेना की तैयारी के लिए और मुसाफिरों के लिए यह ईश्वर का निर्धारित किया हुआ ) है ( इसके खिलाफ न हो ) और खुदा सब कुछ जानने वाला और तत्वदर्शी हैं । ” ( सूरह -तौबा -60 )
समाजियो ! बताओ मनु जी के आदेश से ये खर्च आवश्यक और पूर्ण हैं या नहीं ? स्वामी जी ने सोचा होगा कि यह माल ईश्वर के दूत मुहम्मद सल्ल 0 अपने खर्च में लाते होंगे मगर उनको यह खबर नहीं कि अपनी खास जात के अलावा अपनी समस्त सन्तान , परिवार बल्कि चचाओं की सन्तान तक ने भी इस माल में से एक पैसा तक का लेना पसन्द नहीं किया । बल्कि सदैव उन्हीं लोगों को देते रहे जिनका जिक्र उपर्युक्त आयत में आया है । मगर ।
” उचित स्थान व अवसर न देखकर केवल मन्त्र ( या आयतों ) का शाब्दिक अनुवाद सुनकर आपत्ति करने वाले जाहिलों को ज्ञान कहां । ( भूमिका पृ 0 52 )
शेष हिस्से का जवाब न 0 12 में देखिए ।
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( 87 )
” ऐ लोगों जो ईमान लाए हो ! लड़ो लोगों से जो तुम्हारे पास हैं काफिरों में से और चाहिए पावें बीच तुम्हारे सख्ती । क्या नहीं देखते वे बलाओं में डाले जाते हैं । बीच हर साल के एक बार या दो बार । फिर नहीं तौबा करते और न वे नसीहत पकड़ते हैं । ( आयत – 19-122 )
आपत्ति
देखिए एहसान करने वाले के साथ खुदा मुसलमानों को कैसी शिक्षा सिखाता है कि पड़ौसियों और गुलामों से लड़ाई करो और अवसर पाकर लड़ो या कत्ल करो । ऐसी बातें मुसलमानों से बहुत फैली हैं । अर्थात इसी कुरआन की तहरीर से अब तो मुसलमान समझ कर कुरआन की इन बुराइयों को छोड़ दें तो बड़ा अच्छा है ।
आपत्ति का जवाब
आयत का मतलब यह है कि यदि जिहाद की नौबत आ जाए और जो शर्ते जिहाद की हैं ( जिनका थोड़ा बहुत जिक्र न ० 2 में हो चुका है ) वे पूरी हो जाएं तो निकट के दुश्मनों से जो देश की सीमा के पास हो पहले लड़ना चाहिए । यह नहीं कि उनको बगली चूंसा छोड़कर दूर इलाके वालों से लड़ने जाओ । इसी के अनुसार मनु जी का आदेश सुनो । ”
जिस ओर लड़ाई हो रही हो उसी तरफ सेना का सामना करे लेकिन दूसरी तरफ पक्का इन्तज़ाम रखे वर्ना पीछे से या बगल में से दुश्मनों की घात का होना संभव है । ” ( सत्याथ प्रकाश पृ 0 270 , समलास 6 न 0 52 )
समाजियो ! ऐसी भयानक गलतियां देखकर स्वामी जी की सत्यार्थ प्रकाश को बन्द कर दो तो अच्छा है वर्ना पछताओगे मगर , कान न आएगा ।
” लेख तो साफ है लेकिन नापाक बातिन जाहिलों का निश्चय ही है । ज्ञान कहां ? ( भूमिका पृ 0 52 )
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( 88 )
सूरह यूनुस- ” बेशक पालनहार तुम्हारा अल्लाह जिसने पैदा किया आसमानों को और जमीन को छ : दिन के अन्दर फिर ठहरा ऊपर अर्श के तदबीर करता है काम की । ” ( आयत -3 )
आपत्ति
आसमान अर्थात आकाश एक अमिश्रित अनादिकालिक वस्तु उसका जन्म लिखने से पता चला कि कुरआन का लेखक पदार्थ विज्ञान को भी नहीं जानता था । लेकिन खुदा को दुनिया छः दिन तक बनानी पड़ती है ? कुरआन में जब लिखा है कि हो जा और इतना कहने से दुनिया हो गयी तो फिर छः दिन लगना झूठ है । यदि वह सर्व व्यापक होता तो आसमान पर क्यों जा ठहरता और जब काम की तदबीर करता है तो मानो तुम्हारा खुदा मनुष्य की भान्ति है क्योंकि यदि सर्वज्ञाता होता तो बैठा बैठा क्यों सोचता ? इससे स्पष्ट होता है कि खुदा को न जानने वाले वहशी लोगों ने यह किताब बनायी होगी ।
आपत्ति का जवाब
कैसा मूर्ख है वह व्यक्ति जो शीशों का घर बनाकर दूसरों पर पत्थर बरसाए । समाजियो ! परमेश्वर की आज्ञा सुनो । ”
उस परमेश्वर के सोच विचार या सोचने की कुदरत से चांद पैदा हुआ कुदरत के भरपूर नूर से सूरज प्रकट हुआ और श्रोतर अर्थात आकाश सूरत कुदरत से आकाश ( आसमान ) पैदा हुआ । ” ( यजुरवेद अध्याय 21. मंत्र 12 )
स्वामी का आदेश सुनो । ”
परमात्मा ने पहले आकाश ( आसमान ) किया , उस आकाश से वायु , वायु से अग्नि , अग्नि से जल , जल से पृथ्वी , पृथ्वी से अनाज ,अनाज से वीरज , वीरज से मनुष्य पैदा किए ” ( उपदेश मन्जरी पृ 0 59 ) और सुनो
” आकाश और परमात्मा का उधार आध्य संबंध अर्थात परमेश्वर के सहारे आकाश है । ” ( उपदेश मन्जरी )
तो हम स्वामी जी के वाक्यों को दोहराकर समाजियो से पूछते है।
” आकाश एक अमिश्रित अनादिकालिक वस्तु है उसका जन्म लिखने से पता चला कि वेद का लेखक और टीका कार ( स्वामी जी स्वयं ही दोनों हैं ) पदार्थ विज्ञान को भी नहीं जानता था । ”
समाजियो ! इसका कुछ जवाब दे सकते हो ? ( इससे अधिक स्पष्टी करण न 0 129 में देखो । )
चूंकि आपने आसमान के इन्कार की कोई दलील नहीं बताई इसलिए हमारी ओर से फिलहाल इतना ही काफी है कि यदि आपका कोई चेला दलील बता देगा तो हम बड़ी खुशी के साथ सुनेंगे और उचित जवाब[1] देंगे । आपकी तरह केवल इतने पर सन्तोष नहीं करेंगे कि ।
[ 1- अतएव तगलीव ब जवाब तहजीब महाश्य धर्म पाल में दिया गया है ।]
” जब वेद कहता है कि दूसरे देश वालों की मन गढ़त बातों को अक्लमन्द लोग कभी नहीं मान सकते । ” ( सत्यप्रकाश पृ 0 297 )
समाजियो ! दलील बतलाते हुए किसी प्रोफैसर का कथन बिना दलील न लिख देना । याद रहे कि यह मुनाज़रे का मैदान है समाज मन्दिर नहीं ।
संभल कर पांव रखना मयकदा में सरस्वती साहब
यहां पगड़ी उछलती है इसे मयखाना कहते हैं ।
ईश्वर के कामों में आपको सदैव संदेह होता है । क्या छ : महीनों में खेत पकते हैं नौ महीनों मनुष्य ( अर्थात औरत ) और गाऊ माता बच्चा देती है खुदा को साल भर तक बच्चा बनाना पड़ता है ( तौबा तौबा ) स्वामी जी कुरआन में यह कहीं नहीं लिखा कि ” हो जा ” कहने से दुनिया हो गयी । यदि कोई आपका चेला वह स्थान हमें बता दे तो हम उसे एक सौ रूपया इनाम देंगे । वह यूं है कि जब खुदा किसी चीज़ को पैदा करना चाहता है तो उसे केवल हो जा कहता है तो वह यूं हो जाती है । इस स्थान को छः दिन वाले स्थान से कोई मतभेद नहीं । दुनिया की विभिन्न हालतें अल्लाह ने पैदा की हैं । जब किसी हालत को यथा आवश्यकता और हिम्मत के तौर पर पैदा करना चाहा ” हो जा ” कहा तो वह हालत पैदा हो गयी ।
आपने यदि बच्चे के जन्म पर सोच विचार किया होता तो आपको मालूम होता कि प्रत्यक्ष में तो बच्चे के जन्म में नौ महीने लग जाते हैं मगर हकीकत में उसकी अन गिनत हालतें होती हैं कि जो हर क्षण परिवर्तित होती रहती हैं और हर क्षण खुदा अपनी कुदरत के कानून से ” हो जा ” कहता है और वह होती जाती हैं ।
अतः दोनों का मतलब बिल्कुल एक सा है अन्तर केवल आपकी समझ या सोच का है तो उसे छोड़िए । इससे अधिक स्पष्टी करण किसी और स्थान पर मिलेगा ।
अल्लाह की तदबीर करने का अर्थ हुक्म देना है वह तदबीर नहीं जो आगे के लाभ या हानि के बारें में होती हैं और कभी सही और कभी गलत भी हो जाती है क्योंकि
” जहां अर्थों में असंभावना हो वहां अवास्तविक होता है । ” ( भूमिका – पृ 0 10 )
चूंकि अल्लाह के गुणों में कुरआन उसकी परोक्ष ज्ञाता भी बताता है तो कोई कारण नहीं कि तदबीर के मायना सोच विचार के हों ।
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( 89 )
” और पथ पदर्शन और दयालुता वास्ते मुसलमानों के । ”
आपत्ति
क्या खुदा मुसलमानों ही का है दूसरों का नहीं ? और क्या वह हिमायती है कि मुसलमानों पर ही दया करता है और दूसरों पर नहीं । यदि मुसलमानों से तात्पर्य ईमानदार हैं तो उनके लिए पथ प्रदर्शन की ज़रूरत ही नहीं और यदि मुसलमानों के सिवाए दूसरों को पथ प्रदार्शन नहीं करता तो खुदा का ज्ञान ये फायदा है ।
आपत्ति का जवाब
विस्तृत जवाब के लिए न 0 5 , 47 आदि नम्बरों को देखा जाए । यहां पर केवल स्वामी जी के आदेश पर सन्तोष किया जाता है । तो सुनो ।
” उन चौदह समलासों को जो व्यक्ति पक्षपात छोड़कर न्याय की नजर से देखेगा उसको आत्मा ( मन ) में सच्चे मायनों की रोशनी से सुख वैभव पैदा होगा और जो व्यक्ति ज़िद व पक्षपात से देखने के बाद सुनेगा उस पर किताब का मतलब ठीक ठीक स्पष्ट होना बड़ा कठिन है । ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 363 , समलास 10 – 35 )
जिस प्रकार आपकी किताब सब लोग देखते हैं । यहां तक कि मैं भी उस समय देख रहा हूं और निश्चय ही मुझे इससे बहुत कुछ लाभ भी हुआ है कि मैं कुरआन का अल्लाह की सच्ची किताब होना इसमें भी मानो लिखा हुआ पाता हूं लेकिन फिर भी मायना व अर्थों को समझ पाने में लोग भिन्न हैं जिस तरह आप के मन के अनुसार बहुत कम लोग नसीहत पाते हैं जिन का नाम आपने अपक्षपाती रखा है ऐसे ही लोगों के लिए कुरआन दयालुता है और ऐसे ही अपक्षपातियों को कुरआन मजीद के मुहावरे में मुसलमान कहते हैं । विस्तृत जानकारी न 0 5 में देखिए ।
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( 90 )
सूरह हूद – ” आजमाए तुम को कौन तुम में से बेहतर है अमल में और यदि कहे तो अलबत्ता उठाए जाओगे पीछे मौत के । ( आयत -7 )
आपत्ति
खुदा जब कर्मों की परीक्षा लेता है तो वह सर्वज्ञाता नहीं है और यदि वह मौत के बाद उठाता है तो क्या वह दौरा सामने रखता है और खुदा का मुर्दो को जीवित करना उसके नियम के विरुद्ध है अपना नियम बदलने से क्या वह अपने आपको बट्टा लगा सकता है ?
आपत्ति का जवाब
इस न 0 में भी वही आनन्द है जो पाठकों ने न 0 82 में उठाया था कि ।
लुत्फ पर लुत्फ है इमला में मेरे यार के यार
हा हुत्ती से गदहा लिखता है हव्वज से हिमार
देखिए यदि कहे लिखकर उसकी जजा ( मात्रा ) को हजम कर गए बल्कि उसको पहले से मिला दिया जो उससे पूरी तरह अलग है । इसी से मालूम होता है कि स्वामी जी ने कुरआन में कहां तक सोच विचार से काम लिया होगा जिसके बारे में भूमिका पृ 0 52 में ताकीद करते हैं ।
पंडित मुसिर मशालची अको टिच
औरों करे अब जादिला आप अंधेरे विच
कयामत का उल्लेख न 0 51 में आ चुका है । अल्लाह के आजमाने के मायना यह हैं कि इस बात को लोगों पर प्रकट कर दे क्योंकि आजमाइश जो ज्ञान की प्राप्ती के उद्देश्य में होती है ईश्वर की निसवत संभव नहीं । इसलिए कुरआन ने खुदा के संबंध में साफ बता दिया है ।
” खुदा के निकट बराबर है कोई धीमे बोले या ऊंची आवाज़ में पुकारे और कोई रात की छुप कर चले या दिन में जाहिर करेंगे सामने । ” ( सूरह राअद- 10 )
और यह तो खुली बात है ।
” जहां मायना असंभावित हों वहां अवास्तविक होता है । ” ( भूमिका – पू 0 – 10 )
अतः आपका सारा भरम खुल गया ।
थे दो घडी से शैख जी शैखी बघारते
वह सारी उनकी शैखी झड़ी दो घड़ी के बाद
यह आज सुनो कि मुर्दो को जिन्दा करना ईश्वर के नियम के विरुद्ध है । स्वामी से कोई क्यों पूछने लगा था और वे भी क्यों बताने लगे जबकि समाज में चारों ओर चेले चाटों ने घेरा डाला हो । पूछे तो कौन पूछे ।
शायद पंडित जी समझते हों , तो विनती है कि महाराज ! आज तक हमने दो हज़ार अरब साल गुजरने के बावजूद प्रलय नहीं देखा और इसके बाद परमेश्वर , अग्नि , वायु आदि को नियम के खिलाफ जवान पैदा करके दुनिया की आबादी चलाएगा और आगे फिर दूध पीते बच्चे पैदा करेगा । स्वामी जी जिस तरह ” प्रलय ” का आना कई अरब साल के बाद आप मानते हैं या जिस तरह दुमदार सितारा ( पुछड़ तारा ) सालों बाद निकला करता है उसी तरह मुर्दो के ज़िन्दा होने का भी एक समय है जिसे कायदे के खिलाफ कहना आप जैसे विद्वानों से सुदूर है । बाकी न 0 15 में देखें ।
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( 91 )
” और कहा गया ऐ धरती निगल जा पानी अपना और ऐ आसमान बस कर , और पानी सूख गया । और ऐ कौम यह है ऊंटनी अल्लाह की तुम्हारे लिए निशानी , बस इसे छोड़ दो कि अल्लाह की धरती के बीच खाती फिरे । ” आयत – 43-63 )
आपत्ति
क्या बचपने की बात है धरती और आसमान कभी सुन सकते हैं ? वाह जी वाह ! खुदा की ऊंटनी है तो ऊंट भी होगा । फिर हाथी घोड़े गधे आदि भी होंगे और खुदा का ऊंटनी से खेत खिलाना क्या अच्छी बात है क्या ऊंटनी पर चढ़ता भी है ? यदि ऐसी बातें हैं तो नवाबी की से घुसड़ पुसड़ खुदा के घर में भी है ।
आपत्ति का जवाब
कैसी बचपने की बातें हैं- स्वामी जी ! आयत के मायना यह हैं कि खुदा ने जमीन और आसमान को हुक्म दिया । रहा यह कि किस तरह दिया ? जिस तरह अन्य आदेशों के बारे में है कि किस तरह दिए जाते हैं । ऊपर से पानी बरसना , नीचे से अंगूरों का पैदा होना क्या बिना खुदा के हुक्म से होता है ? ठीक इसी तरह समझो और यदि अपने शौक व दिलचस्पी पर समझना चाहो तो सुनो ।
पिछले जन्म के किए हुए पाप और पुन के अनुसार दंड या इनाम पाने वाला जीव पिछले शरीर को छोड़कर हवा , पानी , वनस्पति आदि आदि वस्तुओं में दाखिल होकर अपने पाप और पुन के अनुसार किसी योनि में पड़ता है । ” ( भूमिका – पृ0-137 )
लो जिस प्रकार हवा आदि में जीव घुस जाता है उसी तरह धरती में घुस जाता होगा मगर न किसी मनुष्य का बल्कि इसी धरती का । आपने कुरआन जबकि कुरआन सारी दुनिया की चीजों को ईश्वर की सम्पत्ति बताता है सुनो ।
लहु माफिस्समा वाति वमा फिल अर्ज़ि वमा बैनहुमा वमा तहत स्सरा ०
” जो कुछ आसमानों और जमीनों और इन दोनों के बीच में है और जो कुछ मिट्टी से नीचे है सब अल्लाह ही का है । ” ( सूरह ताहा -6 )
तो ऊंटनी को अल्लाह की ऊंटनी सुनकर आप क्यों हैरत करते हैं । सुनिए ! मैं आपको एक और अचरज की बात सुनाऊ , जिस पर अचरज करें तो वास्तव में ठीक होगा कि आप भी ईश्वर ही के हैं बल्कि आपकी पत्नी होती तो वह भी अल्लाह की होती । अतः जिस तरह और चीजें अल्लाह की हैं उसी तरह वह ऊंटनी भी अल्लाह की थी हां यह बात कि इस पर हैरत क्यों व्यक्त की तो इसका कारण यह है कि हज़रत सालेह अलैहि ० पैगम्बर की दुआ से ईश्वर ने पैदा की थी इसीलिए वह नाकतुल्लाह ( अल्लाह की ऊंटनी ) कहलायी ।
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( 92 )
” और सदैव रहने वाले बीच इसके जब तक रहें आसमान और धरती और जो लोग कि भाग्यशाली किए गए हैं अतः बीच जन्नत के हैं । सदैव रहने वाले बीच उसके जब तक रहे आसमान और धरती । ( आयत- 106-107 )
आपत्ति
जब जहन्नम और जन्नत में कयामत के बाद सब लोग जाएंगे तो फिर आसमान और ज़मीन किस लिए स्थापित रहेंगे ? और जब जहन्नम और जन्नत की स्थापना की अवधि आसमान और ज़मीन की स्थापना तक हुई तो जन्नत या जहन्नम में सदैव के लिए रहेंगे । यह बात झूठी हो गयी । ऐसी बातें जाहिलों की होती हैं । ईश्वर और विद्वानों की नहीं ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी हम से पूछ लेते कि जन्नत और जहन्नम कहां होंगे तो हम उनको बता देते कि धरती पर । सुनो , कुरआन स्वयं बताता है ।
” ( जन्नती कहेंगे ) सारी प्रशंसाएं अल्लाह ही के लिए हैं जिसने हमें इस जमीन का मालिक बनाया कि जन्नत में हम जहां चाहें रहेंगे । ” ( सूरह जुमर -74 )
स्वामी जी ! यही धरती यही आकाश थोड़े से परिवर्तन के साथ मौजूद होंगे । सुनो ।
” जिस दिन ( अर्थात कयामत के दिन ) ज़मीन व आसमान में परिवर्तन किया जाएगा और सब लोग एक ईश्वर के सामने निकलेंगे । ” ( सूरह इबराहीम – 48 )
” सदैव के लिए ” तब गलत होगा जब आप किसी आयत से आसमान व जमीन का अन्त होना , नष्ट हो जाना साबित करें वर्ना ये बच्चों की सी बातें छोड़ दें जिस तरह जन्नती जन्नत में रहेंगे उसी तरह आसमान व ज़मीन भी बचे रहेंगे ।
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( 93 )
सूरह यूसुफ – ” जब यूसुफ ने अपने बाप से कहा कि ऐ मेरे बाप ! मैंने एक सपने में देखा । ” ( आयत -4 )
आपत्ति
इस सूरह से बाप बेटे के बीच संवाद के रूप में किस्सा व कहानी मौजूद है इसलिए कुरआन खुदा का बनाया हुआ नहीं है किसी व्यक्ति ने आदमियों का इतिहास लिख दिया है ।
आपत्ति का जवाब
” यह मुंह और मसूर की दाल ” हमेशा से आर्य समाज को यही ख्याल रहा है कि ईश्वरीय किताब में किसी ज़माना ( अतीत ) का वर्णन न होना चाहिए मगर अफसोस कि इस किताब में हमने कई अवसरों पर वेद के मंत्रों से साबित किया है कि वेद में भी अधूरे से किस्से या किस्सों की ओर इशारे हैं । हमारा रिसाला हदूस वेद देखिए ।
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( 94 )
सूरह राअद । अल्लाह है वह व्यक्ति कि जिसने बुलन्द किया आसमानों को बिना स्तंभों के । देखते हो तुम उसको । फिर अर्श पर ठहरा और वशीभूत किया सूरज और चांद को । और वही है जिसने बिछाया जमीन को । उतारा है उसने आसमान से पानी बस बहे नाले साथ अपने अंदाज के । अल्लाह खोल देता है आजीविका और तंग करता जिसके वास्ते चाहे । ” ( आयत -2.3,15,22 )
आपत्ति
मुसलमानों का खुदा भौतिक ज्ञान कुछ भी नहीं जानता यदि जानता होता तो आसमान को जिस में कि भार नहीं है स्तंभ लगाने का उल्लेख न करता । यदि ईश्वर किसी विशेष स्थान पर अर्थात अर्श पर रहता है तो वह सर्व शक्ति मान और सर्व व्यापक नहीं हो सकता और यदि ईश्वर बादलों का ज्ञान जानता तो ” आसमान से पानी उतारा ” इसके साथ यह क्यों लिखता कि जमीन से पानी उस पर चढ़ाया । इससे साबित हुआ कि कुरआन का लेखक बादलों के ज्ञान को भी नहीं जानता था और सद व बुरे कर्मों के बिना दुख व सुख को देता है तो वह तरफदार और अन्यायी और पूरी तरह जाहिल है ।
आपत्ति का जवाब
” बड़ा ही पापी है वह व्यक्ति जो वाचक की मन्शा के खिलाफ कलाम के मायना करे । ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश – पृ 07 )
अर्श का विस्तृत जवाब न 0 70 में मिलेगा । आसमान के अस्तित्व का जवाब न 07.88 और 129 में दिया गया है अलबत्ता आसमान से वर्षा उतारने का विषय स्वामी जी को समझाना शेष है । यदि भूमिका पृ 0 52 पर अमल करते तो आज हमें यह समय और उनको यह अपमान न सहना पड़ता ।
तो सुनो ! अरबी में आसमान का मायना बुलन्दी और ऊपर की चीज के आते हैं इसलिए कभी तो यह नीला मालूम होता है और कभी बादल या जो कुछ हो सके क्योंकि ।
” सदैव स्थान व अवसर की मुनासिबत से आगे पीछे के संबंध व सम्पर्क को देख कर मायना करना चाहिए । ” ( भूमिका- पृ 0 52 )
कुरआन शरीफ बारिश के उतरने का हाल स्वयं बताता है सुनो ।
” क्या ( देखने वाले ) तू नहीं देखता कि अल्लाह बादलों को चलाता है फिर उनको जोड़ता है फिर एक तह लगाता है फिर तू बारिश को उससे निकलते देखता है और ऊपर से बड़े बड़े गुफ्फे उतारता है उनमें बड़ी ठंडक होती है फिर जिस पर चाहता है पहुंचाता है और जिससे चाहता है मुंह फेर लेता है । ( सूरह नूर -43 )
इन आयतों का केवल अनुवाद सुनने से ही समझ में आ सकता है कि कुरआन ने जो कुछ बयान किया वह सही है और आसमान से तात्पर्य ऊंची चीज अर्थात बादल है । सद व बुरे कर्मों का जवाब कई नम्बरों में आ चुका है । जब तक आर्य समाज और समाज के संस्थापक आवा गमन को साबित न कर लें और हमारी आपत्तियां उस पर से न उठा लें । इस मसले को निराधार बनाने के पक्षधर नहीं । ( देखो बहस तनासुख व इलहामी किताब लेखक खाकसार )
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( 95 )
” कि बेशक खुदा पथ भ्रष्ट करता है जिसे चाहता है और राह दिखाता है अपनी तरफ उस व्यक्ति को जो उसकी ओर पलटता है । ” ( आयत -23 )
आपत्ति
जब खुदा पथ भ्रष्ट करता है तो खुदा और शैतान में क्या फर्क हुआ ? जबकि शैतान दूसरों को पथ भ्रष्ट करने से बुरा कहलाता है तो खुदा भी वैसा ही काम करने से बड़ा शैतान क्यों नहीं ? और बहकाने के गुनाह के बदले उसे जहन्नम क्यों नहीं मिलना चाहिए ।
आपत्ति का जवाब
न 0 6 , न 0 11 में विस्तृत जवाब आ चुका है ।
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( 96 )
“ इसी तरह उतारा है हमने इस कुरआन को अरबी में और यदि अनुसरण करेगा तो इच्छाओं उनकी पीछे उस चीज़ के कि आए तेरे पास ज्ञान से । तो सिवाए उसके नहीं कि ऊपर तेरे पैगाम पहुंचाना है और ऊपर हमारे हिसाब लेना । ” ( आयत – 33-35 )
आपत्ति
कुरआन किस ओर से उतरा ? क्या खुदा ऊपर रहता है ? यदि यह बात सच है तो वह सीमित स्थान में होने से खुदा ही नहीं हो सकता । क्यों कि खुदा सर्व व्यापक है । संदेश पहुंचाना हरकारे का काम है और हरकारे की आवश्यकता उसे होती है जो मनुष्य के जैसा सीमित स्थान हो और हिसाब लेना देना भी मनुष्य का काम है खुदा का नहीं क्योंकि वह सर्व व्यापक है । यह तहकीक होता है कि कुरआन किसी सीमित बुद्धि वाले आदमी का बनाया हुआ है ।
आपत्ति का जवाब
कुरआन इस तरफ से उतरा है जिस तरफ से वेद उतरा है । समाजियो ! सुनो स्वामी जी क्या कहते हैं ।
” जिस तरह कि खुदा ने संस्क्रत में वेदों को अवतरित किया ऐसे ही कुरआन को उतारा। ” ( पृ 0 673 – सत्यार्थ प्रकाश )
खुदा के सर्व व्यापक होने का उल्लेख न 0 41 में आ चुका है हां यह भली कही कि ।
” सन्देष्टा हरकारा है और हरकारे की आवश्यकता उसको होती है जो सीमित स्थान में रहता हो । ”
यह तो सच है कि सन्देष्टा हरकारा ( सन्देश वाहक ) होते हैं मगर किसके ? सर्व शक्ति मान , निराकार , जगदीश्वर , एक अकेले ईश्वर के जिसका कोई साझी न हो , लेकिन दूसरा वाक्य गलत है वर्ना अग्नि वायु आदि वेदों को लाने वाली वस्तुओं की क्या जरूरत वर्ना साबित होगा कि परमेश्वर सीमित मकान वाला है ।
समाजियो ! तुम ही बताओ ठीक है ? हिसाब लेने से तात्पर्य दंड या इनाम का देना है जिसके कारण परमेश्वर बहुत से दुष्टों को भिन्न भिन्न योनियों में भेजता है क्योंकि वे साधना ( उपासना ) नहीं करते यही ईश्वरीय हिसाब है ।
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( 97 )
सूरह इबराहीम- ” और क्या सूरज और चांद को सदैव फिरने वाले । बेशक इन्सान जुल्म करने वाला है और इन्कार करने वाला है । ” ( आयत – 26-27 )
आपत्ति
क्या चांद और सूरज सदैव घूमते हैं और जमीन नहीं घूमती । यदि जमीन न घूमे तो दिन रात कई बरसों का हो । यदि इन्सान वास्तव में जुल्म और इन्कार ही करने वाला है तो कुरआन द्वारा पथ प्रदर्शन देना व्यर्थ है क्योंकि जिनकी प्रकृति गुनाह करने की है वह फिर सवाब करने की कभी न हो सकेगी लेकिन संसार में अच्छे व बुरे प्रकार के आदमी मौजूद हैं इसलिए ऐसी बातें खुदा की बनायी हुई किताब की नहीं हो सकतीं ।
आपत्ति का जवाब
अल्लाह रे ऐसे हुस्न पे ये बे नियाजियां
बन्दा नवाज आप किसी के खुदा नहीं
स्वामी जी न 0 42 में स्वयं ही सूरज को अपनी परिधि में घूमता हुआ मान आए हैं तो इसी तरह चाद भी घूमता है । यहां जमीन की हरकत और हरकत न करने का कुछ उल्लेख ही नहीं । इसके अलावा किसी दलील से जमीन की हरकत का सबूत भी दिया होता ।
स्वामी जी ! यदि अरबी लाजिक से अवगत होते तो हमें बड़ी आसानी थी कि उनसे इतना तो कह देते कि इन्सान को जिस शब्द में काफिर और जालिम कहा गया है वे यह हैं । इन्नल इन्साना लज लू मुन कफ फारा ० बेशक इन्सान बड़ा जालिम काफिर ना शुक्रा है । ” ( सूरह इबराहीम -34 )
ऐसे वाक्य को लाजिक विद्वान अंशिक कहते पूर्ण नहीं जिसके विस्तार से मायना यह हैं कि अंशिक तरीके से कुछ मानव जाति पर हुक्म है कि वह अपनी आदत में ऐसे होते हैं जैसे आप भी लिखते हैं ।
” कभी बिन पूछे या अन्याय से पूछने वाले को अर्थात जो धोखे से पूछता हो उसको जवाब न दे उनके सामने अक्ल मन्द आदमी शिथिल वस्तु की तरह खामोश रहे अलबत्ता जो धोखे से खाली और सत्य की तलाश में हो उनको बिना पूछे उपदेश दे । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 350 )
तो ऐसे लोगों के पक्ष में वेदों का ईश्वरीय संकेत होना ही व्यर्थ है । स्वामी जी ! इस तरह तो कुरआन की आयत का मतलब है कि कुछ लोग अपनी बुरी हरकतों व बुरी संगतों से ऐसे हठ धर्म और पक्के बन जाते हैं कि वे सम्बोधित किए जाने योग्य भी नहीं समझे जाते । प्रकृति तो सब की समान ही है ।
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( 98 )
सूरह हिज्र- ” तो जब ठीक कर लूं मैं उसे और फूंक दूं बीच उसके अपनी रूह तो गिर पड़ो उसको सज्दा करने के वास्ते । कहा- ऐ मेरे पालनहार ! इसके कारण पथ भ्रष्ट किया तूने मुझको अलबत्ता जीनत दूंगा मैं इन के बीच जमीन के और इनको गुमराह करूंगा । ( आयत – 27-37-46 )
आपत्ति
यदि खुदा ने अपनी रूह आदम साहब में डाली थी तो वह भी खुदा हुआ और यदि वह खुदा न था तो सजदा करने में अपना साझी क्यों किया ? जब शैतान को पथ भ्रष्ट करने वाला खुदा ही है तो वह शैतान का भी शैतान बड़ा भाई उस्ताद क्यों नहीं क्योंकि तुम लोग बहकाने वाले को शैतान मानते हो तो खुदा ने शैतान को बहकाया और मुंह पर शैतान ने कहा कि मैं पथ भ्रष्ट कर दूंगा। फिर उसको सजा देकर कैद क्यों न किया और मार क्यों न डाला ?
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी किसी चीज़ की दूसरी चीज की ओर वृद्धि कई तरह की होती है कभी आंशिक की कभी पूर्ण की और जैसे मेरा मुंह उसकी नाक आदि । कभी दास की स्वामी की ओर जैसे मेरी छड़ी मेरा मकान आदि । कभी वस्तु की उसके बनाने वाले की ओर जैसे लाडरस का चाकू आदि । कभी किसी तरह कभी किसी तरह । यहां पर क्योंकि आपने समझ लिया कि रूह की वृद्धि अल्लाह की ओर आंशिक और पूर्ण की तरह से है । लीजिए हम आपको बताते हैं कि यह वृद्धि भी दास की स्वामी की ओर है तो आयत के मायना साफ हैं कि-
” मैं जब आदम में अपनी सुष्टि की रूह डालू ‘ हां इस सूरत में यह सवाल होगा कि जब सारी रूहें अल्लाह की सष्टि हैं तो फिर इस वृद्धि से क्या फायदा । असल में इस वृद्धि से फ़ायदा उस रूह की बुजुर्गी का बयान करना है जैसे बाप अपने आज्ञा पालक लड़के को अपनी तरफ निसबत करके कहा करता है कि यह मेरा बेटा है । यह बातें मुख्य रूप से उस समय कुछ अधिक रोचक होती हैं जब हम भूमिका पृ०10 को अपने समक्ष रखें कि जहा
” मायना में असंभावना हो वहां अवास्तकिता होती है । असल बात तो यह है कि आदम अलैहि को अल्लाह ने ज़रा सी गलती पर वह सजा दी कि शायद दबाव , जिसका उल्लेख कुरआन में मौजूद है तो यदि आदम में अल्लाह की रूह होती जिससे आपका मतलब यह है कि आदम स्वयं खुदा होता तो यह सजा कौन देता । खुदा की शान तो यह है कि ।
” खुदा से कोई सवाल नहीं कर सकता और वह सब को पूछेगा । ” ( सूरह अम्बिया -23 ) हां यह भली कही-
” यदि वह खुदा न था तो सज्दा करने में शरीक क्यों किया ? ” स्वामी जी यहां भी भूमिका पृ0 10 और पृ0 52 को भूल गए । आदम को सज्दा ए इबादत न कराया गया था क्योंकि सज्दा ए इबादत खुदा के सिवा किसी के भी हक में जायज नहीं । सुनो ।
” ऐ खुदा हम तेरी ही उपासना करते हैं और तुझी से मदद चाहते ( सूरह फातिहा -4 ) मुसलमानों का कलिमा ( जो आज तक ईश्वर की कृपा से निशाने मुहम्मदी की तरह मुसलमानों के चेहरों पर चमक रहा है ) दूसरे की उपासना की जड़ काट रहा है । सुनो और समझो !! लाइला ह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह ” खुदा के सिवा कोई उपास्य नहीं और मुहम्मद उसके रसूल अतः सज्दा से तात्पर्य सलाम व नियाज है जो सामान्यता मातहत अफसरों से किया करते हैं । यह ठीक उन्हीं के मायना पूजा है जो
आपने लिखी है । ” बाप सच्चा उस्ताद और दर्वेश उन सब को पूजन करने की हिदायत है । इसी तरह मनु जी महाराज ने भी लिखा है कि स्त्री की पूजा करनी चाहिए । ” ( उपदेश मन्जरी पृ0 28 )
अतः जिस तरह यहां पर आपने पूजा के मायना आवभगत के लिए हैं यदि यही शब्द परमेश्वर के बारे में आए तो वहां उपासना के लेते हैं । इसी तरह आयत में समझइए क्योंकि । ” हरेक स्थान का मतलब उचित स्थान व अवसर देखकर अनुवाद करना चाहिए । ( भूमिका पृ0 52 ) शेष शैतानी बातों का जवाब न0 6,11 आदि में देखें ।
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( 99 )
और अलबत्ता हमने भेजे हैं हर उम्मत ( समुदाय ) के बीच सन्देष्टा । जब इरादा करते हैं हम उसको यह कहते हैं ” हो ” तो बस हो जाती है । ” ( आयत 33-38 )
आपत्ति
यदि सारी कौमों के लिए सन्देष्टा भेजे हैं तो वे सब लोग जो कि रसूलों की राह पर चलते हैं वे काफिर क्यों हैं ? क्या सिवाए तुम्हारे पैगम्बर के और किसी पैगम्बर का सम्मान नहीं । यह तो बिल्कुल पक्षपात की बात है । यदि सारे देशों में रसूल भेजे तो आर्य वरत में कौन भेजा ? इसलिए यह बात मानने योग्य नहीं । जब खुदा इरादा करता है और कहता है कि ऐ जमीन हो जा तो वह बेजान कैसे सुन सकती है ? ईश्वर का मात्र हुक्म किस प्रकार दुनिया बना सकता है ? और मुसलमान सिवाए खुदा के दूसरी चीज़ नहीं मानते तो किसने सुना और कौन हो गया ? यह सब अज्ञानता की बातें हैं ऐसी बातों को अनजान लोग मान लेते हैं ।
आपत्ति का जवाब
और कौमों को काफिर ( इन्कार करने वाली ) कहने का यह कारण है कि वे दीने मुहम्मदी अर्थात कुरआन से जो मुहयमिन ( रक्षक ) होकर और सारे नबियों की शिक्षा का निचोड़ बताने आया है । इन्कारी हैं । शेष सब लोगों को अपने बुजुर्गों की शिक्षा को बिगाड़ बिगाड़ कर सत्यानास कर दिया । देखो तो हिन्दुओं ने क्या किया कि वेद की ( आप ही के कथना नुसार ) एकेश्वर वादी शिक्षा को कैसे मूर्ति पूजा से बदला फिर बजाए मान लेने के उल्टा आर्यों से लड़ने मरने पर तुले बैठे हैं बल्कि यदि उनका बयान सच हो तो दयानन्दियों को भागते हुए राह नहीं मिलती ।
यही हाल ईसाइयों का है कि एक से तीन और तीन से एक तो आपने भी सुने होंगे । अतः इसी कारण दूसरी कौमें काफिर हैं और काफिर के शब्द से बुरा मानने की कोई वजह भी नहीं । ( देखो न० 20 ) हिन्दुस्तान के नबियों का नाम कुरआन में नहीं आया केवल इतना ही है ।
मिन्हुम मन कससना अलैक व मिन्हुम मन्लम नकसुस अलैक० कुछ ( रसूल ) हमने तुझे बताए हैं और कुछ नहीं बताए । ” ( सूरह मोमिन -78 )
अतः हम भी इतना ही जानते हैं कि हरेक उम्मत ( कौम ) में कोई न कोई अल्लाह की यातना से डराने वाला गुजरा है ।
” हिन्दुस्तान में भी कई एक रसूल आए हैं मगर नाम की हमें खबर नहीं । ( देखो मक्तूबात इमाम रब्बानी मुजद्दिद अल्फ सानी रह 0 )
अल्लाह के कुन ( हो जा ) कहने की बहस न0 27 में मौजूद है सिवाए खुदा के दूसरी चीज़ न मानने का विस्तृत जवाब इसी न0 में . देख लें ।
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( 100 )
” और निर्धारित करते हैं अल्लाह के वास्ते बेटियां । पाकी है उसको और उसके वास्ते है जो कुछ कि चाहे । कसम है अल्लाह की बेशक भेजे हमने पैगम्बर । ‘ ( आयल – 52-59 )
आपत्ति
अल्लाह बेटियों से क्या करेगा ? बेटियां तो किसी व्यक्ति को चाहिए । बेटे क्यों नहीं निर्धारित किए जाते ? और बेटियां निर्धारित की जाती हैं । इसका क्या कारण है ? बताइए । कसम खाना झूठों का काम है न कि खुदा का । क्योंकि प्रायः दुनिया में ऐसा देखने में आता है कि जो झूठा होता है वही कसम खाता है । सच्चे क्यों कसम खाएं ?
आपत्ति का जवाब
वाक्य न0 82 आदि में कहीं हम एक शेअर लिख आए हैं । यदि हमें यह भय न होता कि स्वामी जी के बार बार एक ही प्रकार के सवालों की तरह हमारा सोने से लिखने के योग्य शेअर भी बर्बाद हो जाएगा तो हम यहां भी उस शेअर को दोहराते । अतः हम पूर्व नम्बरों का हवाला देने ही पर सन्तोष करते हैं ।
स्वामी जी ने पहले की तरह यहां भी अनुवाद में अपनी अक्ल मन्दी का प्रदर्शन किया है । इस वाक्य में कि
” वास्ते उसके जो चाहे ” बेजा परिवर्तन किया है । आयात के मूल शब्द ये हैं । व लहुम मा यशत हून0 ( सूरह नहल –57 )
शाह रफ़ीउद्दीन साहब जिनके अनुवाद पर पंडित जी ने आधार शिला रखी है इस तरह अनुवाद करते हैं ।
यह है स्वामी जी की योग्यता और यह है उनकी बुद्धि मानी । सच ही कहा है ।
बने क्यों कर कि है सब कार उल्टा
हम उल्टे बात उल्टी यार उल्टा
चेलों की चालाकी
स्वामी दयानन्द ने जो कुरआन के साथ बर्ताव किया है वह तो पाठक देखते आए हैं उनके प्रभाव से उनके चेलों ने जो किया उसका नमूना भी देखने योग्य है । जब उन्होंने हक प्रकाश में स्वामी जी की ऐसी घिनौनी गलतियां देखीं तो सत्यार्थ प्रकाश के उर्दू एडीशन ( प्रथम ) के बाद कहीं कहीं उसका सुधार भी किया । अतएव इस अनुवाद का सुधार इस तरह किया ।
” निर्धारित करते हैं वास्ते अल्लाह के बेटियां पाकीजगी है उसको और निर्धारित करते हैं वास्ते अपने देखना जो कुछ चाहें । ( सत्याथ प्रकाश उर्दू एडीशन 4 पृ0 599 )
प्रिय पाठको ! इस शिक्षित पार्टी की स्थिति का अनुमान लगाइए कि दूसरे धर्म की किताब को कैसा बिगाड़ते हैं और दुनिया को अंधा जानते हैं या सत्य में स्वयं अंधे हैं । सच है ।
जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे ।
रही आपत्ति तो उसका जवाब देने को मन नहीं करता है बल्कि पाठकों की वजह से मुहावरे वाला अनुवाद ही कर देना काफी है । तो सुनो ।
” ये लोग मक्का के मुश्रिक ( फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियां ठहराते हैं सुबहानल्लाह । अल्लाह के लिए बेटियां और उनके लिए मन माने बेटे ।
तो आप ही न्याय करें कि इस अनुवाद और मतलब पर स्वामी जी महाराज हम मुसलमानों से क्या सवाल करते हैं । स्वामी जी समझे कि मुसलमान खुदा के लिए बेटियां प्रस्तावित करते हैं मगर यह खबर नहीं कि वे उन्हीं के भाई बिरादर मुश्रिकीने अरब थे जिनको इस आस्था पर आरोपित किया गया है ।
पड़े पत्थर समझ ऐसी पे वे समझे तो क्या समझे ।
कसम के बारे में खूब फलासफी निकाली कि जो ” झूठा ” होता है वही कसम खाता है । अदालतों में तो जज साहब गवाहों से अपने सन्तोष के लिए पहले कसम दिलाते हैं और गवाहों को नियमा नुसार शपथ भी उठानी पड़ती है । जिससे हाकिम को उनकी गवाही पर विश्वास होता है मगर स्वामी जी की जजी भी अलग है । हां यह सही है कि झूठे भी कसम खाया करते हैं मगर यह नहीं कि कसम का खाना झूठ की निशानी या दलील है बल्कि झूठे लोग झूठ को कसम के लिबास में छुपाते हैं न कि कसम खाकर झूठ का सबूत देते हैं ।
समाजियोः यदि तुम्हें अदालत में गवाही देने का अवसर आ जाए तो जज के शपथ देने पर साफ कह देना कि हमारे स्वामी जी का आदेश है कि सच्चे लोग कसम नहीं खाते । फिर देखना कि सत्यार्थ प्रकाश की पुस्तक भी कई दिन के लिए तुम से अलग रहती है कि नहीं ।
स्वामी जी ! आम मुहावरों में कसम वही मायना देती है जो शोध करने के बाद देती है जो यजुर वेद अध्याय 12 मंत्र 68 में उल्लिखित है जिसके बारे में आपने भी भूमिका पृ0 99 पर लिखा है कि ” शब्द बित्तहकीक ( शोध करना ) विश्वास दिलाना तो झूठों का काम है । प्रायः हमने देखा है कि झूठे आदमी विश्वास दिलाया करते हैं तो कहिए आप क्या जवाब देंगे ? बहुत जल्द जवाब दिया जाए जो हमारे काम भी आए ।
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( 101 )
” ये लोग वे हैं कि मुहुर रखी अल्लाह ने ऊपर दिलों के उनके । उनकी आखों , कानों पर और ये लोग वही है जो बेखबर और पूरा दिया जाएगा हर आत्मा को कि जो कुछ कि किया है और वह न जुल्म किए जाएंगे । ( आयत – 102-106 )
आपत्ति
जब अल्लाह ही ने मुहर लगा दी तो वे बेचारे निर्दोष ही मारे गए । क्योंकि उनको मोहताज बिल गैर कर दिया यह कितना बड़ा दोष है और फिर कहते हैं कि जिसने जितना किया है उतना ही उसे दिया जाएगा कम व ज्यादा नहीं । जब उन्होंने स्वयं अपने तौर पर गुनाह किए ही नहीं बल्कि अल्लाह के कहने से किए तो उनका क्या दोष है ? उनको फल न मिलना चाहिए उसका फल तो अल्लाह को मिलना चाहिए और यदि कर्म पूरे कर दिए जाते हैं तो माफ़ी किस बात की मांगी जाती है और यदि माफी दी जाती है तो न्याय कहां रह सकता है । ऐसी अंधा धुंध कार्रवाई अल्लाह की कमी हो सकती है अलबत्ता बे अक्ल छोकरों की हुआ करती है ।
आपत्ति का जवाब
न0 6 , 22 , 65 में विस्तृत जवाब हो चुका है इसके अलावा यहां पर इसी आयत से पहले इसका जवाब स्वयं मौजूद है सुनो ।
” उन्होंने दीन पर दुनिया को वरीयता दी है और इसलिए कि खुदा काफिरों को सौभाग्य भलाई का प्रदान नहीं करता । यही जिनके दिलों और कानों और आंखों पर अल्लाह ने मुहुर की हुई है और यही लोग गाफिल हैं । ” ( सूरह नहल -107 – 108 )
कहिए स्वामी जी ! लेख और विषय तो साफ है या नहीं ? सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 541 , समलास 12 न 0 27 में बौद्धों की गुमराही का लेख देख व पढ़कर जवाब देना । विस्तार के लिए न0 6 को देख लें ।
” नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका पृ0 52 )
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( 102 )
सूरह बनी इसराईलः ” और बनाया हमने जहन्नम को काफिरों के लिए कैदखाना और हर आदमी को लगा दिया हमने , उसका कर्मपत्र उसकी गर्दन के बीच उसकी । और निकालेंगे हम वास्ते उसे कयामत के दिन एक किताब कि देखेगा उसे खुली हुई और हमने बहुत विनष्ट किए ज़मानों से पीछे नुह के । ( आयत -12-16 )
आपत्ति
यदि काफ़िर वही हैं कि जो कुरआन पैगम्बर और कुरआन के कहे हुए खुदा , सातवें आसमान और नमाज आदि को नहीं मानते और उन्हीं के वास्ते जहन्नम है । तो यह बात मात्र तरफदारी की है क्या कुरआन ही के मानने वाले सब अच्छे और बाकी बुरे कभी हो सकते हैं । यह तो लड़कपन की बात है कि हरेक की गर्दन में कर्मपत्र हो । हम तो किसी एक की गर्दन में नहीं देखते । यदि इससे तात्पर्य कर्मो का बदला देना है तो फिर मनुष्यों के दिलों , आंखों आदि पर मुहुर लगाना और गुनाहों का माफ़ करना क्या खेल की बातें हैं ? कयामत की रात को खुदा किताब निकालेगा तो अब वह किताब कहां है ? क्या दुकानदारों के रोज़नामचों की भान्ति खुदा लिखता रहता है ?
यहां पर सोच विचार करना चाहिए कि यदि पहला जन्म ही नहीं है तो आत्माओं के कर्म कहां से आ गए और कर्म पत्र कहां से बन सकेगा ? और यदि बिना कर्म के लिखा गया तो खुदा ने उन पर जुल्म किया । सदाचार व दुराचार कर्मों के बिना उनको दुख व सुख क्यों दिया ? यदि कहो कि अल्लाह की मर्जी , तब भी उनसे जुल्म क्या अन्याय नहीं है क्या न्याय इसी को कहते हैं कि बिना अच्छे बुरे कर्मों का लिहाज़ किए दुख सुख का देना ? और क्या उस समय अल्लाह ही की किताब पढ़ेगा या कोई मीर मुन्शी सुना देगा । यदि खुदा ने ही लम्बी अवधि की पड़ी हुई आत्माओं को बिना दोष विनष्ट कर दिया तो वह जालिम हो गया । जो जालिम है वह खुदा नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
अल्लाह रे ऐसे हुस्न पे यह बे नियाजियां
बन्दा नवाज आप किसी के खुदा नहीं
क्या करें एक जगह नहीं , बीसों जगह एक ही सवाल को पेश किया जाता है । हां स्वामी जी महाराज ! वही काफ़िर है जो कुरआन के इन्कारी हैं जैसे वही नास्तिक है जो वेद के इन्कारी हैं । ( सत्यार्थ प्रकाश पृ0 347 , समलास 10 न0 8 ) या वही पथ भ्रष्ट हैं जो वेद का विरोध करते हैं ( सत्यार्थ प्रकाश पृ0 541 )
अरबी का मुहावरा तो भला दूर की बात थी अफसोस कि पंडित जी उर्दू के मुहावरे से भी अनभिज्ञ हैं । समाजियो ! यदि उर्दू से नफ़रत नहीं तो सुनो – ” तेरे उपकार से मेरी गर्दन दबती है । जैसे यहां गर्दन से तात्पर्य स्वयं वाचक हो । इसी तरह कुरआनी आयत में उनुक ( गर्दन ) से तात्पर्य स्वयं गर्दन वाला है ।अतः आयत के मायना साफ़ है कि खुदा फ़रमाता है कि हमने हरेक अपराधी के गुनाह उसी की गर्दन पर लादे हैं । यह नहीं कि कोई किसी का ज़मानती या परायश्चित हो सके जैसा ईसाइयों का विचार है ।
सुनो
कुरआन अपनी टीका करता है जिस आयत को स्वामी जी ने नक़ल किया है उसके साथ यह भी है
” जो कोई हिदायत पर आता है वह केवल अपने ही लिए आता है और जो गुमराह होता है वह अपना ही कुछ खोता है । कोई व्यक्ति किसी दूसरे का बोझ न उठा सकेगा । ” ( सूरह बनी इसराईल -14 )
कहिए स्वामी जी ! आगे पीछे स्थान एवं उचित अवसर देखे बिना मायना करना किन लोगों का काम है ? भूमिका पृ0 82 देखकर जवाब दें ।
पुनर्जन्म (आवागमन ) का जवाब पहले कई बार आ चुका है । अफसोस आयत में साफ शब्द मौजूद हैं – ” तू अपना कर्म पत्र स्वयं पढ़ ले तू ही हिसाब के लिए काफी है । ” ( बनी इसराईल -14 )
फिर भी स्वामी जी पूछते हैं कि खुदा पढ़ेगा या कोई मुन्शी सुना देगा । सच है ।
” हठ धर्मी सदैव वाचक की मन्शा के खिलाफ मायना निकाला करते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ07 )
निर्दोष गुनाह का लिखना तो जुल्म है । कुरआन की शिक्षा से मालूम होता है कि जुल्म खुदा की आदत नहीं अलबत्ता वेदिक शिक्षा का मन्शा है कि ऐसा न हो कि सब बन्दे सदाचारी हो जाएं वर्ना परमेश्वर को फिर समय का सामना होगा । ( देखो ईश्वरीय किताब पृ 0 15-16 )
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( 103 )
” और दी हमने समूद को ऊंटनी दलील , और बहका जिसे बहका सके । जिस दिन बुलाएंगे हम सब को उनके पेशवाओं के साथ अतः जो कोई दिया गया कर्म पत्र उनके दाए हाथ में । ” ( आयत 57-62-68 )
आपत्ति
वाह जी वाह ! जितने आश्चर्य जनक निशान हैं । उनमें से एक ऊंटनी भी अल्लाह के होने में दलील का काम देती है । यदि खुदा ने शैतान को बहकाने का हुक्म दिया है तो खुदा ही शैतान का सरदार और सारे गुनाह कराने वाला हुआ । ऐसे को खुदा कहना केवल कम समझ आदमियों की बातें हैं और यदि कयामत के दिन न्याय के लिए रसूल और उसके अनुयायियों को खुदा बुलाएगा तो जब तक कयामत न होगी तब तक क्या यूं ही अधर में लटके रहेंगे तो यह कि उनको यूं ही लटका कर तकलीफ न पहुंचायी जाए बल्कि तुरन्त उनको न्याय दिया जाए और यही एक न्याय धीश का उच्चतम कर्तव्य है ।
यह तो पोपान बाई का न्याय हो गया । जैसे कोई न्यायधीश कहे कि जब तक पचास साल के चोर और साहूकार इकट्ठा न होंगे तब तक उनको इनाम या दंड नहीं दिया जाएगा । यह किस प्रकार का न्याय है कि एक व्यक्ति तो पचास साल तक अधर में लटका रहे और दूसरे का आज ही फैसला हो जाए । यह न्याय का तरीका नहीं हो सकता । न्याय के लिए तो वेद और मनु स्मृति देखो जिसमें लिखा है कि क्षण भर की देरी भी नहीं होती और जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार इनाम या दंड पाते रहते हैं और रसूलों को गवाही में रखने से अल्लाह के सर्वज्ञाता होने में फर्क आ जाएगा । भला ऐसी किताब खुदा की बनाई हुई और ऐसी किताब का पथ प्रदर्शन करने वाला खुदा कभी हो सकता है ? कदापि नही
आपत्ति का जवाब
ओहो ! ओहो ! स्वामी जी ऊंटनी को क्या कम निशानी समझते हैं । सुनिए कुरआन बताता है
” मुश्रिक ( बहुदेव वादी ) ऊंटनी की ओर नहीं देखते कि कैसे बनाया गया है । ” ( सूरह गाशियह )
विस्तृत बहस ऊंटनी की न0 97 में है । अफसोस स्वामी जी को इतनी भी खबर नहीं कि अम्र ( आदेश का ) कलिमा कई मायनों के लिए इस्तेमाल होता है । काई काम कराने के लिए जो वाचक की मन मर्जी और कमी झिड़क व ना पसन्दीदगी के लिए जैसे उच्च अधिकारी अपने मातहत को कहें ।
” हमारे सामने से चले जाओ ।
‘ इसी तरह और भी कई एक भायना में यह अम्र का कलिमा इस्तेमाल होता है । पंडित जी ने इन दोनों मायनों में भेद नहीं महसूस किया और यह नहीं समझा कि यह कलिमा अम्र कुन ( हो जा ) के मायना में है । शैतान को खुदा का हुक्म देना इन मायना से है जिनसे उच्च अधिकारी तनिक नाराजगी के स्वर में कहा करता है कि ” जाओ झक मारो मेरे सामने से हट जाओ । इस कलाम के यह मायना समझने कि एक अधिकारी झक मारने का हुक्म देता है स्वामी जी जैसे विद्वानों का काम नहीं- सुनिए कुरआन स्वयं बताता
” कुछ संदेह नहीं कि अल्लाह न्याय और उपकार और रिश्ते दारों को देने का हुक्म करता है और अश्लील और नाजायज कामों और जुल्म व अत्याचार से मना करता है । ” ( सूरह नहल -90 )
खास शैतान के संबंध में यह हुक्म मौजूद है ।
“ ऐ शैतान तुझे और तेरी चाल पर चलने वालों को जहन्नम में डालूंगा । ” ( सूरह स्वाद -85 )
इसी आयत से आगे जिसे पंडित जी ने नकल किया है स्पष्ट रूप से बताया गया है- सुनो
” ऐ शैतान ! निस्संदेह तू लोगों को वायदा सुना । बेशक शैतान के वायदे सरासर धोखे व फरेब के हैं । ” ( सूरह बनी इसराईल -64 )
स्वामी जी का कहना बिल्कुल सच है । ” आगे पीछे स्थान व उचित अवसर को न देखकर मायना निकालने वाले नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान
नहीं होता । ( भूमिका – पृ0 52 )
कयामत के बारे में न0 15 आदि में विस्तार से लिखा है हां यह खूब कही कि न्याय के लिए क्षण भर देरी नहीं होती । स्वामी जी इस जून में यदि किसी अपराधी डाकू की आयु तीन चार सौ साल की हो जाए या इतनी न सही सौ साल की उम्र के तो अब भी बहुत से मौजूद हैं तो उनके बुरे कामों की सजा या इनाम तो दूसरे जन्म में ही मिलेगा । फिर आप क्यों कहते हैं कि क्षण भर की देरी नहीं होती । यह विचित्र बात है कि आंख किसी की तो आज फोडी और सज़ा सौ साल के बाद और वह भी ऐसे हाल और होश में कि अपराधी को खबर भी नहीं कि यह सजा किस अपराध के लिए है यद्यपि आप स्वयं ही लिखते हैं ।
” सजा देने से उद्देश्य यह है कि लोग सजा पाकर गलती से बाज़ आने के दुख न पाएं । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ0 233 )
लेकिन जब अपराधी को पता ही नहीं तो आगे वह ऐसे अपराध से किस प्रकार बच सकता है । ( विस्तृत जानकारी के लिए रिसाला बहस तनासुख लेखक फ़कीर में देखिए ) रसूलों की गवाही भी अपराधियों को कायल करने के लिए होगी न कि खुदा को जतलाने के लिए क्योंकि खुदा परोक्षज्ञाता है । सुनो ।
” खुदा छुपे और खुले सब को जानता है । बड़ी बुजुर्गी वाला बहुत ऊंचे दर्जे वाला ।बराबर है कोई तुम में से ऊंचे बोले या चुपके और जो रात को छुपा हुआ और जो दिन में चल रहा हो उसे सब मालूम ( सूरह राअद -9-10 )
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( 104 )

सूरह कहफ –
” ये लोग , इनके वास्ते बाग हैं हमेशा रहने के लिए । चलती है इनके नीचे नहरें । गहना पहनाए जाएंगे बीच उनके कंगन सोने के और लिबास पहनेंगे कपड़े सब्ज लाही के से और गाऊ तकिए किए हुए बीच उसके ऊपर तख्तों के अच्छा है सवाब और अच्छी है जन्नत फायदा उठाने में । ” ( आयत -30 )
आपत्ति
वाह जी वाह ! क्या कुरआन की जन्नत है जिसमें बाग जेवर , कपड़े गद्दे तकिए आराम के वास्ते हैं । कोई अक्ल मन्द यहां पर सोच विचार करे तो मालूम होगा कि यहां से वहां अर्थात मुसलमानों की जन्नत में ज्यादती कुछ भी नहीं है सिवाए बे इन्साफी के और वह है कि कर्म तो उनके सीमित हैं और फल उनके असीमित । यदि मीठा ही रोज खाया जाए तो थोड़े दिन में विष की तरह मालूम होने लगता है । जब वे सदैव सुख भोगेंगे तो उनके लिए सुख ही बड़ी मुश्किल से दुख हो जाएगा इसलिए महा कल्प तक मुक्ति सुख भोग कर दो बारा जन्म पाना ही सच्चा मसला है
आपत्ति का जवाब
बेशक यही मुसलमानों की जन्नत है और यही इन्शा अल्लाह उनको मिलेगी और इसी से काफिर वंचित किए जाएंगे । विस्तृत जानकारी न0 15 आदि में देखें- हां यह भली कही कि सदैव सुख भोगेंगे तो उनके लिए सुख भी बड़ी मुश्किल से हो जाएगा ।
समाजियो ! सारी उम्र आराम न किया करो , बल्कि कभी कभी बे आरामी और बेचैनी में भी जानकर पड़ा करो बल्कि बड़े घर की सैर भी किया करो वर्ना गुरू का झुठलाना तुम पर थोपा जाएगा जो हमें किसी तरह भी स्वीकार नहीं ।
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( 105 )

” और ये बस्तियां कि तबाह किया हमने इनको जब जुल्म किया उन्होंने और किया हमने वास्ते हलाक इनसे किए वायदे पर । ” ( आयत -58 )
आपत्ति
भला क्या सारी बस्ती के रहने वाले गुनाह गार हो सकते हैं ? और पीछे वायदा करने से मालूम हुआ कि खुदा सर्वज्ञाता नहीं है क्योंकि जब उनका जुल्म देखा तो वायदा किया । क्या पहले नहीं जानता था । इन बातों से निर्देयी ही साबित हुआ ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! आपके आगमन से पहले सारी व्यवस्था थी या नहीं या गाजी महमूद गजनवी की सेना और सारे देश दुष्ट थे या नहीं ? फिर ऐसा सवाल करना कि सारी बस्ती के लोग गुनाहगार हो सकते हैं ? कैसा दावा है । इसके अलावा जो लोग उन बस्तियों में सदाचारी होते थे उनको बचाया जाता था । सूरह हूद में अम्बिया ( नबियों ) के विस्तृत किस्से आप पढ़े होते तो आपको मालूम होता कि जो लोग नबियों के अधीन होते उनको नबियों के साथ बचाया जाता था मगर चूंकि उनकी संख्या भी उतनी होती थी जितनी कि समाजियों के सनातन धर्मी हिन्दुओं के मुकाबले में खास तौर से आपके जीवन में थी । इसलिए सामान्यता पूरी बसती के तबाह होने की बात बतायी गयी । यह तो एक सामान्य शिकायत है कि आप ने इस आयत के मायना नहीं समझे । मूल शब्द ये हैं । सुनो ।
अर्थात पहले पहल लोगों को जिन्होंने उदंडता की हमने तबाह किया और उन मक्का के बहुदेव वादियों की तबाही का भी एक समय निर्धारित है पिछले वाक्य को स्वामी जी ने पहले लोगों से संबंधित समझा और यदि पहले लोगों से भी हो तो यह कैसे मालूम हुआ कि पीछे वायदा किया गया ? क्या यह कलाम सही नहीं कि हमने इनको तबाह किया और इनकी तबाही का एक निर्धारित समय था इससे तो अल्लाह के सर्वज्ञाता होने की विशेषता मालूम होती है न कुछ और मगर इसका क्या इलाज हो कि । ” हठ धर्मी धर्म के अंधेरों में बुद्धि को भ्रष्ट कर लेते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ07 )

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( 106 )

” और वह जो लड़का तो थे उसके मां बाप ईमान वाले अतः डरे हम यह कि गिरफतार करे उनको उदंडता और कुफर में । यहां तक कि जब पहुंचा जगह डूबने सूरज के । तो पाया उसे डूबता था बीच चश्मे कीचड़ के । कहां उन्होंने ऐ जुल करनैन बेशक याजूज माजूज फसाद करने वाले हैं जमीन पर । ” ( आयत – 79-84-91 )
आपत्ति
भला यह खुदा की कितनी नादानी है । उसे यह संदेह हुआ कि कहीं यह लड़कों के मां बाप मुझ से विद्रोही न बना दिए जाएं । यह कदापि खुदा की बात नहीं और ला इल्मी की बात देखिए कि इस किताब का लेखक सूरज को एक झील में रात के समय डूबता हुआ समझता है और यह कि सुबह को फिर निकल आता है । सूरज तो जमीन से बहुत बड़ा है वह किसी नदी या झील या समुन्द्र में किस तरह डूब सकता है ?
इससे यह मालूम हुआ कि कुरआन के लेखक को भूगोल शास्त्र या खगोल शास्त्र का भी ज्ञान नहीं आता था यदि आता तो ऐसी ज्ञान से परे की बातें न लिखता इस किताब के अनुयायी भी जाहिल हैं यदि ज्ञानी व विद्वान होते तो ऐसी झूठी बातों से भरी हुई किताब को क्यों मानते ? और वह देखिए खुदा का न्याय स्वयं ही तो जमीन को बनाने वाला बादशाह और आदिल है और स्वयं ही याजूज और माजूज को जमीन पर फ़साद करने देता है यह उसकी खुदाई की शान के योग्य नहीं । ऐसी किताब को वहशी लोग ही मान सकते हैं विद्वान नहीं ।
आपत्ति का जवाब
किसी पंडित जी ने एक आर्य समाजी से कहा- भाई साधना किया कर । समाजी बोला- साहब ! आपने दावत की थी नमक ज्यादा डाला था । पंडित जी बोले उसका इससे क्या संबंध ? समाजी ने कहा बात से बात निकल आती है ।
यही हाल हमारे पंडित जी स्वामी महर्षि जी का है बात से बात निकालना तो उनके बाए हाथ का खेल है । मगर अफसोस ।
स्वामी जी ने यह कलाम खुदा का समझा यद्यपि हज़रत खिज्र अलैहि0 का कलाम मन्कूल है । तो आप की सारी पोल खुल गयी । अतः हमारा न्याय देखिए कि हम आपके कलाम पर हां करते हैं कि यह कदापि खुदा की बात नहीं हो सकती ।
समाजियो ! हमारे न्याय की दाद दो और तुम भी ऐसे ही न्याय वाले बनो । स्वामी जी इस वाक्य से बड़े नाराज मालूम होते हैं महाराज सब ठीक तो है ? इतना तो समझए कि जिस धर्म को करोड़ों आदमी मानते हैं उसे झूठा कहने वाला कौन है ? ( सत्य प्रकाश देखकर जवाब दीजिए ) लीजिए साहब ! हम आपको राजी कर लेते हैं नाराज होने की कोई बात नहीं है ।
जिस शब्द का यहां अनुवाद “ पाया ‘ किया गया है वह कुरआन में व ज द का शब्द है । अरबी व्याकरण की छोटी छोटी किताबों में इस शब्द को अफआल कुलूब से लिखा है जिसके मायना यह हैं कि उस ( सिकन्दर या जुल करनैन क्योंकि इस स्थान पर उसी का जिक्र है ) ने जब वह समुन्द्र के किनारे पर पहुंचा तो अपने मन में सूरज को समन्द्र के पानी में डूबता समझा अर्थात उसके विचार में यूं आया कि सूरज उस पानी में डूबता है अतएव समुन्द्र के किनारे पर खड़े होने वाले आजकल भी ऐसा ही समझते हैं । इसकी तसदीक खुदा की ओर से कोई नहीं हुई कि हां वास्तव में सूरज समन्द्र में डूबता है ।
समाजियो ! आगे पीछे को बिना देखे कलाम के मायना करने वाले कौन होते हैं ( भूमिका पृ 0 52 ) को देख कर जवाब देना याजूज और माजूज के फसाद को न रोकने का जवाब न 0 11 में आ चुका है । हमारे इस जवाब पर आप उपदेश मंजरी पृ 0 60 पर हस्ताक्षर कर चुके हैं वर्ना बताओ गाजी महमूद गजनवी को आर्य वरत से ईश्वर ने क्यों न रोका ?
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( 107 )
सूरह मरयम ” और याद करो बीच किताब के मरयम को जब जा पड़ी लोगों अपने मकान से पूर्व में । तो पकड़ा उनसे उधर पर्दा । तो भेजा हमने उसकी ओर अपनी रूह को । तो सूरत पकड़ी वास्ते उसके आदमी स्वस्थ की । कहने लगी बेशक मैं पनाह पकड़ती हूं साथ रहमान के तुझसे यदि है तू अल्लाह से डरने वाला । कहने लगा सिवाए इसके नहीं कि मैं भेजा हुआ हूं तेरे रब का ताकि प्रदान कर जाऊं तुझको एक पवित्र लड़का । कहा क्योंकर होगा मेरे लड़का जबकि नहीं हाथ लगाया मुझे किसी आदमी ने और न मैं बदकार हूं । तो गर्भवती हो गयी साथ उसके । अतः जा पड़ी साथ उसके मकान दूर में अर्थात जंगल में । ” ( आयत – 12-16-18 )
आपत्ति
अक्लमन्द सोच विचार करें कि यदि सब फ़रिश्ते खुदा की रूह हैं तो वे खुदा से अलग वजूद नहीं हो सकते और वह जुल्म कि उस मरयम कुंवारी के लड़का होना जो किसी से संभोग करना नहीं चाहती थी लेकिन खुदा के हुक्म से फ़रिश्ते ने उसे गर्भवति किया यह न्याय के खिलाफ है । यहां और भी शालीनता के विरुद्ध बहुत सी बातें लिखी हैं उनको लिखना उचित नहीं समझा ।
आपत्ति का जवाब
फरिश्तों या किसी और चीज़ का अल्लाह की रूह होना न0 98 में विस्तार से आ चुका है । स्वामी जी यह जुल्म कि सिद्दीका मरयम के बारे में यह लिख मारा कि किसी से संभोग नहीं करना चाहती थी । ऐसा झूठ बोलना साधुओं का काम है ? यह किस शब्द का अनुवाद है ? कोई बात न्याय के विरुद्ध नहीं बल्कि खुदा की कुदरत का प्रकटन है कि जिसने अग्नि वायु आदि को जवान जवान पैदा किया । वह बे बाप भी पैदा कर सकता है । अफसोस अपने बाकी अशलील को आप दबा गए वर्ना वह भी देख लेते । शायद न0 11 वाला तो नहीं ईसाइयो ! कहां हो ?
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( 108 )
क्या नहीं देखा तूने यह कि भेजा हमने शैतानों को ऊपर काफिरों के बहकाते हैं उनको बहकाने का । ( आयत -78 )
आपत्ति
जब खुदा ही शैतानों को बहकाने के लिए भेजता है तो बहक जाने वालों का कुछ दोष नहीं हो सकता और न उनको सज़ा हो सकती है और न शैतानों को क्योंकि यह खुदा के हुक्म होता है इसका फल खुदा को मिलना चाहिए यदि सच्चा न्याय करने वाला है तो इसका फल अर्थात जहन्नम आप ही भोगे और यदि न्याय को छोड़ कर अन्याय करता है तो वह पक्षपाती हो गया और तरफ़दार ( पक्षपाती ) ही को गुनाहगार कहते हैं ।
आपत्ति का जवाब
न0 6 , 65 आदि में विस्तृत जवाब आ चुका है । स्वामी जी को तो न बढ़ाने की आदत है ।
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( 109 )
सूरह ताहा ” और बेशक मैं ( अल्लाह ) बख्शने वाला हूं से सब कुछ वास्ते उस व्यक्ति के कि तौबा की और ईमान लाया और अच्छे अमल किए फिर राह पायी । ( आयत -76 )
आपत्ति
तौबा से गुनाह माफ़ होने के बारे में जो कुरआन में लिखी है वह सब गुनाहगार बनाने वाली है क्योंकि गुनाहगारों को उस गुनाह को करने का साहस मिलता है इसलिए यह किताब और उसका लेखक गुनाहगारों को गुनाह करने में साहस जुटाते हैं अतः यह किताब अल्लाह की किताब और इसमें बयान किया गया खुदा सच्चा खुदा नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
तौबा की बाबत न 0 22 में विस्तृत उल्लेख है देख लें । स्वामी जी की तरह एक ही बात को बार बार लिख कर समझदारों की नजर में लज्जित होना हम नहीं चाहते ।
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( 110 )
सूरह अम्बिया – ” और किए हमने बीच जमीन के पहाड़ , ऐसा न हो कि हिल जाए । ( आयत -31 )
आपत्ति
यदि कुरआन का लेखक धरती के घूमने आदि को जानता तो यह बात कभी न कहता कि पहाड़ों के रखने से जमीन नहीं हिलती । सन्देह हुआ कि यदि पहाड़ न रखता तो हिल जाती । पहाड़ रखने पर भी भूकम्प के समय क्यों हिल जाती है ?
आपत्ति का जवाब
अलबत्ता यह वाक्य समाजियो की तवज्जोह के योग्य है यद्यपि हम पहले भी लिख आए हैं बल्कि सदैव लिखेंगे फिर भी इस अवसर पर तो यह लिखना बिल्कुल मुनासिब है ।
स्वामी जी ! आयत का मतलब है कि जमीन पानी की अधिकता के कारण हिलती थी जैसे वे लोहा लग जहाज या लकड़ी की बेड़ी पानी पर हिलती है अतः खुदा ने पहाड़ों को लोहे की बड़ी कीलों की तरह गाड़ दिया तो बेडोल हिलने से ठहर गयी ।
इन मायना पर कुरआन से दलील सुनना चाहो तो सुनो
” हम ( खुदा ) ने जमीन को रहने के लिए एक गहवारा की तरह बनाया और पहाड़ों को उसकी मीखें ( बड़ी कीलें ) ” ( नवा – 6-7 )
तो यदि अंग्रेजी भौतिक विज्ञान के उसूल को मानकर ( जिनके मानने के लिए हमें धर्म की रू से कोई रोक नहीं है यदि है तो ज्ञान विज्ञान के तरीके से कि दलील नहीं रखते ) भी हम बात करें तो यह कह सकते हैं कि यह आयत इनकी पुष्टि करती है क्योंकि बेड़े की हरकत बिना लोहे के जिस प्रकार डांवा डोल होती है यदि पहाड़ न होते तो इस तरह जमीन की हरकत डांवा डोल होती । पहाड़ों के जमाने से एक मन्शा यह भी है कि जमीन की हरकत नियमित रूप से हो । अतः जिस हरकत का सबूत वर्तमान ज्ञान से होता है उसका तोड़ और इन्कार कुरआन ने नहीं किया है और जिसका तोड़ व इन्कार किया है वह इस भौतिक विज्ञान से साबित नहीं होता ।
हमारे इस लम्बे बयान से भूकम्प का जवाब भी आ गया क्योंकि जिस हरकत का इन्तज़ाम पहाड़ों से कुरआन ने बताया है वह एक असाधारण डांवा डोल हरकत है जैसे पानी पर हल्की सी चीज़ सामान्यता हिला करती है और भूकम्प इस तरह से नहीं बल्कि ये तो किसी खास समय में किसी अग्नि मिश्रित पदार्थों की गर्मी व तीव्रता से किसी विशेष अवसर पर हरकत होती है । इन दोनों में बहुत अन्तर है ।
” मगर नापाक बातिन वाले जाहिलों को ज्ञान कहां । ” ( भूमिका – पृ0 52 )
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( 111 )
” और पथ प्रदर्शन किया उस औरत को कि रक्षा की उसने अपने सतीत्व की । तो फूक दिया हमने बीच उसके अपनी रूह ( आयत 1-80 )
आपत्ति
ऐसी गन्दी व अशलील बातें खुदा की किताब में खुदा की तो क्या किसी शालीन व्यक्ति की भी नहीं हो सकती जबकि मनुष्य ऐसी बातों का लिखना अच्छा नहीं समझते तो खुदा के सामने किस तरह अच्छा हो सकता है ? ऐसी बातों से कुरआन बदनाम हो गया है अगर इसमें अच्छी बातें होती तो इसकी बड़ी प्रशंसा होती जैसी कि वेदों की होती है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! ठीक ठाक तो हैं ? कैसी गंदी व अशलीलता की बातें एक तो बतायी होती । क्या नियोग का उल्लेख आ गया ? कहिए तो सही , हां अब समझे कि औरत का ज़िक्र आ गया ।
स्वामी जी कहीं रूह फूंक देने को तो गन्दा व अशलील नहीं कहते ? नहीं ऐसा क्यों कहने लगे जब स्वयं ही इन बातों का जिक्र किया करते हैं और लोगों को उपदेश दिया करते हैं । समाजियो सुनो !
” मासिक धर्म के प्रकट होने के पांचवे दिन से लेकर सोलहवें दिन तक जो संभोग का समय है इससे पहले के चार दिन छोड़ देने चाहिए । शेष जो बारह दिन रहे उनमें ग्यारहवीं और तेरहवीं रात को छोड़ कर शेष दस रातों में संभोग करना गर्भ के लिए अच्छा है । मासिक धर्म के शुरू होने के दिन से लेकर सोलहवीं रात के बाद संभोग नहीं करना चाहिए और जब तक कि दोबारा निर्धारित समय संभोग का जैसा कि बताया गया है न आए तब तक और गर्भ ठहर जाने के बाद एक साल तक सभाग न करे । ” ( सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 2 101 )
और सुनिए
जैसे ऐलानिया विवाह वैसे ही ऐलानिया नियोग । जिस प्रकार विवाह में भले लोगों की राय और दुल्हन की रजा मन्दी होती है वैसे ही नियोग में भी होनी चाहिए अर्थात जब औरत मर्द का नियोग (नियोग की परिभाषा न0 38 में देखें ) होना हो । तब उसे अपने परिवार में मर्द व औरतों के सामने प्रकट करे कि हम दोनों नियोग , सन्तान पैदा करने के उद्देश्य से करते हैं । जब नियोग का उद्देश्य पूरा हो जाएगा तब हमारे संबंध टूट जाएंगे। यदि इसके विरुद्ध करेंगे तो पापी और जाति या राजा की सजा के भोगी होंगे । महीने में एक बार आदान ( संभोग ) ( न जाने इस शब्द का अनुवाद संस्क्रत में क्यों किया गया ) का काम करेंगे ( तौबा तौबा ऐसी गन्दगी व अश्लीलता ? स्वामी जी आप कहां हैं ?) गर्भ के दौरान के एक साल बाद तक अलग रहेंगे । ” ( सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 2 , न0 123 )
आर्य सज्जनो ! तुम कहोगे स्वामी जी का क्या ? वे तो एक ईश्वरीय संकेतों से वंचित व्यक्ति थे । ईश्वरीय ग्रंथों में ऐसा न होना चाहिए । तुम्हारा यह विचार हो तो सुनो तुम्हारे ईश्वरीय ग्रंथों में परमात्मा का कथन है ।
” पुरूष का लिंग स्त्री की योनि में घुसने पर मुख्यता वीर्य छोड़ता ( यजुर वेद अध्याय – 19 मंत्र 76 ) समाजियो बताओ ! जब मनुष्य ऐसी बातों का लिखना अच्छा नहीं समझते तो खुदा क्यों समझने लगा । विश्वास न हो तो दोनों वाक्यों ( कुरआन और वेद ) किसी भले ब्रहमो आदि को सुनाकर देख लो ।
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( 112 )
सूरह हज- ” क्या नहीं देखा तूने यह कि अल्लाह को सज्दा करते हैं वास्ते उसके जो कोई बीच आसमानों और ज़मीन के हैं । सूरज , चांद , तारे , पहाड़ , पेड़ और जानवर पहनाए जाएंगे बीच उनके कंगन सोने से और मोती के और लिबास उनका रेशमी है और पाक रख मेरे को वास्ते परिक्रमा करने वालों के और खड़े रहने वालों के फिर चाहिए कि दूर करें मैल अपनी और पूरी करे अपनी नरें और प्राचीन घर की परिक्रमा करें तो कह कि याद करें हम नाम अल्लाह का । ” ( आयत 17 , 21 , 24 , 27 , 32 )
पाठको ! अनुवाद का मतलब समझ में न आए तो स्वामी जी की आत्मा को सवाब पहुंचाएं जिन्होंने हेर फेर किया है )
आपत्ति
जो निर्जीव वस्तुएं हैं वे खुदा को जान ही नहीं सकतीं तो फिर उसकी उपासना किस तरह कर सकती हैं ? इसलिए यह किताब अल्लाह का कलाम नहीं हो सकती । हां , किसी पथ भ्रष्ट की बनाई हुई मालूम देती है । वाह बड़ी अच्छी जन्नत है कि जहां सोने मोती के आभूषण और रेशमी लिबास पहनने को मिलते हैं । यह जन्नत तो यहां के राजाओं से कुछ बढ़कर नहीं है और जब खुदा का घर है तो वह उस घर में रहता भी होगा फिर मूर्ति पूजा क्यों न हुई और दूसरे मूर्ति पूजकों का खंडन व निंदा क्यों करते हो ? जब खुदा नजर लेता है और अपने घर की परिक्रमा करने का आदेश देता है और जानवरों को मरवाकर खिला सकता है तो ये खुदा मन्दिर वाले भैरों व दुर्गा की भान्ति नहीं हुआ और कट्टर मूर्ति पूजा का कारण भी यही है । बुतों से मस्जिद बड़ा बुत है इसलिए खुदा और मुसलमान बड़े मूर्ति पूजक और पोरानी व जैनी छोटे मूर्ति पूजक हैं ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी की जबान भी हज्जाज की तलवार से कम नहीं I मगर कैसा पापी है वह मनुष्य जो धर्म के अंधियारे में फंस कर वाचक की मन्शा के विरुद्ध मायना निकालता है ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ. 07 ) स्वामी जी की यह आदत बड़ी बेढब है कि विभिन्न स्थानों की आयतों को एक जगह जमा कर देते हैं जिससे उनका मूल उद्देश्य तो यह होता है कि कुरआन के बारे में अपने चेलों को गुमराह करें कि इसमें ऐसी ऐसी गड़बड़ है कि कुछ समझ में नहीं आता मगर यह नहीं जानते कि दिन में अंधे को नजर न आने से दिन की गलती साबित नहीं होती ।
स्वामी जी सुनिए ! सजदा का मायना फरमां बरदारी और शिष्टाचार के हैं हां हर चीज़ का आज्ञापालन और शिष्टाचार अपनी अपनी हैसियत के अनुसार होती है अतः आयत का मायना साफ़ हैं कि- ” ज़मीन व आसमान की सारी चीजें ईश्वर की आज्ञा पालक हैं जो जो काम उनके हवाले हैं वे उनको बड़े अच्छे तरीके से पूरा कर रही हैं । कुरआन से गवाही इन मायनों की सुननी हो तो सुनो ।
” हरेक चीज ईश्वर की आज्ञा पालक हैं ”
जन्नत का जवाब पहले कई बार आ चुका है यहां पर इतना ही काफी है कि स्वामी जी राजाओं के घरबार सोने चांदी के पलंग आदि भी तो आवागमन के कायदे से सदकों ही का नतीजा हैं ( देखो सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 342 ) फिर आप ही बताइए कि मुसलमानों की जन्नत में यदि सब कुछ ऐसे ही सुख वैभव हों क्या आपकी जन्नत से कुछ कम हैं , हां एक बात ज्यादा है वह यह कि इस संसार का एक तो जीवन ही अस्थिर है दूसरे कोई भी हो ईश्वर के आदेशानुसार ( नानक दुखिया सब ) राजा क्या और प्रजा क्या अपने अपने हाल में सब दुखी हैं मगर जन्नत वाले अब सब बलाओं से निर्भय होकर ( जीवन ) गुजारेंगे । विश्वास न हो तो सुनो।” उन जन्नतियों को किसी प्रकार का कष्ट न होगा न वे जन्नत से निकाले जाएंगे । ( सूरह हिजर -48 )
स्वामी जी ! खुदा का घर किस शब्द का अनुवाद है ? बैतुल अतीक बेशक है जिसका अनुवाद है प्राचीन घर अर्थात पुराने समय का बना हुआ । आपने स्वयं ही नकल किया है । साधु होकर ऐसी चालाकी तो उचित नहीं । कहीं आप वही साधु तो नहीं जो मलाई सहित पिया करते हैं ?
नज़र पर भी आपने अपनी दया दृष्टि से काम लिया है मतलब आयत का साफ है कि जो किसी ने नर व नियाज आदि खैरात करने की मानी हो वह पूरी करे मगर आप इस पर बेईमानी से काम लें तो इस का क्या इलाज ?
मूर्ति पूजा का जवाब न 030 में आ चुका है । स्वामी जी ! बेचारे हिन्दुओं से आपको इतना दुख क्यों है कि हम गुनाहगारों को उनसे उपमा देते हैं आखिर को वे भी तो आपके भाई हैं वेदिक मत वाले हैं । बल्कि वेद , भगवान को आप से आधिक मानते हैं। आप न सही आपके बाप दादा तो आखिर वही हैं शायद इसी औचित्य को सामने रखते हुए आपने सारी उम्र अपने बाप का नाम भी न बताया जिससे अकारण विरोधियों को दुर्भावना पैदा हुई । ( देखो आत्म कथा स्वामी जी )
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( 113 )
सूरह मोमिनून- ” बेशक कयामत के दिन उठाए जाओगे । ( आयत -16 )
आपत्ति
क्या कयामत तक मुर्दे कब्रों में रहेंगे या किसी और जगह ? यदि इनमें खड़े रहेंगे तो सड़े हुए बदबूदार शरीरों में रह कर सदाचारी लोग भी कष्ट उठांएगे ? यह न्याय नहीं बल्कि जुल्म है और दुर्गन्ध व गन्दगी अधिक फैलाकर बीमारी पैदा करने के अपराधी होंगे ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी आप से तो उचित सवाल उस बहुदेव वादी का था जिसने कहा था ।
कौन मुर्दा और गली ( सड़ी ) हडिडयों को जिन्दा करेगा ? ( सूरह यासीन -78 )
जिसका जवाब उसे उसी समय मिला था ।
( तो ऐ मुहम्मद ) कह दे वही उनको जिन्दा करेगा जिसने उनको पहले बनाया था वह अपनी सारी स्रष्टि को भली प्रकार जानता है। ( सूरह यासीन – 79 )
शरीरों का सड़ना तो जब हो कि वहां मौजूद भी हों । यूं कहिए कि चूरा चूरा हुए शरीरों को क्यों कर खुदा नया बना देगा । जिसका जवाब ऊपर की आयत में मौजूद है अतः मुर्दे अर्थात उनकी रूहें शरीरों से अलग होकर अपनी जगह आत्मलोक में रहती हैं । भाग्यवानों के लिए वही जगह है जहां पर मुक्ति पाने वालों का रहना आप भी मानते हैं अलबत्ता बदकारों के लिए इसी के मुकाबिल जगह है अतः कुछ समय नहीं ।
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( 114 )
सूरह नूर- ” उस दिन गवाही देंगे इस पर उनकी जबानें और हाथ उनके और पांव उनके साथ उस चीज के कि थे करते । अल्लाह नूर है आसमानों का और जमीन का । उस नूर की मिसाल ताक के है कि बीच उसके चराग हो और वह चराग बीच कन्दील शीशे के है । वह कन्दील शीशे का मानो वह तारा है चमकता रोशन किया जाता है । वह चराग मुबारक पेड़ जैतून का सा कि न पूरब की ओर है न पश्चिम की ओर है निकट है तेल उसका कि रोशन हो जाए । यद्यपि न लगे उसको आग रोशन । उस पर रोशनी की राह दिखाता है अल्लाह अपनी ओर जिसे चाहता है । ” ( आयत – 34 – 35 )
आपत्ति
हाथ पांव आदि बेजान होने से गवाही कदापि नहीं दे सकते । यह बात कानूने कुदरत के खिलाफ होने से झूठी है क्या खुदा आग था बिजली जैसा कि चराग आदि से उसे उपमा दी गयी है यह मिसाल खुदा पर चरितार्थ नहीं हो सकती हां किसी शक्ल वाली चीजों पर चरितार्थ हो सकती है ।
आपत्ति का जवाब
कुदरत का कानून आपको बहुत सूझता है मगर यह तो बताइए कि कई अरब साल बाद प्रलय ( कयामत ) का मानना किस कानून का नतीजा है । यदि कोई ऐसी बिना पर आपके प्रलय से इन्कारी हो कि कानूने कुदरत के खिलाफ है तो क्या जवाब हम पहले लिख आए हैं कि हरेक काम के लिए एक समय होता है वह इसमें प्रकट हो जाता है यद्यपि वह कई लाख बल्कि करोड़ साल बाद भी क्यों न हो । इसके अवकाश के दिनों में न होने से कुदरत कानून के खिलाफ कह देना यह भी कुदरत के कानून के खिलाफ़ है जबकि कयामत के चिन्ह और कानून ही अलग हैं जो आज तक किसी कानून के बारें में आए ही नहीं तो उनको खिलाफ कानून कुदरत कहना स्वामी जैसे विद्वानों ही का काम है ।
आयत के दूसरे हिस्से का मतलब बिल्कुल वही है जो ग वेद मंडल 3 , सोकत 2 में है सुनो परमेश्वर आदेश करता है। “मैं उच्चतर प्रतापी तेज रखने वाला सूर्य की भान्ति समस्त संसार को प्रकाश प्रदान करने वाला हूं । ” ( ऋग वेद )
अतः आयत का लेख वेद की गवाही के बाद पूरी तरह साफ है कि समस्त आसमान व जमीन की रोशनी एक मात्र ईश्वर ही से है फिर अपनी रोशनी अर्थात मुहब्बत का उदाहरण अल्लाह ने बताया है कि दर्द रखने वालों के दिल में ईश्वर की मुहब्बत ऐसे चमकती है . और सब चीजों पर छायी होती है जैसे कन्दील की रोशनी जिसमें उच्च दर्जे का साफ़ सुथरा तेल पड़ा हो । यह समस्त अंधियारों पर छा जाती है । इन मायना में कुरआन की गवाही चाहते हो तो सुनो ।
ईमान वालों को अल्लाह के साथ सब चीजों से बढ़कर मुहब्बत होती है । ” ( सूरह बकरा -165 )
यह बात याद रखनी चाहिए कि ईश्वर को छोड़ कर चाहे कैसे ही उच्च दूसरे काम किए जाएं लेकिन उनसे जीव आत्मा कभी भी मुक्त नहीं होती । मुक्ति ( नजात ) का ज़रिया केवल एक ईश्वर की प्राप्ती ही है । ” ( उपदेश मंजरी पृ०-58 )
स्वामी जी सच है
” आगे पीछे को बिना देखे कलाम का मायना करने वाले नापाक बातिन वाले जाहिलों को निश्चय ही ज्ञान नहीं होता । ” ( भूमिका – पृ 0 52 )
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( 115 )
” और अल्लाह पैदा किया हर जानवर को पानी से , अतः कुछ उनमें से वह है कि चलता ऊपर पेट के और जो कोई आज्ञा पालन करे अल्लाह का और रसूल का कि आज्ञा पालन करो रसूल ताकि तुम पर दया की जाए । ” ( आयत 45,51,53,55 )
आपत्ति
यह कौन सौ फलासफी है कि जिन जानवरों के शरीर में सारे तत्व पाए जाते हैं उनके बारे में कहना कि केवल पानी से पैदा हुए हैं यह मात्र अल्पज्ञान एंव अज्ञानता की बात है । जब अल्लाह के साथ रसूल का आज्ञा पालन करना ज़रूरी है तो क्या अल्लाह का साझी हुआ या नहीं । यदि ऐसा है तो अल्लाह को क्यों कुरआन में ला शरीक कहा और लिखा जाता है ? ”
आपत्ति का जवाब
कुरबान ऐसी समझ पर । स्वामी जी बला से कुरआन को आप किसी उस्ताद से पढ़ लेते । आप जैसे पाक बातिन वाले साधू से ऐसी आपत्ति सुनकर दिल दहल जाता है । यह शिकायत तो हम करते ही नहीं कि आप जान बूझ कर विभिन्न स्थानों की आयतें बिगाड़ तिगाड़ कर क्यों नकल करते हैं इसलिए कि आप की समझ बूझ आप को यही सिखाती है ।
स्वामी जी । पानी से तात्पर्य इस जगह वीर्य है । सुनो- दूसरी आयत में कुरआन मजीद स्वयं बताता है ।
( अल्लाह फरमाता है ) ” क्या हमने तुमको गन्दे पानी ( वीर्य ) से पैदा नहीं किया ? ” ( सूरह मुर्सलात -20 )
अतः आयत के मायना साफ़ हैं कि कुल जानदारों की पैदाइश का सिलसिला अल्लाह ने वीर्य से रखा है बताइए सच है या गलत ? यदि विश्वास न हो तो नियोग पर सोच विचार कीजिए कि स्त्री नियोग क्यों करती है ? गर्भ क्यों होता है ?
रसूल अनुसरण का जवाब न 0 21 , 53 , 55 आदि में हो चुका है । यह तो आपकी साधारण सी बात है ।
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( 116 )
सूरह फुरकान- ” और जिस दिन कि फट जाएगा आसमान साथ बदली के और उतारे जाएगे फरिश्ते । तू मत कहा मान काफिरों का और झगड़ा कर उनसे साथ उसके झगड़ा बड़ा , और बदल डालता है अल्लाह बुराइयों को उनकी भलाइयों से और जो कोई तौबा करे और अमल करे अच्छे । तो बेशक वह पलटता है अल्लाह की ओर । ( आयत 23 , 50,68,69 )
आपत्ति
यह बात कभी ठीक नहीं हो सकती कि आसमान बादलों के साथ फट जाए और यदि आसमान कोई ठोस वस्तु हो तो फट सकता है । मुसलमानों का कुरआन शान्ति में रोड़ा अटका कर दंगा फ़साद कराने वाला है । इसलिए धार्मिक विद्वान इसको नहीं मानते । यह अच्छा न्याय है कि गुनाह व सवाब का अदला बदला हो जाएगा । क्या यह तिल और उड़द हैं कि इनका अदला बदला हो सके । यदि तौबा करने से गुनाह छूटे और खुदा मिले तो कोई भी गुनाह करने से क्यों डरेगा ? इसलिए यह सब बातें ज्ञान के विरुद्ध हैं ।
आपत्ति का जवाब
इस आयत को भी आप किसी विद्वान से पूछ लेते तो यह आपको न सूझता । मतलब आयत का यह है कि कयामत से पहले अर्थात प्रलय के समय सारी दुनिया समाप्त हो जाएगी तो उस समय जमीन व आसमान और बादल सब नष्ट विनष्ट हो जाएंगे । नासिफ़ा विद्वान आकाश को प्राचीन मानते थे उनका धर्म रद्द करने को अल्लाह ने फरमाया कि कयामत से पहले आसमान बादलों सहित फट जाएंगे यह नहीं कि बादल उनको फाड़ेंगे बल्कि बादल भी उनके साथ ही फटेंगे । इन मायना की दलील कुरआन से सुननी चाहो तो सुनो । ” जिस दिन आसमान व जमीन में फेर बदल किया जाएगा और लोग सब के सब जबरदस्त अल्लाह के समक्ष आएंगे । ” ( सूरह इबराहीम – 48 )
आसमान के ठोस होने की बहस न 07,88 व न 0 129 में देखिए । मुसलमानों के दंगा फसाद से स्वामी जी बड़े डरते हैं फिर भी बार बार उनको फसाद ही सूझता है । हमारी सज्जनता देखिए कि हमने न 0 2 ही में आपके फसाद का मुकाबला करके उनका नाम तक नहीं लिया । जिस प्रकार दवाएं कुछ गर्म और कुछ ठंडी हैं फिर उनमें भी विभिन्न दर्जे हैं कुछ गर्म ऐसी हैं कि उनके बाद ठंडी चीजों के इस्तेमाल से उनकी गर्मी खत्म हो सकती है कुछ ऐसी गर्म भी हैं कि उनके बाद कितनी ही ठंडी दवाए क्यों न पिएं उनकी गर्मी खत्म नहीं हो सकती ।
जैसे विष , ठीक इसी तरह गुनाहों की मिसाल है कि साधारण दर्जे के गुनाह आला दर्जे की नेकियों से दूर हो जाते हैं मगर एक ऐसे बढ़कर अपराध भी हैं कि किसी नेकी से खता नहीं होते जब तक उन तौबा न हो जैसे शिर्क व कुफ्र । इन मायना की दलील कुरआन से सुननी चाहो तो सुनो ।
” बेशक नेकियां बुराइयों को दूर कर देती हैं नसीहत पाने वालों के लिए नसीहत है । ” ( सूरह हूद -114 )
अतः आयत का मायना साफ है कि तौबा ( जो ऊंचे दर्जे की अल्लाह से निष्ठा है ) से गुनाह माफ होने के अलावा यदा कदा दर्जा के अनुसार निष्ठा ऐसी भी होती है कि बजाए गुनाह के तौबा करने वाला गुनाहगार नेकियों का बदला पाता है । ( विस्तृत जानकारी न 022 में देखें )
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( 117 )
सूरह शोअरा- ” और वहय की हम ने मूसा की तरफ यह कि रात को ले चल मेरे बन्दो को । बेशक तुम पीछा किए जाओगे । अतः भेजे लोग फिरऔन ने बीच शहरों के जमा करने वाले और वह व्यक्ति कि जिसने पैदा किया मुझको अतः वही राह दिखाता है और जो खिलाता है मुझको और पिलाता है मुझको , और वह व्यक्ति कि उम्मीद रखता हूं मैं कि माफ करे मेरी गलती वास्ते दिन कयामत के।”[1] ( आयत -50,51,76,77, 80 )
[1- प्रिय पाठको ! यह स्वामी जी की योग्यता और ईमानदारी है कि विभिन्न स्थानों से शब्द लेकर गड़बड़ मचा देते हैं । देखिए यह विषय कहां से कहा मिलाया जैसे गधे के गोश्त में उड़द की दाल ।]
आपत्ति
जब अल्लाह ने मूसा की ओर वहय भेजी तो फिर दाऊद , ईसा और मुहम्मद साहब की ओर किताब क्यों भेजी ? क्योंकि खुदा की बातें सदैव समान और बे खता हुआ करती हैं और इसके बाद कुरआन तक किताबों का भेजना प्रकट करता है कि पहली किताब अधूरी और त्रुटियों से भरी थी यदि ये तीन किताबें सच्ची हैं तो कुरआन झूठा होगा । चारों किताबें जो कि परस्पर विराधी हैं वे बिल्कुल सही नहीं हो सकती । यदि खुदा ने रूह पैदा की हैं तो वे मर भी जाएंगी अर्थात उनका कभी अन्त भी हो । जो खुदा ही मनुष्य और आत्माओं को खिलाता पिलाता है किसी को बीमारी न होनी चाहिए और सब को बराबर आहार मिलना चाहिए और कृपा व दया दृष्टि से एक को उत्तम और दूसरे को खराब जैसा कि बादशाह को उत्तम और गरीब को खराब मिलता है न मिलना चाहिए ।
जब खुदा ही खिलाने पिलाने और परहेज कराने वाला है तो बीमारी न होनी चाहिए लेकिन मुसलमानों को भी बीमारियां लगती हैं । यदि खुदा ही बीमारी को दूर करके आराम देने वाला है तो मुसलमानों के शरीरों में बीमारी न होनी चाहिए । यदि होती है तो खुदा पूरा हकीम नहीं । यदि पूर्ण हकीम है तो फिर मुसलमानों के शरीरों में बीमारी क्यों रहती है ? यदि वही मारता है और जिन्दा करता है तो फिर उसी खुदा के जिम्मे गुनाह सवाब होना चाहिए । यदि जन्म जन्मांतर के कर्मों के अनुसार न्याय करता है तो वह कुछ भी गुनाह का जिम्मेदार नहीं है यदि वह गुनाह माफ करता और न्याय कयामत की रात को करता है तो खुदा गुनाह बढ़ाने वाला होने से गुनाहगार हो जाएगा । यदि माफी नहीं देता तो कुरआन की यह बात झूठी होने से बच सकती है ।
आपत्ति का जवाब
इस न ० का जवाब देने को मन तो नहीं करता था क्योंकि इसका जवाब ये स्वयं ही है । स्वामी जी भी ऐसे सवालों के जवाब देने से बचते हैं क्योंकि ये फरमाते हैं ।
” ऐसे लोगों ( साइलों ) के सामने अक्ल मन्दों को बे वस्तु की तरह हो रहना चाहिए । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 350 अध्याय 10 न. 3 )
मगर क्या करें हमारे समाजी दोस्त अपनी जबान से तकाज़ा कर रहे हैं जिनकी वजह से हमें स्वामी जी से बढ़कर नहीं तो कम भी नहीं । इसलिए मजबूरी हेतु उनको भाग एक ( वहय अम्बिया ) के बारे में विगत न 0 5,6 इसी किताब में विवाद ” ईश्वरीय किताब ” की ओर ध्यान दिलाते हैं ।
” स्वामी जी रूहों का न मरना किसी आयते कुरआनी से साबित होता है ? जो आपको यह सूझी । बेशक यदि खुदा उनको तबाह और समाप्त करना चाहेगा तो कर देगा । खुदा के खिलाने पिलाने के भी वही मायना हैं जिन मायना में आपने लिखा है ।
” चूंकि उसकी मदद के बिना सच्चे धर्म का ज्ञान और उसकी पाबन्दी और पूर्णता नहीं हो सकती इसलिए हर मनुष्य को ईश्वर से इस तरह मदद मांगनी चाहिए । ” ( भूमिका पृ 0 67 )
स्वामी जी ! अभी तो आप कहीं यह सुन पाते कि मुसलमान यह भी कहते हैं ।
” पाक है वह जात जिसके कुब्जए कुदरत में सब चीजों की सत्ता ( सूरह यासीन – 83 )
तो न जाने आप पर क्या गुजरती और आप क्या क्या उपाधियां व उपनाम मुसलमानों को देते ।
प्रिय पाठको ! यही वह मुहुर ( ठप्पा ) है जिसका उल्लेख खुदा ने अपने कलाम में किया है । इसका प्रभाव यही होता है कि आदमी सीधी बात भी टेढ़ी समझता है । यदि अधिक व्याख्या इसकी चाहो तो विगत न0 6 , 42 , में देख लें । सार यह है कि दुनिया के सब कामों की कुंजी उसी एक मात्र निराकार सर्व शक्तिमान के हाथ में है जिसे हम ला इला ह इल्ला हुवा कहते हैं और वही बेशक जीविका देता है वही बन्द कर देता है । स्वामी जी यदि जीवित होते 1897 में अकाल के कारण भारत वर्ष की जो दुर्गत हुई हम उनको दिखाते और पूछते ।
” सारी वस्तुओं का अधिकार किसके हाथ में है और कौन है जो शरण देता है और उससे भागने वाले को शरण नहीं मिलती , यदि तुम्हें ज्ञान है तो जवाब दो । ( सूरह मोमिनून -88 )
यदि स्वामी जी अरब के बहुदेव वादियों की तरह
“अल्लाह ही का अख्तियार है ( सूरह मोमिनून 89 ) कहते तो हम भी उनकी सेवा में निवेदन करते- “ फिर कहां को बहके जाते हो ” ( मोमिनून -89 ) यदि इस पर भी सन्तोष न हो तो वेद का आदेश सुनिए- परमेश्वर भक्तों को शिक्षा देता है ।
“ ऐ भगवान तू अपने बन्दों को मुंह मांगा सुख एवं सत्ता प्रदान करने वाला है हमें भी अपनी कृपा व दयालुता प्रदान कर । ” ( अथर वेद कांड 6 , अनुवादक , 10 वरग 68 मंत्र 11 )
पाठको ! स्वामी जी के इस सवाल से आप चकित न हों उनको ऐसी ही सूझा करती है । विश्वास न हो तो न0 53 देखें ।
गुनाहों की माफी का लेख न0 22 में देखो । आवागमन का तोड़ इसी किताब में कई एक स्थान पर पाओगे । इसके अलावा “ मुबाहेसा इलहामी ” किताब और ” बहस आवागमन ” देखो ।
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( 118 )
” नहीं तू मगर आदमी ) हमारी तरह । अतः ले आ कुछ ।निशानी यदि है तू सच्चों में से । कहा यह ऊंटनी है वास्ते उसके पानी पीना है एक बार । ” ( आयत – 150 – 151 )
आपत्ति
भला इस बात को कोई मान सकता है कि पत्थर से ऊंटनी निकले । वे लोग वहशी थे जिन्होंने इस बात को मान लिया और ऊंटनी का निशान देना केवल वहशी पन का काम है न कि अल्लाह का । यदि यह किताब ईश्वरीय कलाम होती तो ऐसी अनर्गल बातें इसमें न होतीं ।
आपत्ति का जवाब
अल्लाह रे ऐसे हुस्न पे ये बे नियाजियां !
वाह रे सभ्य स्वामी जी को वहशी पने से बड़ी घबराहट होती है । स्वामी जी ! आप तो इसी पुस्तक के पृ0 669 समलास 14 में लिख आए हैं । “ मुसलमानों के धर्म के बारे में जो लिखा है वह केवल कुरआन की रू से लिखा गया है किसी और किताब के अकीदों की रू से नहीं । ”
यहां किस शब्द से “ ऊंटनी का पत्थर से निकलना समझे हैं ? समाजियो तनिक बताओ तो हम एक सौ रूपया इनाम देंगे । ऐसे वहशी पने का सबब इसके सिवा और कुछ भी है ? कि- ” हठ धर्म मज़हब के अंधेरों में फंस कर बुद्धि को नष्ट कर लेते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ0 7 )
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( 119 )
सूरह नमलः “ ऐ मूसा बात यह है कि बेशक मैं हूं अल्लाह प्रभुत्व शाली । और डाल दे लाठी अपनी जिस समय कि देखा उसे हिलता जुलता मानो कि वह सांप है । ऐ मूसा मत डर बेशक नहीं डरते निकट मेरे पैगम्बर । अल्लाह नहीं कोई उपास्य मगर वह पालनहार ऊंचे अर्श का । यह कि उदंडता मत करो और ऊपर मेरे ।और चले आओ मेरे पास मुसलमान होकर । ” ( आयत 9.10 , 27.32 )
आपत्ति
और देखिए , अपने ही मुंह से आप अल्लाह बड़ा जबर दस्त बनता है । अपने मुंह अपनी प्रशंसा करना जब शरीफ़ आदमी का काम नहीं हो सकता तो ईश्वर का किस तरह हो सकता है ? शोबदा बाजी की झलक दिखाकर जंगली आदमियों को काबू करके आप ही जंगलियों का खुदा बन बैठा है । ऐसी बात अल्लाह की किताब में नहीं हो सकती । यदि वह अर्श पर अर्थात सातवें आसमान का मालिक है तो वह सीमित स्थान का मालिक होने से खुदा नहीं हो सकता । यदि उदंडता करना बुरा है तो खुदा और मुहम्मद साहब ने अपनी प्रशंसा व स्तुति से किताब क्यों भर दी । मुहम्मद ने बहुत से मनुष्यों का खून किया । क्या उससे उदंडता हुई या नहीं ? यह कुरआन परस्पर विरोधी बातों से भरा हुआ है ।
आपत्ति का जवाब
बला से कोई अदा उनकी बदनुमा हो जाए
किसी तरह से तो मिट जाए हौसला दिल का
कैसा मूर्ख है वह व्यक्ति जो अपना घर शीशे का बना कर दूसरों पर पत्थर बरसाए । समाजियों सुनो , परमेश्वर बन्दों को सिखाता है ।
” मैं इस सुराक्षित बुहमांड , तेजस्वी एंव प्रतापी , शक्ति शाली और विजेता समस्त ब्रहमांड के राजा , सर्वशक्तिमान और सबको शक्ति प्रदान करने वाले परमेश्वर को जिसके आगे सारे बलवान एवं साहसी अपना सर झुकाते हैं और जो न्याय से सुष्टि की रक्षा करने वाला और सर्व शक्ति मान परमेश्वर है । हर जंग में विजय पाने के लिए आमंत्रित करता हूं और शरण लेता हूं । ” ( यजुरवेद अध्याय 20. मंत्र 50 )
समाजियो …… देखा ? अपने ही मुंह से आप परमेश्वर जबरदस्त राजा बनता है अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करना शरीफ आदमी का काम नहीं तो परमेश्वर का क्यों कर हो सकता है ? कहो जी . कौन धर्म है ? स्वामी जी को खबर नहीं कि अल्लाह जब बन्दों की हिदायत के लिए किताब भेजता है तो ज़रूरी है कि वह अपने गुणों का भी उल्लेख करे ताकि बन्दों को उसके गुण मालूम हो सकें । अतः आसमानी किताबों में जहां जहां अल्लाह के गुणों का जिक्र आता है उससे यही मुराद होती है कि बन्दे इन गुणों को आधार बनाकर खुश न हों न यह कहें कि खुदा शैखी बघारता है जिस तरह हमारे स्वामी जी महाराज समझे बैठे हैं । शौबदे का जवाब न 0 14 व न 0 22 में और अर्श का जवाब न 0 70 में देखें । रक्त पात के लिए न 0 2 देखो ।
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( 120 )
” और देखेगा तू पहाड़ों को गुमान करता है तू उनको जमे हुए और वे चले जाते हैं गुजरने वाले बादलों की भान्ति । कारीगरी अल्लाह की जिसने हुक्म किया हर चीज़ को बेशक वह खबरदार है साथ उस चीज़ के कि करते हो । ( आयत -88 )
आपत्ति
बादलों की तरह पहाड़ों पर चलना कुरआन के लेखक के देश में होता होगा और किसी जगह नहीं । और खुदा की खबरदारी तो बागी शैतान को न पकड़ने और सज़ा न देने से ही मालूम होती है जिसने एक बागी को अब तक न पकड़ा । और न सज़ा दी । इससे अधिक बेखबरी और क्या होगी ।

आपत्ति का जवाब

अल्लाह रे ऐसे हुस्न पे ये बे नियाजियां
बन्दा नवाज़ आप किसी के खुदा नहीं

समाजियो ! सुनो आयत का मतलब साफ है कि कयामत से पहले प्रलय ( अन्त ) के समय पहाड़ियां हरकत करते हुए फिरेंगी जैसे बादल बल्कि उनसे भी तेज और मनुष्य जो इसी धरती पर होंगे धरती की तेजी से हरकत करने की वजह से ( जैसा कि आजकल अपनी जगह पर बैठे हुए हैं ) उस समय भी पहाड़ों को अपनी जगह जमे हुए समझेंगे यहां तक कि सारे संसार की वस्तुएं बड़ी तेजी से विनष्ट हो जाएंगी । इन मायना में यदि कुरआन की दलील सुनना चाहो तो सुनो ।
“तुझ से ऐ मुहम्मद कयामत के इन्कारी पहाड़ों के बारे में पूछते हैं तो कह खुदा उनको ऐसे उड़ा देगा कि जमीन पर ऊंच नीच न देखोगे । ” ( सूरह ताहा- 705-107 )
स्वामी जी का नक्ल किया हुआ अनुवाद एक तो थोड़ा शाब्दिक होने की वजह से अर्थपूण भी नहीं दूसरे स्वामी जी ने इसे समझा भी नहीं ।
सुनो हम तुमको एक अच्छा अनुवाद सुनाते हैं ।
” तू समझता है पहाड़ों को जानता है वे जम रहे हैं और वे चलेंगे जैसे बदली । ” ( अनुवाद शाह अब्दुल कादिर देहलवी )
” मगर आगे पीछे और पृष्ठ भूमि उचित न देखकर मायना करने वाले जाहिलों को ज्ञान कहां । ” (भूमिका पृ 0 52 ) शैतानी बातों का जवाब न 0 11 , 32 , में देखें ।
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( 121 )
सूरह कसस- “ अतः मुक्का मारा उसको मूसा ने तो समाप्त किया जीवन उसका । कहा – ऐ मेरे पालनहार ! बेशक मैंने जुल्म किया अपनी जान पर तो माफ़ कर मुझे । तो माफ़ कर दिया उसको । बेशक वह माफ़ करने वाला कृपालु है और पालनहार तेरा पैदा करता है जो कुछ कि चाहता है और पसन्द करता है । ” ( आयत – 14-16 )
आपत्ति
मुसलमानों और ईसाइयो के पैगम्बर और खुदा की दया भावना का हाल देखिए । मूसा पैगम्बर एक मनुष्य की हत्या करे और खुदा माफ करे । क्या ये दोनों जालिम हैं या नहीं ? क्या खुदा अपनी इच्छा से ही जैसा चाहता है वैसा करता है ? क्या उसने अपनी इच्छा से ही एक को बादशाह और दूसरे को गरीब , एक को विद्वान और दूसरे को जाहिल पैदा किया है ? यदि ऐसा है तो न कुरआन सच्चा और न जालिम होने के सबब यह खुदा सच्चा खुदा सकता है ।
आपत्ति का जवाब
आगे पीछे को न देखने वालो ! तनिक ध्यान से सुनो । असल किस्सा यूं है कि हजरत मूसा नबी होने से पहले जब मिस्त्र में फ़िरऔन की मातहती में थे एक दिन दोपहर के समय शहर में आए तो देखा कि दो आदमी ( एक फ़िरऔन की कौम का और एक हज़रत मूसा की कौम बनी इसराईल का ) आपस में लड़ रहे हैं । फ़िरऔनी चूंकि इसराईली पर जुल्म कर रहा था इसराइली ने मूसा से विनती की और अपनी मदद को बुलाया ।
हज़रत मूसा ने फ़िरऔनी का खुला जुल्म देखकर एक मुक्का मारा तो संयोग से उसी मुक्का से उसका काम तमाम हो गया । हजरत मूसा का उसे जान से मारने का इरादा न था बल्कि साधारण सी धूल धप्पा जिस का वह हर तरह से हकदार था मगर दुर्भाग्य से उसका उसी मुक्के से काम तमाम हो गया ( अर्थात वह मर गया ) इस पर हज़रत मूसा को बड़ा दुख हुआ तो अल्लाह ने उनको माफ कर दिया । यद्यपि हज़रत मूसा का यह कोई गुनाह न था क्योंकि उसे मार डालने का न तो इरादा था और न ही किसी खतरनाक हथियार से मारा था फिर भी उन्होंने अपने उच्च पद को देखते हुए उसे भी गुनाह समझा जिसके बारे में माफी की खबर अल्लाह ने उनको दी । अब आप बताइए इस पर आप को क्या कहना है ? यूं साफ़ क्यों नहीं कहते कि तौबा से हमें रंज है तो हम भी न0 22 का हवाला आपको सुनाएं ।
समाजियो ! यदि अपने स्वामी जी के कथन की पुष्टि में हो कि सदैव का सुख भी दुख हो जाता है न0 ( 104 ) तो कोई और दुख अल्लाह से मांग लो । उसके यहां किसी चीज की कमी नहीं । बेशक अल्लाह अपनी इच्छा से जिसे चाहे अमीर कर दे और जिसे चाहे गरीब कर दे । अन्याय तो तब है कि किसी का उस पर हक हो और वह न दे । जब कोई हक नहीं तो फिर जिस हालत में अपनी हिकमत के हिसाब से रखे उसी में न्याय और वही उसकी दया है ।
स्वामी जी चूंकि सदैव पुनर जन्म ( आवा गमन ) का जिक्र छेड़ देते हैं जिसकी इसी किताब में हमारी ओर की विस्तृत बहस मिल सकती है परन्तु हम इस बार बार के ज़िक्र को टालते रहते हैं मगर यहां तो हमारी राल भी टपक जाती है कि हम भी स्वामी जी और उनके चेलों से इसके बारे में एक सवाल पूछे ।
समाजियो ! न0 16 में हम साबित कर आए हैं कि दुनिया को खुदा ने एक विशेष समय में पैदा किया है जिससे पहले वह न थी ( विस्तृत बहस न0 19 में देखो ) तो बतओ आरंभ में ईश्वर ने सब लोगों को अमीर और शासक ही बनाया था या नहीं और सब को आदमी बनाया था या कुछ को जानवर भी ? और यदि तुम्हारे उसूल की अधिक पाबन्दी करें तो यह भी पूछ सकते हैं कि सब को मर्द बनाया था या औरतें भी ? क्योंकि औरत मर्द का फर्क भी कर्मों का नतीजा है तनिक सोच कर जवाब देना जल्दी न करना ।
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( 122 )
सूरह अन्कबूत – ” और हुक्म किया हमने मनुष्य को साथ मां बाप के , भलाई करना और झगड़ा करें तुझ से दोनों शरीक लाएं तो साथ मेरे उस चीज को नहीं वास्त तेरे साथ उस का ज्ञान । तो मत कहा मान उन दोनों का तरफ मेरी[1] है और अलबत्ता बेशक भेजा हमने नूह को तरफ कौम उसकी कि पिस रहा बीच उसके हजार बरस मगर पचास बरस कम । ‘ ( आयत – 7-13 )
[ 1- समाजियो ! अनुवादित कुरआन देखकर स्वामी की ईमानदारी और योग्यता की दाद दो , हम कुछ नहीं कहते क्योंकि हमारा कुछ हरज नहीं केवल इतना पूछते हैं ” तरफ मेरी है ” के क्या मायना है कुरआन शरीफ देखकर बताना कि आगे पीछे न देखने वाले कौन होते हैं ।]
आपत्ति
मां बाप की सेवा करो तो अच्छा है यदि खुदा के साथ साझी करने के लिए वे कहें तो उनका कहना न मानना यह भी ठीक है लेकिन यदि मां बाप झूठ बोलने आदि का हुक्म दें तो क्या मान लेना चाहिए ? इसलिए यह बात आधी अच्छी आधी बुरी है । यदि नूह आदि पैगम्बरों को खुदा ही दुनिया में भेजता है तो और रूहों को कौन भेजता है । यदि सबको वही भेजता है तो सारे ही पैगम्बर क्यों नहीं ? और यदि पहले आदमियों की उम्र हजार साल की होती थी तो अब क्यों नहीं होती ? इसलिए यह बात सही नहीं हैं ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी का कथन सोने से लिखने योग्य है कि
अतः स्वामी जी सुनिए ! हम आपको बताते हैं कि शिर्क भी मना किया है कि झूठ है इसी से एक बारीक इशारा इस बात की ओर है कि- ” जो काम पैदा करने वाले ने मना किया हो उसमें प्राणियों का आज्ञापालन कदापि जायज़ नहीं । ” ( यह एक हदीस का भाव है सही जामेउल सगीर 2 -250 )
यदि कुरआन शरीफ से सुनना चाहो तो सुनो
” कोई कौम ईमानदार खुदा के आदेशों से विरोध करने वालों के साथ मुहब्बत नहीं किया करती चाहे वह उनके बाप या बेटे या भाई ही हों । ” ( सूरह मुजादिला -22 )
भेजने के मायना आपने गलत समझे हैं । यहा भेजने के मायना इलहाम करने के हैं बेशक रसूलों के सिवा और रूहों को अल्लाह ने नहीं भेजा अर्थात ईश्वरीय संकेत नहीं किया ।
आयु के बारे में तो अब भी कोई नियम निर्धारित नहीं । जब तक आप कोई सीमा निर्धारित न करें हम जवाब नहीं देंगे , हां परमेशवर की आज्ञा भी सुनिए जो बन्दों को पथ प्रदर्शन करता है ।
” ऐ जगदीशवर ! आप की कृपा से हमारी आंखों और पुरान की तिगनी अर्थात तीन सौ साल की आयु हो ( जिस पर आप ( स्वामी जी ) स्वयं ने यह दुमछल्ला लगाया है ) इस मंत्र से एक और उपदेश हासिल होता है अर्थात इससे यह नतीजा निकलता है कि यदि ब्रहमचर्य आदि उत्तम कायदों की पाबन्दी की जाए तो मनुष्य की आयु सौ साल से तिगनी तक बढ़ सकती है । ” ( भूमिका पृ0 56)
तो हजरत नूह ने इस आप की तिगनी को तिगनी करके हजार साल की उम्र पायी हो तो आपका इस पर सवाल क्या है । ब्रहमचर्य का तरीका तो उनको आखिर मालूम होगा बल्कि वेद के बताए हुए तरीके से अच्छा पंडित जी के चेलों ! बताओ शीशों का मकान बनाकर पत्थर बरसाने वाले ।
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( 123 )
सूरह रूम- ” अल्लाह पहली बार करता है पैदाइश फिर दोबारा करेगा उसको फिर उसकी ओर फेरे जाओगे और जिस दिन घटित होगी कयामत , नाउम्मीद होंगे , गुनाहगार , अतः जो लोग ईमान लाएं और काम अच्छे किए और वे बीच बाग के अंगार किए जाएं और यदि भेज दें हम एक हवा तो देखें उसको खेती पीली हुई । इस तरह ठप्पा लगाता है अल्लाह उनके दिलों पर कि नहीं जानते।” (आयत 10.11.14,50,58 )
आपत्ति
यदि अल्लाह दोबारा पैदा करता है और तीसरी बार नहीं करता तो पैदा होने के पहले और दूसरी बार पैदा होने के बाद बेकार बैठा रहता होगा और एक दो बार पैदाइश करने के बाद उसकी कुदरत अर्थात शक्ति निकम्मी और खत्म हो जाती होगी और यदि न्याय के दिन गुनाहगार लोग ना उम्मीद होंगे तो अच्छी बात है मगर इस का मतलब कहीं यह तो नहीं है कि मुसलमानों के सिवा सब गुनाहगार समझ कर ना उम्मीद किए जाएंगे ?
क्योंकि कुरआन में कई स्थानों पर गुनाहगारों से तात्पर्य गैर धर्म वालों से लिया गया है । यदि बाग में रखना और सिंगार करना भी मुसलमानों की जन्नत है तो इस दुनिया की जैसी ही है और क्या वहां बागबानी और सुनार का काम करता है । यदि किसी को कम जेवर मिलता होगा तो चोरी भी होती होगी और वह जन्नत में से निकाल कर चोरी करने वालों को जहन्नम में भी डालता होगा ।
यदि ऐसा होगा तो यह बात कि सदैव जन्नत में रहेंगे जाएगी । यदि किसानों की खेती पर भी अल्लाह की नजर है तो कृषि विज्ञान का अनुभव किए बिना खेती करना कैसे आ गया और यदि मान लिया जाए कि अल्लाह ने अपने ज्ञान से सारी बातें जान ली हैं तो ऐसा डर दिखाने से वह अपना घमंड प्रकट करता है । यदि अल्लाह ने आत्माओं के दिलों पर ठप्पा लगाकर गुनाह कराया है तो उस गुनाह का जवाब देने वाला वही होगा आत्मा नहीं हो सकती जिस प्रकार कि विजय व पराजय का जिम्मेदार सेना पति होता है वैसा ही सब गुनाह अल्लाह को हासिल होंगे ।
आपत्ति का जवाब
इस भोलेपन पर कुरबान ! सच है उसे क्या छुपाना । एक बात तो यह कि इस न 0 की सारी बातों का जवाब पहले नम्बरों में आ चुका है । स्वामी जी को तो पानी बिलोने की आदत है । अल्लाह की बेकारी या बाकारी की बहस न 016 में देख लें । बेशक अपराधी वही हैं जो खुदा के साथ किसी को साझी करे और जो उसके आदेशों को जो उसने अपने सच्चे नबियों द्वादा बन्दों के लिए भेजे हैं झुठलाए । इसका उल्लेख भी कई बार आ चुका है । स्वामी जी ! कहीं वेदों का इन्कारी नास्तिक तो नहीं ? सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 347 देख कर जवाब दें । जन्नत का जवाब 9 , 246 , 61 में आ चुका है सब कुछ खुदा की मेहरबानी से होगा मगर यह भी सुन रखिए ।
” काफिरों पर जन्नत की नेमतें हराम हैं । ” ( सूरह आराफ -50 )
न कोई किसी का जेवर चुराएगा न किसी को बुरा भला कहेगा बल्कि सब के सब प्रेम और मुहब्बत से रहेंगे । सुनो .
” भाइयों कि भान्ति एक दूसरे के सामने तख्तों पर बैठे होंगे । ” ( सूरह हिज्र -47 )
स्वामी जी ! परमेश्वर ने सृष्टि ( संसार ) के तत्वों को जमा करके मौजूदा सूरत में उत्पन्न तो इतना बड़ा काम बिना तजुरबा कैसे किया होगा ? आपके इस सवाल का जवाब कुरआन ने इन शब्दों में । दिया है ।
” काफिर खुदा की शान के अनुसार उसकी कद्र नहीं करते । ” ( सूरह अनआम -91 )
हाय ऐसी समझ पर पत्थर , जो इतना भी नहीं जानता । परमेश्वर के हाथ नहीं लेकिन अपनी ताकत के हाथ से सबको बनाता और काबू में रखता है । पांव नहीं लेकिन मुहीत होने के कारण सबसे अधिक सजग और सर्तक है । आख नहीं लेकिन सब को ठीक ठीक देखता है कान नहीं फिर भी सबकी बातें सुनता है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 244 अध्याय 7 न 0 36 )
ठप्पा लगाने का जवाब न 0 6 , न 0 65 में आ चुका है ।
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( 124 )
सूरह लुकमान- ” ये आयतें हैं किताब हिकमत वाले की । पैदा किया आसमानों को बिना खम्बों के देखते हो तुम उनको और डाले बीच जमीन के पहाड़ । ऐसा न हो कि हिल जाएं । क्या न देखा तूने यह कि अल्लाह दाखिल करता है रात को बीच दिन के और दाखिल करता है दिन को बीच रात के । क्या न देखा तूने यह कि कश्तियां चलती है बीच दरिया के साथ नेमतों अल्लाह के ताकि दिखा दे तुमको अपनी निशानियों से । ( आयत -1.9,28 , 30 )
आपत्ति
वाह साहब वाह ! हिकमत वाली किताब खूब है कि जिसमें बिल्कुल ज्ञान के विरुद्ध आकाश का जन्म और उसमें खम्चे लगाने और ज़मीन थामे रखने के लिए पहाड़ रखने का उल्लेख है । थोड़ा ज्ञान रखने वाला भी ऐसी तहरीर कदापि नहीं लिख सकता और न ऐसी बातें मान सकता है और हिकमत की बात देखिए कि जहां दिन है वहां रात नहीं , जहां रात है वहां दिन नहीं और उसको एक दूसरे में दाखिल करना लिखा है । यह तो बड़ी अज्ञानता की बात है । इसलिए यह कुरआन ज्ञान की किताब नहीं हो सकती । क्या यह ज्ञान एवं सूझ बूझ से परे की बात नहीं है । कश्ती को मनुष्य कलों व संयंत्रों से चलाते हैं या अल्लाह की दया दृष्टि से । यदि लोहे या पत्थर की कश्ती बिना समन्द्र में चलायी जाए तो अल्लाह का निशान डूब तो न जाएगा । यह किताब न किसी विद्वान और न खुदा की बनायी हुई हो सकती है ।
आपत्ति का जवाब
महाराज ! धन्य महाराज सच है ।
” हठ धर्मी की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । ” ( भूमिका सत्यार्थ प्रकाश पृ 07 )
आकाश की पैदाइश आदि का जिक्र न 07.88 , 129 में और जमीन की हरकत का उल्लिखित 110 में है- पाठकों । स्वामी जी की ईमानदारी को देखिए ऐसी चालाकी कि कुरआन में तो ” बिना खम्बों ” के हो । अतएव हमने स्वामी जी के उल्लिखित अनुवाद को ही दिया है और स्वामी जी इस पर झूठ का खम्बा लगाते हैं इसके साधु और योगी ? और सन्यासी और स्वामी जी महाराज और क्या कुछ नहीं सच कहा है ।
किए लाखों सितम इस प्यार में भी आपने हम पर
खुदा ना ख्वासता गर खश्मगी होते तो क्या करते
दिन को रात में और रात को दिन में दाखिल करने के दो मायना हैं । एक तो यह कि दिन की रोशनी नही रहती और रात आ जाती है । इसी तरह रात का समय पूरा हो जाता है तो दिन की रोशनी हो जाती है दूसरे मायना यह कि कभी दिन छोटा और कभी रात छोटी ।
हां कश्ती का सवाल खूब किया । समाजियो ! परमेश्वर का आदेश सुनो ।
” जिस देश में ज्ञान और धर्म की प्रगति और प्रसार होता है वह मेरा ( परमेश्वर का ) स्थान ( प्यारा वतन ) है मैं इस राज में सेना के घोड़ों और बैलों को शक्ति प्रदान करता हूं । ” ( यजुर वेद अध्याय 20- मन्त्र -10 )
बताओ इस समय सारी दुनिया में वेदिक मत और धर्म का पतन कैसा है । ऐसा कि स्वामी जी के कथना नुसार वेदों के एकेश्वरवाद को मूर्ति पूजकों ने मालियामेट कर दिया और कर रहे हैं । अब तो परमेश्वर बे घर कहीं मारा मारा फिरता होगा क्यों न हो । वाह जी वाह घोड़े बैलों के मालिक बेचारे तो दाना पानी और घास कीमत से लेकर खिला दें जिनसे वे शक्ति पावें और परमेश्वर कहे कि मैं शक्ति देता हूं । क्या किसी विद्वान की बात है ?
समाजियो ! न्याय से कहना । ऐसा सवाल करना किसी ऐकेश्वर वादी का काम है या अधर्मी का ? सच कहते हुए किसी की रिआयत न करना वर्ना तुम्हारा चौथा नियम कैन्सिल हो जाएगा ।
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( 125 )
सूरह सज्दा तदबीर करता है काम की आसमान से तरफ जमीन के । फिर चढ़ जाता है तरफ उसके बीच एक दिन के , कि थी मात्रा उसकी हजार बरस , इन बरसों से कि गिनते हो तुम । यह है जानने वाला छुपे का और खुले का प्रभुत्व शाली कृपालु फिर ठीक किया उसको और फूंकी बीच उसके अपनी रूह से कि कब्जा करेगा तुमको मौत का फरिश्ता जो नियुक्त किया गया है साथ तुम्हारे और यदि चाहते हम । अलबत्ता देते हम रह एक रूह को जिहालत उसकी । लेकिन साबित हुई बात मेरी तरफ से यह कि अलबत्ता भर दूंगा मैं जहन्नम को जिन्नों और मनुष्यों से इकट्ठे । ” ( आयत – 4 , 5 , 8.10.12 )
आपत्ति
अब तो ठीक साबित हो गया कि मुसलमानों का खुदा मनुष्यों की तरह सीमित जगह में रहने वाला है क्योंकि यदि सर्व व्यापी होता तो एक जगह से व्यवस्था करना और उतरना चढ़ना ये बातें न होतीं । यदि खुदा फरिश्ते को भेजता है तो स्वयं भी सीमित स्थान वाला हुआ । क्या आप आसमान पर टंगा बैठा है और फरिश्तों को दौड़ाता रहता है । यदि फरिश्ते रिश्वत लेकर कोई मामला बिगाड़ दें या किसी मुर्दा को छोड़ जाएं तो खुदा को क्या मालूम हो सकता है ? ।मालूम तो उसे हो जो सर्व ज्ञाता और सर्व व्यापी हो तो वह तो है ही नहीं । यदि होता तो फरिश्ते के भेजने और कई लोगों के कि विभिन्न रूप से परिक्षा लेने का क्या काम था ।
फिर एक हजार साल का समय लगना और आने जाने की व्यवस्था से करना ये बातें बताती हैं कि वह सर्व शक्ति मान नहीं है । यदि मौत का फरिश्ता है तो उसे मारने वाला कौन सा हलाकू है ? यदि वह सदैव से है तो जीवन के सर्वकालिक में अल्लाह के शरीक हो गया ।एक फरिश्ता एक ही समय में जहन्नम भरने के लिए आत्माओं का पथ प्रदर्शन नहीं कर सकता और यदि उनको बिना गुनाह किए अपनी इच्छा से जहन्नम भर के उनको कष्ट देकर तमाशा देखता है तो खुदा गुनाहगार और निर्दयी होगा । ऐसी बातें जिस किताब में हों वह विद्वान है और न ही वह खुदा की बनायी हुई हो सकती हैं और जो दया और न्याय नहीं रखता वह कदापि खुदा नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
खुदा की तदबीर के मायना न 0 88 में गुजर चुके हैं । किसी वस्तु का खुदा की ओर चढ़ना उसके कुबूल होने से मुराद है । सुनो ।
” खुदा की तरफ नेक बातें चढ़ती हैं ” अर्थात वह स्वीकार करता है फरिश्तों को आप नहीं जानते न देख सकते हैं जिस दिन देख लिया आपकी खैरियत नहीं । ( सूरह फततर- 10 )
” इन्कारी लोग जिस दिन फरिश्तों को देखेंगे उस दिन उन की खैर न होगी ( अर्थात अज़ाब का शिकार होंगे ) ( सूरह फुरकान – 22 )
वे ऐसे नहीं जो नफ़स के पुजारी होते हैं उनके नफस ही नहीं अतः वे किसी से रिश्वत नहीं ले सकते । आप चिंता न करें । उनकी तो यह विशेषता है ।
” फरिश्ते अल्लाह की अवज्ञा किसी तरह नहीं करते । ” ( सूरह तहरीम 6 )
यदि मान लें किसी से रिश्वत लेकर किसी अपराधी पर अकारण दया कर भी दें तो अल्लाह तो परोक्ष की बातें जानता है अतः उसकी पकड़ से दोनों ( वह अपराधी और फरिश्ता ) नहीं छूट सकते । हां यह खूब कही कि खुदा को क्या मालूम हो सकता है मालूम तो उसे हो जो सर्व ज्ञाता है ।
पाठकों । स्वामी जी का ” साधुपना ” देखिए कि किसी झूठे से कम नहीं । वे झूठ बोलने से बिल्कुल नहीं डरते । हम उन्हीं के प्रस्तुत किए गए अनुवाद को ले रहे हैं कि खुदा को सब कुछ मालूम है और स्थान तो जाने दो तनिक नजर उठाकर इसी न ० के नकल किए गए अनुवाद पर नजर डालें जिस तरह अल्लाह ने जाहिरी सामान बारिश , बनस्पति आदि के असबाब बना रखे हैं उसी तरह बातिनी कामों अर्थात बन्दों के पथ प्रदर्शन आदि के बारे में बहुत से साधन जुटा रखे हैं । स्वामी जी पक्षपात और हठ धर्मी में आए हुए आलमी निजाम ( व्यवस्था ) पर सोच विचार नहीं करते । हजार साल के दिन के मायने स्वामी जी जीवित होते तो उनसे कड़ा प्रसाद लिए बिना हम न बताते मगर क्या करें , समाजी दोस्तों के लिए हमें बताना पड़ रहा है – तो सुनो ।
हजार साल और पचास हजार साल से कोई विशेष दिन तात्पर्य नहीं क्योंकि कयामत के दिन की तो कोई सीमा ही नहीं अ ब द न का शब्द कुरआन में मौजूद है जिसका मतलब होता है हमेशा हमेशा के लिए । न उस स्थानों में जहां पर यह शब्द आया है कयामत का कोई उल्लेख है अलबत्ता उन स्थानों पर अल्लाह की कुदरत का बयान है अतः आयत का मायना साफ है कि अल्लाह इस लोक में जो तदबीरें और आदेश लागू करता है उनका पालन और पूर्ति एक दिन में इतनी होती है जितनी किसी जबरदस्त बादशाह के आदेशों और तदबीरों की हजार साल में । हजार साल भी उपमा के तौर पर हैं इसलिए दूसरे स्थान पर पचास हजार साल आए हैं ( देखो न ० 146 ) कुरआन की दूसरी आयत स्वयं इन मायना की गवाही दे रही है- सुनो ।
” तुम्हारे पालनहार का एक दिन तुम्हारे हिसाब से हज़ार साल के बराबर है । ” ( सूरह हज -42 )
अर्थात उसके एक दिन के काम इतने हैं कि तुम सब प्राणी मिलकर हजार साल बल्कि पचास हजार साल तक भी करना चाहो तो न हो सकें अतः इस आयत के मायना और आयत ” कुन ” के मायना एक ही हैं । ( देखो न 0 27 )
” दुनिया के मौजूद या प्राचीन रहने का नाम खुदा का दिन है । प्रलय की परिभाषा खुदा की रात है । ” ( भूमिका पृ 014 )
अतः ईश्वरीय दिनों का भी इसी से अनुमान लगा लो । स्वामी जी ! एटम और आत्मा तो प्राचीन होकर अल्लाह के साझी न हों और फरिश्ता अल्लाह की सष्टि होकर मानो एक लम्बी अवधि तक जिन्दा रहें । वे क्यों कर अल्लाह का साझी हो जाए ? ( कहो जी कौन धर्म है ? )
खुदा किसी को बिना अपराध जहन्नम में डालेगा । सुनो
” खुदा एक कण बराबर भी लोगों पर जुल्म नहीं करता । ” ( सूरह यूनुस -44 )
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( 126 )
सूरह अहजाब- ” कह कदापि न लाभ देगा तुम को भागना । यदि भागोगे तुम मौत से या कत्ल से । ऐ बीबियों नबी की जो कोई आए तुम में से साथ अशलीलता के । उनको दो गुना यातना दी जाएगी और है यह अल्लाह के लिए आसान । ” ( आयत 16 -30 )
आपत्ति
यह मुहम्मद साहब ने इस लिए लिखाया , कहा होगा कि जंग में कोई न भागे अपनी विजय हो और मरने से भी न डरें । भोग विलास के सामान बढ़ें । धर्म का प्रचार हो और यदि बीवी अशलीलता से न आए तो क्या पैगम्बर साहब निर्लज्ज हो कर आएं । बीवियों पर अज़ाब हो और पैगम्बर साहब पर अज़ाब न हो । यह किस घर का न्याय है ?
आपत्ति का जवाब
पहले भाग का जवाब न 02 में देखें जहां जिहाद की तहकीक हो चुकी है जिहाद से न भागने की शिक्षा मनु जी के शब्दों में सुनिए । क्षत्रि मैदान छोड़ दें तो क्षत्री नहीं । ” ( मनु 7 का 98 )
स्वामी जी ! आपको गुरू ने यही शिक्षा दी थी कि जिस बात को न समझो उसपर आपत्ति कर देना ?
कैसा पापी और निर्लज्ज है वह व्यक्ति जो जिद और नफसानी इच्छा से सवाल करे ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 350 )
पैगम्बर की बीवियों को इस लिए समझाया गया है कि उन्हें घमंड न हो कि जो चाहें करें हमारी कोई गिरफ्त नहीं जैसा सामान्य रूप से राजकुमारियों को हुआ करता है इसमें रसूल का कोई उल्लेख नहीं । हां और कई एक स्थानों पर रसूल को भी गुनाह होने पर ऐसा ही धमकाया गया है । सुनो ।
” यदि तू भी शिर्क करेगा तो तेरे सदकर्म सब अकारत हो जाएंगे और आखिरत में हानि उठाएगा । ” ( सुरह जुमर -65 )
कहिए आगे पीछे को न देखने वाले कौन होते हैं ?
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( 127 )
” और अटकी रहो वीच घरों अपने के और आज्ञा पालन करो अल्लाह का और रसूल का , इनके सिवा किसी का नहीं । अतः जब अदा कर ली जैद ने उससे ज़रूरत ब्याह दिया हमने तुझसे उसको कि न होवे ऊपर ईमान वालों के तंगी बीच बीबियों ले पालकों उनके , कि जब अदा कर लें उससे ज़रूरत और है हुक्म अल्लाह का किया गया नहीं है ऊपर नबी के कुछ तंगी बीच उस चीज़ के । नहीं है मुहम्मद साहब बाप किसी मर्द का और हलाल की औरत ईमान वाली जो बख्श देवे बिना मेहर के अपनी जान नबी के वास्ते । ढील दे तू जिसको चाहे इसमें से और जगह दे अपनी तरफ जिसे चाहे । तो तेरे ऊपर गुनाह नहीं । ऐ लोगों ! जो ईमान लाए हो मत दाखिल हो बीच घरों पैगम्बर के । ” ( आयत 32 , 37 , 38 , 40 , 50 , 51 , 53. )
आपत्ति
यह बड़े जुल्म की बात है कि औरत घर में कैदी की तरह रहे और आदमी खुले रहें । क्या औरतों का दिल साफ हुआ । साफ जगह में घूमना फिरना और दुनिया के असंख्य वस्तुओं को देखना न चाहता होगा ? इसी लिए मुसलमानों के लड़के मुख्य रूप से आवारा और रंगीन स्वभाव व भोग विलास के शौक़ीन होते हैं । क्या अल्लाह और रसूल के आदेश एक दूसरे के अनुकूल हैं या प्रतिकूल ? यदि अनुकूल हैं तो यह कहना कि दोनों का हुक्म मानो , बेकार की बात है । यदि प्रति कूल है तो एक का हुक्म सही और दूसरे का गलत होगा । इन दोनों में से एक खुदा और दूसरा शैतान हो [1]जाएगा और एक का शरीक दूसरा बन जाएगा वाह कुरआन के खुदा और पैगम्बर आपने ऐसे कुरआन को जिसकी रू से दूसरे को हानि पहुंचा
कर अपना मतलब निकाला जाए । इससे यह भी साबित होता है कि मुहम्मद साहब बड़े जिन्स परस्त थे यदि न होते तो ले पालक बेटे की पत्नी को अपनी पत्नी क्यों बनाते और तमाशा यह कि ऐसी बातों के करने वालों का खुदा भी हिमायती बन गया और अन्याय को भी न्याय ठहराया ।
मनुष्यों में वहशी से वहशी मनुष्य भी बेटे की पत्नी को छोड़ देता है और यह कैसा घिनौना काम है कि नबी को वासना में कुछ भी रुकावट नहीं होती । यदि नबी किसी का बाप न था तो जैद ले पालक बेटा किस का था ? जब बेटे की पत्नी को भी घर में डालने से पैगम्बर साहब न रुक सके तो औरों से क्यों कर बचे होंगे । ऐसी चालाकी भी बुरी बात करने वाले की बदनामी होने से रूक नहीं सकती । क्या यदि गैर औरत भी नबी से खुश होकर ब्याह करना चाहे तब भी हलाल होगी ? और यह तो बड़े गुनाह की बात है कि नबी जिस औरत को चाहे छोड़ दे और मुहम्मद साहब की औरतें पैगम्बर साहब के दोषी होने पर भी उसे कभी न छोड़ सकें । यदि पैगम्चर के घर में कोई दूसरा व्ययभिचार की नीयत से दाखिल हो तो वैसे ही पैगम्बर साहब को भी किसी के घर में दाखिल न होना चाहिए । क्या नबी जिस किसी के घर में चाहे बिना संकोच दाखिल हो सके और फिर भी सम्मानित बना हरे ? भला कौन अक्ल का अंधा होगा कि जो इस कुरआन को खुदा का बनाया हुआ और मुहम्मद साहब को पैगम्बर और कुरआन के बताए हुए खुदा को सच्चा मान सके । बड़ी हैरत की बात है कि ऐसे तर्कहीन धर्म विरोधी धर्म को अरबों ने स्वीकार कर लिया ।
[ 1- समाजियो ! उपदेश मंजरी जरा देखकर पंडित जी की इन बातों की जांच करो । हाथी के दांत दो प्रकार के तो हैं।]

आपत्ति का जवाब
औरतों को घरों में कैद रखने का कोई हुक्म इस्लामी शरीअत में नहीं । आदेश केवल यह है कि गैर महरमों से जिनसे निकाह जायज़ है अपने आपको छुपा दें कि वे देख कर मोहित न हों । या कम से कम उन्हें बुरा विचार पैदा न होता कि व्यभिचार यथा इच्छा बन्द रहे यद्यपि यह मतलब किसी पुष्टि का मोहताज नहीं फिर भी अपने समाजी दोस्तों के लिए स्वामी जी के कथन से इसकी पुष्टि करा देते हैं ताकि समाजियों को पंडित की चालाकी का एतेराफ हो कि जिस बात को स्वयं ही बड़े अतिश्योक्ति के साथ बयान करते हैं यदि वही हुक्म इस्लाम में देखें तो तुरन्त आपत्ति करने लग जाते हैं । सुनो ! पंडित जी का कहना है ।
“लड़कियों के मदरसे में सब औरतें और मर्दो के मदरसे में मर्द हों । औरतों के मदरसे में पांच साल का लड़का और मर्दाना पाठशाला में पांच साल की लड़की भी न जाने पाए । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 42 – समलास 3 न 04 )
और सुनिए ।
” औरतों व मर्दो का मन्दिरों में मेल जोल होने से व्यभिचार लड़ाई , बखेड़ा और बीमारियां आदि पैदा होती हैं । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 419 )
कोई पंडित जी से पूछे इतना बचाव क्यों है कि पांच साल की लड़की और लड़के भी आपस में न मिले । इस उम्र में उनको होश ही क्या होगा ? तो शायद ( शायद क्या निश्चय ही ) पंडित जी यही कहेंगे कि मर्द व औरत का उदाहरण सैड लीटज़ पाउडर[1] का होता है जो अलग अलग तो कुछ नहीं , मिलकर जोश पैदा करती हैं सच है ।
[1 – एक दवा का नाम है जिसकी पुड़िया होती है अलग अलग बर्तन में घोल कर जब उनको मिलाते हैं तो एक जोश और उबाल सा होता है । डा 0 हल्के से जुलाब में दिया करते हैं । हमारे शिक्षित पर्दे के विरोधी भी सोच विचार करें।]
ये सब कहने की बातें हैं हम उनको छोड़ बैठे हैं
जब आंखें चार होती हैं मुहब्बत आ ही जाती है
और सुनिए ! स्वामी जी और मनु जी क्या आदेश करते हैं । ” सारी इन्द्रियों को अपने बस में रखना । इन्द्रियों को बड़े कायदे से काबू में करना चाहिए । इन्द्रियों का मिलन आपसी आकर्षक से होता है अतएव मनु जी ने फरमाया है इन्द्रियां इतनी ज़बरदस्त हैं कि मां , सास और लड़की आदि के साथ भी होशियारी से रहना चाहिए दूसरों का तो क्या कहना । ” ( उपदेश मंजरी पृ 017 )
स्वामी जी ने इस आयत पर ध्यान नहीं दिया ।
” अज्ञानता के तरीके से बाहर न निकला करो जैसे पहले कुफ्र की हालत में निकला करती थी । ” ( कुरआन )
स्वामी जी यदि जिन्दा होते तो हम उन्हें उन औरतों का हाल दिखाते जो ज़ेवर व लिबास से सजी धजी बाजारों में फिरती हैं और उनके घूमने से उस समय जवान से लेकर बूढे दुकानदारों पर मनु के कहने के अनुसार क्या हालत गुजरती है उनकी ज़बान से वह दास्तान सुनवाते । समाजी यदि चाहें तो हम इन विवश व बेबस लोगों की ओर से संक्षिप्त शब्दों में उनका हाल प्रस्तुत कर देते हैं पाठक हमें क्षमा करें ।

सुनो कोई इस वक्त आह व बुका करता हुआ कहता है
हाय यह जुल्फ सियाह डस गयी नागन बन के
कोई अपने दर्द की कहानी यूं बयान करता ।
देखो उस चश्मे यार की शोखी
जब किसी पारसा से लड़ती है
कोई चिल्लाता हुआ यह कहता है।
हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
उनकी जुल्फों के सब असीर हुए

यदि उनसे कहें भाइयो ! अपनी निगाहें नीची रखो तो इसका वे बड़ा अच्छा जवाब देते हैं- सुनो वे कहते हैं ।
कौन रखता है भला ऐसा जिगर देखें तो
यार हो सामने देखे न उधर देखें तो
और यदि उनको कुछ अधिक ही परेशान करते हैं तो वे भी बिगड़ जाते हैं और मुंह फट होकर कहने लग जाते हैं ।
दीदार मय नुमाई व परहेज मय कुनी
बाजार ख्वैश व आतिश मा तेज़ मयकुनी
सुबहानल्लाह ! इन्हीं खराबियों को मिटाने को अल्लाह ने जो मानव प्रकृति से पूरी तरह अवगत है मानव प्रकृति को ध्यान में रखते हुए फरमाया है ।
” औरतें अपना अंगार व चेहरे को न जाहिर करें सिवाए इतने के कि जो किसी तरह छुप नहीं सकती ( जैसे बुरका ) और बाज़ार में चलते समय कपड़ों से ऊपर एक भारी चादर लिया करें । ” ( सूरह नूर -31 )
अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों को मानने का यह मतलब है कि जो आदेश वहय द्वारा रसूल पर पहुंचे और रसूल हमें बता दे या अमल करके दिखा दे जैसे नमाज आदि तो उसका मानना फ़र्ज़ है और यदि कोई आदेश सांसारिक मामलों से संबंधित कह् तो मानने या न मानने का हमें हक हासिल है जैसे अन्य मश्वरों का ।
हुजूर सल्ल 0 ने स्वयं फ़रमाया है- अन्तुम आलमु बिउमूरि दुन्या कुम । यदि यह सदेह हो कि रसूल अपने पास से कोई ऐसी बात कह दे जो खुदा की बताई हुई के विरुद्ध हो तो आप भी सुनिए और उसका जवाब सोचिए कि जिन वृषियों मुनियों पर वेद ईश्वरीय संकेत द्वारा उतरे थे जब वे स्वयं उनको न समझे थे अतएव आप स्वयं इस बात को कह चुके हैं ।
” अग्नि वायु आदि वृषियों ने ज्ञान ध्यान किए तो परमेश्वर ने उनको वेदों का मतलब बताया । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 269 समलास 7 न 0 74 )
” यदि ये वृषि वेदों के लेखों में अपनी ओर से कुछ मिला देते तो आप क्या करते उसे भी मानते या नहीं और आप उस मिलाए हुए की तमीज़ ( फर्क ) किस प्रकार करते ? सुनो कुरआन तो सवाल का जवाब यह देता है ।
” यदि हमारे रसूल हमारे ( खुदा के ) के जिम्मे कोई बात लगादे जिसका हमने उसे हुक्म न दिया हो तो तुरन्त हम उसे मार डालें । ” ( सूरह हाक्का – 44-46 )
आप भी कोई वेद मन्त्र इस विषय का सुनाइए । पैगम्बर के शरीक बनने का जवाब न 0 21 , 53 , 55 में देखें ।
जैद का किस्सा जो इस आयत में उल्लिखित है ऐसा नहीं है कि किसी को मालूम न हो । ईसाइयों ने तो इसके बारे बहुत से पृष्ठ सियाह किए हैं अतः हम भी इसका बयान करते हुए दोनों कौमों ( ईसाइयों और आर्यों ) को जो हकीकत में इस कला में गुरु व शिष्य हैं का ध्यान रखेंगे ।
असल बात यह है जैनब एक औरत हुजूर सल्ल 0 की एक कबीले में सगी संबंधी थी अच्छे नसब वाली , अत्यन्त सुन्दर । नबी सल्ल 0 उसकी शादी जैद बिन हारिसा रजि 0 से करा दी थी जो किसी जमाने में गुलाम था फिर नबी सल्ल 0 ने ही उसे खरीद कर आज़ाद कर दिया था और अपने पास ही बेटे की तरह रखा यहां तक कि लोग उसे जैद बिन मुहम्मद भी कहते थे अर्थात जैद मुहम्मद का ले पालक बेटा है । सदाचारी था भला था पर सुन्दर न था ।
इसी वजह से या किसी और वजह से जिसे पति पत्नी ही जानते हैं और दूसरे को इन बातों का पता भी नहीं हो सकता तो ( पति पत्नी ) दोनों में खट पट रहती थी आखिर जैद उसे छोड़ने पर तैयार हो गया । चूंकि नबी सल्ल 0 ने यह रिश्ता स्वयं जोर देकर कराया था और मशहूर भी था कि जैद हज़रत का ले पालक है इसलिए आपने उसे बहुत समझाया कि तू जैनब को न छोड़ इस मामले में अल्लाह से डर , किसी शरीफ औरत को जरा सी बात पर नाराज़ होकर तलाक देकर बदनाम करना अच्छा नहीं ।
आखिर जब वह छोड़ने पर ही अड़ा रहा तो आपने जैनब के इस घाव का इलाज इसके सिवा कुछ न सोचा कि उसे अपनी जीवन संगनी बना लिया जाए क्योंकि उस समय किसी मुसलमान औरत की इज्जत इससे अधिक कुछ न थी कि वह रसूल की पत्नी हो मगर देश की रस्म थी कि ले पालक की पत्नी नस्ली बेटों की तरह समझी जाती थी लेकिन इस्लामी शरीअत में यह हुक्म इस तरह नहीं था । इस्लाम में सगे बेटों की पत्नी हराम थी ले पालक की नहीं । बल्कि ले पालक वारिस भी नहीं है क्योंकि नुत्फे ( वीर्य ) का संबंध इसमें नहीं है इसलिए नबी सल्ल 0 दो तीन तरह की कशमकश हो गए ।
ज़ैनब का दिल रखना , उसके घावों पर मरहम रखना , देश की रस्म का ख्याल , इस नाजायज़ रस्म को मौजूद रखने में अल्लाह का भय , इसलिए आपने जहां देश की अन्य रस्मों को त्याग दिया था और स्थाई रिफारमरों की तरह इसकी भी कोई परवाह न की और जैद के जैनब को छोड़ने के बाद उन्हें अपनी धर्म पत्नी बना लिया । इस बारे में स्वयं कुरआन पूरी घटना बयान करता है ।
” जब तूने ऐ मुहम्मद उस व्यक्ति को जिस पर अल्लाह ने और तूने भी उपकार किए थे बहुत कहाः कि अपनी पत्नी को अपने पास रख और अल्लाह से डर । और तू अपने मन में ( उसके निकाह करने के बारे में इच्छा को ) छुपाता था जो खुदा को खोलना था और तू लोगों से डरता था यद्यपि अल्लाह से डरने का हक अधिक है । अतः जब जैद ( तेरे ले पालक ) ने उसे छोड़ दिया तो हम ( खुदा ) ने तेरे साथ उसका निकाह कर दिया अर्थात अनुमति दी ताकि मुसलमानों को ले पालकों की पत्नियों से निकाह करने में जब वे उन्हें छोड़ दें , हरज न हो । और अल्लाह के काम किए हुए होते हैं ।
इसके बाद हमारा हक़ बनता है कि हम अपने सम्बोधन करने वालों से कुछ पूछे ।
ईसाइयों और दयानन्दियो ! बाइबिल का कोई पाठ या वेद का कोई मन्त्र इसके मायना का दिखा सकते हो ? जिसका मतलब यह हो कि ले पालक बेटे की पत्नी से निकाह करना मना है दिखाओ तो हम तुमको मुंह मांगा इनाम दें ।
ईसाइयो ! तुम्हें तो विशेष रूप से शर्म आनी चाहिए कि तुम रूमियों के 4 अध्यायों की 15 को भी नहीं देखते – सुनो
” जहां शरीअत नहीं वहां अवज्ञा भी नहीं । ”
जहां कानून नहीं वहां पकड़ और अपराध ६ को आयत कुरआन की ( तुम्हारी रिआयत से हम यह भी कहते हैं ) बाइबिल की बताओ इस आरोप प्रत्यारोप को वापस लो । दयानन्दियो ! अपने उस्ताद ईसाइयों की तरह हवा के पीछे न पड़ो ।कोई वेद मन्त्र ही इस विषय का बताओ वर्ना वेद की आज्ञा का पालन करने से शर्म करो ।
यदि किसी दूसरे धर्म शास्त्र से बताओ तो पहले यह कह लो कि वेद इस बयान में विवश हैं वर्ना वेद को सारी सच्चाइयों की खदान और सारे ज्ञानों का खजाना कहकर यह कहना मुश्किल है स्वामी जी यह भी पूछते हैं कि ज़ैद का बेटा किस का था । पंडित जी यदि जीते तो मिठाई लिए बिना ऐसे मुश्किल सवाल का जवाब हम कभी न बताते । अब दयानन्दियों के कारण हमें बताना पड़ रहा है – लो सुनो–
हारिसा का बेटा था अतएव जब कुरआन में ले पालकों के बारे में हुक्म आया कि- ” तो जैद बिन मुहम्मद की बजाए जैद बिन हारिस उसको कहा करते थे । ” ( अहजाब -5 ) निससंदेह जैसा औरों से पद है वैसा ही नबी से है । आपने कोई आयत इस विषय की लिखी होत जिसका यह मतलब होता कि नबी से पर्दा नहीं तो हम जवाब देते ।
पंडित जी ऐसी चालाकी से बढ़कर भी कोई बुरी बात हो सकती है कि आप बेटे और ले पालक में फर्क नहीं कर सकते और धोख देने को कहते हैं कि- ” जब बेटे की पत्नी को घर में डालने पैगम्बर साहब न रुक सके तो औरों से किस प्रकार बचे होंगे ” योग और साधू होकर ऐसी दुर्भावना और धोखा धड़ी ? सच है–
पंडित अते मशालची दोनों इको टच
हौरां करन उजावला आप हंदेरे विच
समाजियो ! स्वामी जी की खुश फ़हमी की दाद दो । लिखते कि ” गैर औरत भी नबी से खुश होकर शादी करना चाहे तो होगी । “

पंडित जी चूंकि सारा जीवन ब्रहमचारी रहे हैं नहीं मालूम कि गैर औरत ही से शादी होती है । शादी से पहले वह अपनी औरत कैसे हो सकती है ? पैगम्बर साहब की औरतें भी पैगम्बर साहब से ना खुशी पर इसी प्रकार खुलअ ( तलाक ) करके अलग हो सकती हैं ?जिस प्रकार सामान्य मुसलमानों की । हां पैगम्बर साहब को विशेष रूप से शादी वाली को स्वयं छोड़ने से कुरआन में मनाही आयी है । अतः आयत का मतलब यह है कि जिस पत्नी को सफर में साथ ले जाना चाहो या पीछे छोड़ने का ख्याल हो तो यह भी कर सकते हो और बस ।
पता नहीं पंडित जी ने यहां बहु पत्नी विवाह पर क्यों नहीं बहस की । ऐसा नर्म शिकार क्यों छोड़ दिया । सोच विचार करने के बाद यह समझ में आता है कि पंडित जी को मन ही मन में लज्जित होना पड़ा होगा कि बहु पत्नि विवाह तो वेद में भी मना नहीं । फिर मैं किस मुंह से मना करने का दावा करूं मुख्य रूप से ऐसे लोगों के लिए जो वेद का स्पष्ट मंत्र लिए बिना मेरी जान नहीं छोड़ेंगे ।

समाजी मित्रो ! कोई मंत्र बहु पत्नी विवाह के मना करने का हो तो दिखाओ । ऋग्वेद  मंत्र उल्लिखित भूमिका पृ 0 134 काफ़ी नहीं । मात्र स्वामी जी की खींच तान है । ध्यान से देखो बहु पत्नी विवाह की फ़लसफ़याना शोध देखना हो तो तफसीर सनाई भाग 2 हाशिया न 0 8 देखें । या हमारा रिसाला बहु पनि विवाह नियोग और तलाक देखो ।
[उर्दू ‘निकाह आर्य’ ऑनलाइन है]
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( 128 )
” और नहीं उचित तुम्हारे वास्ते यह कि यातना अल्लाह के रसूल को वर्ना यह कि निकाह करो बीवियां उसकी को पीछे उसके कभी । तहकीक़ यह है कि नजदीक अल्लाह के बड़ा गुनाह । बेशक जो लोग यातना देते हैं अल्लाह को और उसके रसूल को अल्लाह ने उनको फटकार लगायी है । और वे लोग यातना देते हैं मुसलमानों को और मुसलमान औरतों को बिना इसके कि बुरा किया हो तो बेशक उहाया उन्हान खुला बोहतान ” फटकारे जाएं जहां पाए जाएं ” पकड़े जाएं और कत्ल किए जाएं । खूब कत्ल करना । ऐ हमारे पालनहार उनको दुगना अजाब और फटकार कर और फटकार बड़ी । ( आयत 53,57,58.62.68 )
आपत्ति
वाह क्या अल्लाह अपनी खुदाई को धर्म के साथ दिखला रहा है । रसूल को यातना देने से मना करना तो ठीक है लेकिन दूसरे को यातना देने से रसूल को भी रोकना उचित था तो क्यों नहीं रोका ? क्या किसी को यातना देने से अल्लाह भी दुखी हो जाता है यदि ऐसा है तो वह खुदा ही नहीं हो सकता । क्या अल्लाह और रसूल का यातना देने की मनाही करने से यह भी साबित नहीं होता कि अल्लाह और रसूल जिसे चाहें यातना दें और लोग भी सिवाए उनके जिनको चाहे यातना दें जैसा मुसलमान मर्द व औरत को यातना देना बुरा है । वैसा ही गैर धर्म वालों को भी यातना देना बहुत बुरा है जो उसे न माने तो उनको पक्षपाती समझो ।
वाह रे शोर मचाने वाले खुदा और भी तुम से तो निर्दयी दुनिया में थोड़े बहुत होंगे जो यह लिखा है कि गैर लोग जहां मिलें उनको पकड़ो और यदि ऐसा ही मुसलमानों के साथ गैर धर्म वाले बर्ताव करें तो उनको यह बात बहुत बुरी लगेगी या नहीं ? वाह कैसे खतरनाक पैगम्बर हैं कि खुदा से दूसरों को दुगना दुख देने की दुआ मांगते हैं उनसे उनकी हिमायत , स्वार्थ और क्रूरता का सबूत मिलता है इसी वजह से अब तक भी मुसलमान लोगों में से बहुत से मूर्ख लोग ऐसा ही अमल करने से नहीं डरते । यह ठीक है कि शिक्षा के बिना मनुष्य जानवर के बराबर रहता है ।
आपत्ति का जवाब
महाराज धन्य महाराज । एक व्यक्ति को किसी मौलवी साहब ने नमाज़ की ताकीद की तो बोला खुदा फरमाता है । ” नमाज मत पढ़ो ” ( सूरह निसा – 43 )
मौलवी साहब ने कहा- कम बख़्त ! उसके आगे व अन्तुम सुकारा अर्थात नशे की हालत में भी तो है । वह व्यक्ति बोला सारे कुरआन पर तेरे बाप ने अमल किया है जो मैं करूं । मैं तो इसी एक टुकड़े पर अमल कर सकता हूं । यही हाल पंडित जी महाराज का है ।
स्वामी जी ! जिस प्रकार हम मुसलमान कुरआन के अन्र्तगत रिआया ( जनता ) हैं उसी प्रकार पैगम्बर साहब भी इन आदेशों को मानने के पाबन्द थे नाम लेने की जरूरत नहीं ।
किसी की यातना से अल्लाह अवश्य दुखी होता है मगर याद रहे कि- ” जहां मायना असंभावित हो वहां उपमा अवास्तविक होती है । ( भूमिका पृ 0 10 )
अतः अल्लाह के दुखी होने के यह मायना हैं कि वह ऐसे कामों से नाराज होता है । बेशक गैर धर्म वालों को भी यातना देना वैसा ही बुरा है जैसा मुसलमानों को । यदि गैरों से जंग है तो उसके लिए भी सारे हालात उचित देखने होंगे जिसको विस्तार से न 04 में देख लें । पता नहीं स्वामी जी की राल आपत्तियों पर ऐसी क्यों टपकती जाती थी कि कुरआन शरीफ की मौजूदा आयतों को भी नहीं देख सकते ।
” हाय कैसा पापी है वह मनुष्य जो धर्म के अंधेरे भ्रष्ट कर दे । ” ( भूमिका सत्यार्थ पृ 07 )
हम समाजी भाइयों से दाद चाहने के लिए वह आयत पूरी की पूरी नकल करते हैं जिस पर पंडित जी ने आपत्ति खड़ी की थी कि ” कैसे खतरनाक पैगम्बर हैं कि खुदा । से दूसरों को दुगना दुख देने की दुआ मांगते हैं तो सुनो- यहां हम जो आयत प्रस्तुत कर रहे हैं इसमें उन लोगों का उल्लेख है जो अपनी हरकतों के कारण जहन्नम में डाले जाएंगे तो उस समय वे यह कहेंगे ।
” ऐ हमारे पालनहार ! हमने बुरी बातों में अपने सरदारों और मुखियाओं का अनुसरण किया तो उन्होंने हमें पथ भ्रष्ट कर दिया । ऐ हमारे स्वामी । तू उनको हम से दुगनी यातना दे और बड़ी भारी लानत और फटकार कर । ” ( सूरह अहजाब – 67-68 )
समाजियो ! बताओ यह पैगम्बर की दुआ है या शरीरों , झूठों और काफिरों की ? कुरआन की यह आयत तनिक अधिक ध्यान से पढ़ो । दुख की बात है कि स्वामी जी आपत्ति करते हुए भूमिका पृ 0 52 को हमेशा भूल जाते हैं ।
समाजियो ! यदि कुरआन शरीफ की आयत का वह मतलब हो जो स्वामी जी लिखते हैं तो हम तुम्हारे गुरुकुल ( धार्मिक पाठशाला ) और कालेज के लिए पांच सौ रूपया नकद देंगे । मर्दे मैदान बनो ऐसे दो स्थानों का सबूत ही दिखाओ । माना कि तुम्हें रूपयों का लालच नहीं मगर अपने गुरू की इज्जत तो चाहते हो वर्ना दुनिया क्या समझेगी और स्वामी जी परलोक में तुम्हें क्या कहेंगे ?
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( 129 )
सूरह फातिर- ” और अल्लाह वह व्यक्ति है कि भेजता है हवाओं को तो उठाती है बादलों को । अतः हांक लाते हैं हम उसको मुर्दा शहर की ओर । तो ज़िन्दा किया हमने साथ उसके जमीन को पीछे मौत उसकी के । इसी तरह कब्रों में से निकालता है जिसने उतारा हम को बीच घर रहने के अपनी कृपा से । नहीं लगती हमको बीच उस के मेहनत और नहीं हम को बीच उसके मेहनत और नहीं हम को बीच उसके मलीनता । ” ( आयत – 9-35 ) ।
आपत्ति
वाह क्या अनोखी फलासफी खुदा की है । खुदा हवा को भेजता है वह बादलों को उठाती है और खुदा उससे मुर्दो को जिन्दा करता है । ये बातें खुदा की कदापि नहीं हो सकती क्योंकि खुदा का काम पूरा का पूरा रहता है न कम न ज्यादा । जो घर का होगा वह बनावट के बिना नहीं हो सकता और जो बनावट का है वह सदैव नहीं रह सकता । जो शरीर रखता है वह बिना मेहनत कैसे दुखी रहता है और शरीर वाला बीमार हुए बिना कभी नहीं बचता । जब एक औरत से संभोग करना रोग का सबब है तो जो कई औरतों से संभोग करता है उसकी कितनी बुरी हालत होती होगी ? इसलिए मुसलमानों का जन्नत में रहना हमेशा सुखदायी नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
बे इमानों , नास्तिकों , अधर्मियों और बहुदेव वादियों से जब कभी बात हुई और खुदा का सबूत ईश्वरीय कामों से पेश किया तो यही जवाब सुना- ” वाह खुदा की अनोखी फलासफी ” मौलाना इसमाईल शहीद देहलवी रह से एक साहब नाराज थे सुना है उन्होंने प्रतीज्ञा कर ली थी कि जो बात इस्माईल कहेगा मैं उसका विरोध करूंगा । मौलाना शहीद को भी खबर मिली फरमाया- ” उसे कहो इसमाईल मां से निकाह करना हराम बताता है इसके खिलाफ कर- ” तो यही हाल स्वामी का है । कुरआन की सीधी सादी हकीमाना इबारत को भी अंधों की खीर बनाना चाहते हैं । सच है–
जो निकले जहाज उनका बच कर भंवर से
तो तुम डाल दो नाव अन्दर भंवर के
पंडित जी ! सुनिए परमेश्वर आदेश देता है ” इस पुरुष ( परमेश्वर ) के मन अर्थात चार या सोच विचार करने और मंत्र 12 ) वाली सामथर्य से चांद पैदा हुआ चक्षू अर्थात प्रकाश से सूर्य प्रकट हुआ और श्रोत्तर अर्थात अकाश सूरत कुदरत से आकाश पैदा हुआ और वायु अर्थात हवा सूरत कुदरत से हवा पुरान और तमाम इन्द्रियां पैदा हुई और मुख अर्थात तेज व प्रतापी कुदरत से आग पैदा हुई । ( यजुर वेद अध्याय 21-मंत्र12)
इस पर कोई बे मायनी हंसी उड़ा दे कि ……
” वाह परमेश्वर की अनोखी फलासफी कि आकाश पैदा हुआ यद्यपि आकाश कोई ठोस वस्तु नहीं बल्कि एक गैर मुरक्कब सर्वकालिक वस्तु है इसकी पैदाइश लिखने से पता चला कि वेद का लेखक भौतिकी विज्ञान को भी नहीं जानता था । ” ( न 0 88 में जरूर देखो और स्वामी जी को दाद दो )
अतः हम भी इसी जवाब पर हस्ताक्षर करते हैं और बस क्योंकि नैतिक वाक्य कि जाहिलों के सामने खामोशी बेहतर ऐसे ही अवसर के लिए है । हां इतना कहते हैं कि स्वामी जी का यह कथन कि ” खुदा उससे मुर्दो को जिन्दा करता है । ” आज मुर्दा मुराद नहीं है बल्कि शहर मुर्दा अर्थात सूखी जमीन मुराद है इसलिए कि जिस शब्द का यह अनुवाद है वह कुरआन शरीफ में बलदमीत है जिस के मायना सूखी जमीन के हैं ।
बहिश्त के बारे में सवाल व जवाब कई बार हो चुके हैं जबकि हम इसी दुनिया में देखते हैं कि बहुत से आदमी एक ही तरह का आहार खाते हैं जिनमें से कुछ ठीक ठाक रहते हैं और कुछ उसी आहार से रोगी होकर मर भी जाते हैं तो जिस जगह यह कानून ही न होगा कि कोई आहार किसी शरीर के लिए हानिकारक हो सके । वहां पर यह आपत्ति करना कि ” शरीर वाला बीमार हुए बिना कदापि नहीं रह सकता । ” बिल्कुल इसी की तरह जो गर्मियों में शिमला या कश्मीर वालो की हालत सुनकर कि वे गर्म कपड़े पहनते हैं सवाल करे कि गर्मियों में पंखे के बिना किस तरह गुजार सकता है और गर्म कपड़े किस तरह पहन सकता है ? अतः शिमला और कशमीर का किस्सा गलत है ।
जो कई औरतों से संभोग की ताकत न रखता होगा उसे कई औरतें न मिलेंगी बल्कि यदि किसी को एक औरत से भी ( जैसे कि आप ) तकलीफ पहुंचेगी तो एक भी न मिलेगी । मतलब यह है जो चीज़ कष्ट पहुंचाने वाली यहां हो सकती है वहां न होगी बस । समाजी भाइयो ! सुनते हो ! स्वामी जी क्या फरमाते हैं कि एक औरत से भी संभोग करना बीमारी का कारण है । यदि हमारी राय गलत न हो तो स्वामी जी चाहते हैं कि तुम लोग स्त्रियों को छोड़ छाड़ कर पंडित जी महाराज की तरह लंगोट बांध लो । न्याय से कहना अपने चौथे उसूल को याद करके बताना कि नेचर की शिक्षा यही है ।

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( 130 ) सूरह यासीन- कसम है कुरआन मोहकम की बेशक तू अलबत्ता भेजे गए वालों में से है । ऊपर सीधी के उतारा है प्रभुत्व शाली खुदा ने ” ( आगत 1-4 )
आपत्ति
अब देखिए यदि यह कुरआन खुदा का बनाया हुआ होता तो वह इसकी कसम क्यों खाता । यदि नबी खुदा का भेजा हुआ होता तो ले पालक बेटे की पत्नी पर मोहित क्यों होता ? यह कहने ही की बात है कि कुरआन के मानने वाले सीधी राह पर हैं क्योंकि सीधी राह वही होती है कि जिसमें सच मानना , सच बोलना , सच करना , पक्षपात छोड़ कर न्याय धर्म का अनुसरण करना आदि हों और इनके खिलाफ काम करने छोड़ दिए जाए तो न कुरआन में , न मुसलमानों में और न उनके खुदा में ऐसी सदाचारी आदतें व विशेषताएं हैं ।यदि पैगम्बर मुहम्मद साहब सब पर विजयी होते तो सबसे अधिक विद्वान और अच्छे चाल चलन क्यों न होते ? इसलिए जिस प्रकार मेवे बेचने वाला अपने बेरों को खट्टा नहीं बताते वैसे ही यह बात समझनी चाहिए ।
आपत्ति का जवाब
कसम का मामला न 0 100 में आ चुका है । यह अजीब बात कही कि कुरआन खुदा का बनाया हुआ होता तो वह इसकी कसम क्यों खाता । जिसका मतलब यह है कि खुदा यदि बन्दों को समझाने के लिए बन्दों के मुहावरा में बात करे और कसम खाए तो किसी ऐसी चीज की खाए जो उसकी बनाई हुई न हो । भली बात कही । ले पालक बेटे की पत्नी का जवाब न 0 127 में आ चुका है ।
पंडित जी ने सीधी राह की प्रशंसा की जो सारे धर्मों में पायी जा सकती है । स्वामी जी ! कौन धर्म दुनिया में है जो सच को स्वीकारने और झूठ को छोड़ने का उसूल न रखता हो । यह तो दीवानों की बड़ के बराबर है कि कुरआन में न उनके खुदा में ऐसी सदाचारी आदतें हैं , हां यह खूब कही कि – ” यदि पैगम्बर साहब सब पर विजयी होते तो सबसे अधिक विद्वान और ठीक ठाक चाल चलन क्यों न होते ? इस सवाल का जवाब तो हम पीछे देंगे । पहले समाजियो से यह पूछते हैं कि किस कुरआनी इबारत पर यह सवाल किया गया है । ओहो हम तो भूल गए उल्लिखित अनुवाद में गालिब का शब्द है जिस पर उसताद गालिब का एक शेअर भी याद आया जो बाद में थोड़े संशोधन से हकीकत में स्वामी जी के ऊपर फिट आ गया । तनिक ध्यान से सुनो
गालिब बुरा न मान जो पंडित बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि यह अच्छा कहें जिसे
समाजियो ! न्याय से बताओ अपने चौथे उसूल [1]को जो सोने से लिखने के योग्य है याद करके बताओ कि कुरआन के अनुवाद में गालिब किस की विशेषता है खुदा की या पैगम्बर की ? फिर यह मसला जल्द ही तय हो जाएगा कि पैगम्बर साहब कैसे विद्वान थे कि उनके ईश्वरीय संकेत का अनुवाद वह भी उर्दू फिर उर्दू से नागरी किया हुआ भी आप लोगों के स्वामी महर्षि की समझ में नहीं आया । धर्म से कहो कि क्या ज्ञान है । सुनो ! कुरआन ने इस घटना की पहले से खबर दी हुई है ।
” जो बात और कहावत तेरे सामने आपत्ति के रूप में पेश करेंगे हम उसके बारे में सच्ची और बेहतर टीका तुझे सुना देंगे । ” ( सूरह फुरकान -33 )
समाजियो ! अब भी पैगम्बर साहब के ज्ञान एवं सूझ बूझ को मानते हो या नहीं । अच्छे चाल चलन के बारे में यह हाल है कि आप जैसे दुश्मन को भी ईसाइयों की कासा लेसी के सारी उम्र की घटनाओं में जैनब के निकाह की एक घटना मिली जिसका जवाब हम न 0 127 में दे चुके हैं ।
[1- आर्यों का चौथा उसूल है कि सच को स्वीकार करने और झूठ को छोड़ने को सदैव तैयार रहना चाहिए ( केवल हाथी के दांत )]
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( 131 )
” और फूंका जाएगा बीच उनके तो अचानक वे कब्रों में से अपने स्वामी की ओर दौड़ेंगे और गवाही देंगे पांव उनके इस कारण कि कमाते थे सिवाए उसके नहीं कि हुक्म उसका जब चाहे पैदा करना किसी चीज़ का यह कहता है उसके कि ” हो ” तो हो जाती है ( आयत 50 , 63,80 )
आपत्ति
सुनिए ऊट पटांग बातें क्या पांव कभी गवाही दे सकते हैं ? खुदा के सिवाए खुदा के सिवाए उस समय कौन था कि जिसका हुक्म दिया और किसने सुना और कौन बन गया ? यदि कोई चीज़ न थी तो यह बात झूठी है और यदि थी तो वह बात कि खुदा के कुछ न था और खुदा ने सब कुछ बना दिया झूठी होगी । ”
आपत्ति का जवाब
देखा पागलाना बड़ । एक ही बात को बार बार कहे जाते हैं । हाथ पांव की गवाही का जवाब न 0 13 में और खुदा का हुक्म किसने सुना इसकी जांच न 0 27 में हो चुकी है ।

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( 132 )

सूरह साफ्फात- “ फिराया जाएगा उस पर उनका प्याला मीठी शराब का । सफेद आनन्द देने वाली । पीने वालों के वास्ते उनके निकट बैठी होंगी नीची नज़र रखने वालियां , सुन्दर आंखों वालियां , मानो कि वे मोती हैं छुपाए हुए तो क्या हम नहीं मरेंगे और बेशक लूत अलैहि ० पैगम्बरों में था । जिस समय हमने नजात दी उसको और उसके और एक पीछे रहने वालों में से थी । फिर विनष्ट किया हमने औरों को । ” ( आयत 44 , 45.48 , 57,131 , 132,133,134 )
( प्रिय पाठकों अनुवाद का मतलब समझ में न आए तो पंडित जी की आत्मा को सवाब पहुंचाओ जो इधर उधर की आयतें बे मौका जमा करके गड़बड़ी मचाते हैं )
आपत्ति
क्यों जी यहां तो मुसलमान लोग शराब को बुरा बताते हैं लेकिन उनकी जन्नत में तो शराब की नदियां बहती हैं ? इतना अच्छा है कि यहां तो किसी तरह से शराब नोशी छुड़ाई लेकिन यहां के बदले वहां उनकी जन्नत में बड़ी खराबी है । औरतों के मारे वहां किसी का दिल बस में नहीं रहता होगा , बड़ी बड़ी बीमारियां भी होती होंगी। यदि वहां के आदमी शरीर वाले होंगे तो अवश्य मरेंगे और यदि शरीर वाले न होंगे तो भोग विलास ही न कर सकेंगे ।
फिर उनको जन्नत में ले जाना बे फायदा है । यदि लूत को पैगम्बर मानते हो तो बाइबिल में लिखा है कि उससे उसकी लड़कियों ने संभोग करके दो लड़के पैदा किए । इस बात को भी मानते हो कि नहीं ? मगर मानते हो तो ऐसे पैगम्बरों का मानना बेकार है और यदि ऐसे और ऐसे के साथियों की खुदा नजात देता है तो वह खुदा भी ऐसा ही है क्योंकि बुढ़िया की कहानी कहने वाला और भेद भाव से दूसरों को विनष्ट करने वाला खुदा कभी नहीं हो सकता । ऐसा खुदा मुसलमानों ही के घर रह सकता है और किसी जगह नहीं ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी का फरमान कैसा सत्य है । ” हर कलाम के आगे पीछे उचित अवसर व स्थान देखकर मायना निकालना चाहिए । ” ( भूमिका पृ. 52 )
ऐसा यह भी सोने से लिखने के योग्य है- ” हठ धर्म धर्म के अंधेरों में फंस कर अक्ल को नष्ट कर लेते हैं और वाचक की मन्शा के विरुद्ध कलाम का मायना निकालते हैं । ” ( भूमिका सत्यार्थ पृ 07 )
तो यदि उपर्युक्त उल्लिखित उसूल सही हैं तो सुनिए इस आयत के साथ ही कुरआन शरीफ ने इस शराब के बारे में स्वयं ही बता दिया है । ” जन्नत की शराब में न तो मस्ती अर्थात नशा होगा न उसके पीने वाले बेहोश होंगे । ” ( सूरह साफ्फात -47 )
अरबी में हर पीने की चीज़ को शराब कहते हैं । शर्बत का शब्द इसी से निकला है । और समर अंगूर के निचोड़ को कहते हैं तो जब जन्नत की समर में न नशा हुआ और न मस्ती तो फिर होगा क्या ? जो इसी के साथ बताया –
सफेद मजा देने वाली पीने वालों के लिए ” ( सूरह साफफात -46 )
यह अनुवाद पंडित जी न नकल किए हैं तो जन्नत की शराब को दुनिया का मीठा और स्वादिष्ठ दूध समझना चाहिए । न 0 140 में स्वामी जी का अनुवाद भी देखा जा सकता है ।
समाजियो ! कहो क्या आपत्ति है । अफसोस है कि इस कुरआन को समझने के दावे पर और इससे बढ़कर दुख है पंडित जी के मूर्ख चेलों पर जो अपने स्वामी की बदनामी दूर करने की बजाए स्वयं उनके कलाम को नकल करके मक्खी पर मक्खी मार दिया करते हैं । जन्नत की बहस कई बार हो चुकी है । न 0 9 देखो । बाइबिल के बारे में न 0 5 देखो । हजरत लूत अलैहि निस्संदेह अल्लाह के नबी थे मगर बाइबिल में जो कुछ उनके बारे में लिखा है सही नहीं है । इसका जवाब ईसाइयों से पूछो हम से नहीं । जैसे पुरानों के जिम्मेदार आर्य नहीं वैसे ही बाइबिल के जिम्मेदार मुसलमान नहीं ।
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( 133 )
सूरह साद- ” जन्नतें हैं हमेशा रहने की । खोले होंगे वास्ते उनके दरवाजे उनके तकिए किए हुए होंगे बीच उनके मंगवा देंगे बीच उनके मेवे बहुत और पीने की चीजें और उनके निकट होंगी बन्द रखने वालियां नजर को और उनकी हम उम्र । तो सारे फरिश्तों में सज्दा किया मगर इब्लीस ने घमंड किया और वह काफिरों में से था । कहा- ऐ इब्लीस ! किस चीज़ ने तुझे इस सज्दे के करने से मना किया । मैंने इस चीज़ को बनाया दोनों हाथों से । तूने घमंड किया या तू था ऊंची शान वालों में से कहा कि मैं बेहतर हूं इससे । इसे पैदा किया तूने मिट्टी से और मुझको आग से पैदा किया । कहाः बस निकल इन आसमानों से । बेशक तू ठुकराया गया। है और बेशक तेरे ऊपर अन्तिम दिन तक मेरी फरकार है । कहा- ऐ मेरे पालनहार ! मुझे ढील दे उस दिन तक कि उठाए जाएंगे मुर्दे । कहा- तो बेशक तुझे दील दी गयी उस समय तक । कहा तो कसम है तेरी इज्जत की मैं गुमराह करूंगा इनको इकडे । ” ( आगत -49 से 51.7 78 )
आपत्ति
यदि वहां जैसा कि कुरआन से बाग बगीचे नहरे मकान आदि लिखे हैं वैसे ही हैं तो वे न हमेशा से थे और न हमेशा रह सकते हैं । क्योंकि जो चीजें मिलाप से पैदा होती हैं वे संग्रह बनने से पहले न थीं और नष्ट होने के बाद भी न रहेंगी । जब वे जन्नत में न रहेंगी तो उसमें रहने वाले सदैव किस प्रकार रह सकते हैं क्योंकि लिखा है कि गद्दे , तकिए मेवे और पीने की वस्तुएं वहां मिलेंगी । इससे यह साबित होता है कि जिस समय मुसलमानों का धर्म चला उस समय अरब का देश अधिक धनी न था इसी लिए मुहम्मद साहब ने तकिया आदि की कहानी सुनाकर गरीबों को अपने धर्म में फंसा लिया और जहां औरतें है वहां सदैव आराम कहां ?
वे औरतें वहां कहां से आयी है ? क्या जन्नत की रहने वाली हैं । यदि आयी हैं तो जाएंगी और यदि वहीं की हैं तो कयामत के पहले क्या करती होंगी ? क्या निकम्मी अपनी उम्र गुजार रही होगी ? अब देखिए खुदा का तेज कि जिसका हुक्म और सब फरिश्तों ने तो माना और आदम को सज्दा किया लेकिन शैतान ने न माना । इसका कारण पूछा और कहा मैंने इसको दोनों हाथों से बनाया है तू घमंड मत कर । इससे साबित होता है कि कुरआन का खुदा जो हाथ वाला आदमी था अतः वह सर्व व्यापी और सर्वशक्तिमान खुदा कदापि नहीं और शैतान ने सच कहा कि मैं आदम से श्रेष्ठ हूं । यह सुनकर खुदा ने गुस्सा क्यों किया ? क्या आसमान ही में खुदा का घर है ? जमीन पर नहीं । यदि नहीं , तो काबा को पहले खुदा का घर क्यों लिखा । भला खुदा अपने साम्राज्य से शैतान को कैसे निकाल सकता है ? क्या हर जगह खुदा की नहीं ?
इससे तो स्पष्ट होता है कि कुरआन का खुदा जन्नत का ही मालिक है । खुदा ने शैतान को लानत की और कैद कर लिया और शैतान ने कहा – ऐ मेरे पालनहार ! मुझे कयामत तक छोड़ दे । खुदा ने खुशामद से कयामत के दिन तक छोड़ दिया । जब शैतान छूटा तो खुदा से कहता है- कि मैं अब खूब बहकाऊगा और उत्यात मचाऊंगा । तब खुदा ने कहा कि जिन को तू बहकाएगा मैं उनको जहन्नम में डाल दूंगा और तुझे भी । सज्जन भाई लोग सोच विचार करें कि शैतान को बहकाने वाला खुदा है या वह आप से आप गुमराह हुआ । यदि खुदा ने बहकाया तो वह शैतान का भी शैतान ठहरा । यदि शैतान स्वयं गुमराह हुआ और मनुष्य भी स्वयं गुमराह हो सकते हैं शैतान की जरूरत नहीं और इस बागी शैतान को खुला छोड़ देने से भी अधर्म करने वाला और शैतान का साथी साबित होता है । यदि खुदा स्वयं चोरी करने की प्रेरणा दे और फिर स्वयं ही सज़ा दे तो ऐसी सूरत में उससे बढ़कर जालिम कौन हो सकता है ?
आपत्ति का जवाब
जन्नत की बहस न 0 9 में दी जा चुकी है । शैतानी बातों का जवाब न 0 111 व न 0 122 में देख लें ।
खुदा के हाथों के वही मायना हैं जो यजुरवेद की इबारत उल्लिखित जवाब न 0 129 में खुदा के मुख के मायना है ? अर्थात कुदरत कामिला- क्योंकि- ” जहां मायना में असंभावना हो वहां उपमा होती है । ” ( भूमिका पृ 0 10 )
बैतुल्लाह या खुदा के घर का जवाब पहले हो चुका है कि ” बैत ” और ” अल्लाह ” में संज्ञा सर्वनाम है अर्थात बैत इबादतुल्लाह । अर्थ हुआ अल्लाह की उपासना का घर । बाकी बातें व्यर्थ की हैं जिनका जवाब पहले देख लें ।
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( 134 )

सूरह जुमर- ” अल्लाह बख्शता है गुनाह बेशक वही है बख्शने वाला कृपालु और जमीन सारी मुट्ठी में है उसके । कयामत के दिन , और आसमान लिपटे हुए हैं बीच दाएं हाथ उसके और जमीन चमक जाएगी पालनहार के प्रकाश के साथ । और कर्म पत्र रखे जाएंगे और पैगम्बरों और गवाहों को लाया जाएगा और फैसला ( आयत -53,67.69 )
आपत्ति
यदि सब गुनाहों को बख्शता है तो समझो कि सारी दुनिया को गुनाह गार बनाता है और जालिम है क्योंकि एक बदमाश पर दया और माफी की बात की जाए तो वह अधिक उत्पात मचाएगा और बहुत शरीफों को कष्ट पहुंचाएगा । यदि थोड़ा भी गुनाह माफ किया जाए तो गुनाह ही गुनाह दुनिया में फैल जाएं । क्या खुदा आग की भान्ति प्रकाश वाला है ? कर्म पत्र कहां जमा रहते हैं ? और उनको कौन लिखता है ? यदि पैगम्बरों और फ़रिश्तों के भरोसे खुदा न्याय करता है तो वह न तो सर्व ज्ञाता और समर्थ रखने वाला है । यदि वह जुल्म नहीं करता न्याय ही करता है तो कर्मों के अनुसार करता होगा । वे कर्म अगले पिछले और मौजूदा जन्मों के ही हो सकते हैं तो फिर माफ किया । दिलों पर ठप्पा लगाना , पथ प्रदर्शन न दिखाना , शैतान द्वारा बहकाना आदि ये सारी बातें उसके न्याय से परे हैं ।
आपत्ति का जवाब
खुदा किनको क्षमा करता है न 0 22 व न 0 32 में देखो । कर्म पत्र वहां रहते हैं जहां आत्माओं को मुक्ति के बाद रहने की आप भी अनुमति देते हैं । फ़रिश्ते लिखते हैं और हिसाब के समय बन्दों को दिखाया जाता है और कयामत के दिन दिखाया जाएगा । न 0 102 देखो । सारी बातों के जवाब पहले आ चुके हैं । न 0 5.6 , 11 , 15 , 32 आदि में देखो ।
अल्लाह के नूर ( प्रकाश ) का जवाब न 0 114 में देखो । पंडित जी को तो पानी बिलोने की आदत है मगर हमें क्या ज़रूरत है कि समय नष्ट करें ।
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( 135 )
सूरह मोमिन- ” उतारना किताब अल्लाह का प्रभुत्व शाली और जानने वाले की ओर से । क्षमा करने वाला गुनाह और तौबा को स्वीकार करने वाला । ” ( आयत -2.2 )
आपत्ति
यह बात इसलिए है कि सादा स्वभाव वाले अल्लाह के नाम से इस किताब को स्वीकार कर लें कि जिसमें थोड़ी सच्चाई के अलावा शेष सब झूठ भरा है और वह सच्चाई भी झूठ मिलकर खराब हो जाती है । इसलिए कुरआन का खुदा और उसको मानने वाले गुनाह बढ़ाने वाले और गुनाह करने व कराने वाले हैं क्यों कि गुनाह को क्षमा कर देना भारी अधर्म है । इसी कारण मुसलमान लोग गुनाह और फसाद करने से कम डरते हैं । ( सत्य वचन महाराज )
आपत्ति का जवाब
कैसा पापी है वह मनुष्य जिसका अपना घर शीशों का हो और दूसरो पर पत्थर बरसाए । सुनो । ईश्वर आदेश देता है–
“मैं ब्रहम अर्थात वेद को प्रकट करने वाला हूं । ” ( मन्त्र वेद उल्लिखित सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 321 , रामलास 7 न 09 )
समाजियो , ठीक है ? कि ” ब्रहम ” का नाम इसलिए लिया कि सादा स्वभाव मनुष्य परमेश्वर के नाम से जल्द मान लेंगे । गुनाह माफ करने का समलास न 0 22 आदि में हो चुका है ।
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( 136 )
सूरह हामीम सजदा तो निर्धारित किया उनको सात आसमान दो दिन के अन्दर और डाल दिया हर आसमान के बीच उस का काम । यहां तक कि जब जाएंगे उसके पास गवाही देंगे उस पर उनके काम उनकी आखें , उनके चमडे , इस कारण कि वे सब कर्म करते थे और कहेंगे चमड़े से कि तुम ने क्यों गवाही दी हमारे विरुद्ध ? कहेंगे वे कि अल्लाह ने हम को बुलाया जिसने बुलाया हर चीज़ को , अलबत्ता जिन्दा करने वाला है मुर्दो को । ” ( आयत 11 , 19 , 20,38 )
आपत्ति
वाह जी वाह मुसलमानो ! तुम्हारा खुदा जिसे तुम सर्व शक्तिमान मानते हो वह सात आसमानों को दो दिन में बना सका और जो सर्वशक्तिमान है वह तो क्षण भर में सब को बना सकता है भला कान , आंख और चमड़े को खुदा ने बेजान बनाया है । वे गवाही किस तरह दे सकेंगे ? यदि गवाही दिलाएगा तो उसने पहले बेजान क्यों बनाए । यदि कोई कहे कि उस समय शक्ति प्रदान करेगा तो क्या खुदा अपना कानून तोड़ेगा ? एक इससे भी बढ़कर झूठ बात यह है कि जब आत्माओं पर गवाही दी तो वे आत्माएं अपने अपने चमड़े से पूछने लगी कि तूने हमारे ऊपर गवाही क्यों दी ? जैसे कोई कहे कि अकीमा के बेटे का मुंह मैंने देखा । यदि बेटा है तो अकीमा क्यों कर ।हुई यदि अकीमा है तो उसके यहा बेटा होना ही असंभव है । इस तरह की यह बात भी झूठ बात है । यदि वह मुर्दो को जिन्दा करता है तो पहले मारा ही क्यों । क्या आप भी मुर्दा हो सकता है या नहीं ? यदि नहीं हो सकता तो मरना बुरा क्यों समझता है ? और कयामत की रात तक मुर्दा आत्माएं किस मुसलमान के घर में रहेंगी और उनको खुदा ने निर्दोष क्यों टाल रखा है ? तुरन्त न्याय क्यों नहीं किया ? ऐसी ऐसी बातों से खुदा की खुदाई में बट्टा लगता है ।
आपत्ति का जवाब
वाह जी समाजियो ! तुम्हारा स्वामी महार्षि ईश्वरीय किताबों के मुहावरों से ऐसा अनजान है जैसा कोई दयानन्दी बड़े गोश्त के भाव से । आसमानों की पैदाइश का बयान न 0 88 में देखो अलबत्ता कानून के विरुद्ध बातों का जवाब न 0 129 आदि में है ।
हां यह भली कही कि मुर्दो को जिन्दा करता है तो मारता ही क्यों है ? यह ऐसा सवाल है कि जी में आता था कि अपने समाजी दोस्तों को खुश करने के लिए इसका जवाब न दें ताकि वे यह न समझें कि मानो हमारे गुरू के कुल सवाल यद्यपि विद्या से खाली हैं मगर यह सवाल तो अवश्य अच्छा है जो जवाब नहीं दिया । इस लिए संक्षिप्त सी निवेदन किए देते हैं कि मुर्दो को जिन्दा इसलिए करेगा कि उनको कर्मों का पूरा पूरा बदला दे ।
सुनो ! कुरआन बताता है- ” ताकि हर जीव को पूरा पूरा बदला मिले । ( सूरह ताहा -15 ) अलबत्ता यह बड़ा ही जटिल और कठिन सवाल है कि खुदा आप भी मुर्दा हो सकता है न 0 137 देखिए । शेष आपत्तियों के जवाब कई बार दिए जा चुके हैं ।
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( 137 )
सूरह शूरा – “ उसके वास्ते है कुन्जियां आसमानों की और जमीन की । जिसकी चाहता है उसकी आजीविका खोलता है और जिसकी चाहे तंग कर देता है और जो कुछ चाहे देता है जिसको चाहे बेटियां और जिसे चाहे बेटे देता है या मिला देता है उनको बेटे और बेटियां और कर देता है जिसे चाहे बांझ । और नहीं है ताकत किसी व्यक्ति को कि बात करे उससे अल्लाह मगर जी में डालने के तौर पर या पर्दे के पीछे से या फरिश्ता भेजे संदेश लाने वाला । ( आयत 11 , 47 , 48 , 49 )
आपत्ति
खुदा के पास कुन्जियों का खजाना भरा हुआ होगा ? क्योंकि सारी जगहों के ताले खोलने पड़ते होंगे । यह लड़कपन की बात है कि जिसे चाहता है उसकी बिना सद कर्म या दुष्कर्म के आजीविका खोल या तंग कर देता है । यदि ऐसा है तो वह अन्यायी है और देखिए कुरआन के लेखक की चालाकी कि जिससे औरतें भी मोहित होकर फंसें । यदि जो कुछ चाहता है पैदा करता है तो दूसरे खुदा को भी पैदा कर सकता है या नहीं ?
यदि नहीं कर सकता तो साम्थर्य शक्ति यहां क्या अटक गयी ? भला आदमियों को तो जिसे चाहे खुदा बेटे बेटियां देता है लेकिन मुर्ग मछली , सुअर आदि जिनके बहुत से बेटे बेटियां होते हैं उनको कौन देता है ? और मर्द औरत के संभोग किए बिना क्यों नहीं देता । किसी को अपनी इच्छा से बांझ रख कर दुख क्यों देता है ? वाह क्या खुदा जलाल वाला है कि उसके सामने कोई भी बात नहीं कर सकता । लेकिन उसने पहले कहा है कि पर्दा डाल कर बात कर सकता है और फरिश्ते खुदा से बात कर सकते हैं या पैगम्बर ? यदि ऐसी बात है तो फरिश्ते और पैगम्बर खूब अपना मतलब निकालते होंगे । यदि कोई कहे कि खुदा सर्वज्ञाता और सर्व व्यापी है तो पर्दा डालकर बात करना या डाक की भान्ति खबर मांगाकर जानना।बेकार ठहरता है और यदि ऐसा है तो वह खुदा ही नहीं बल्कि कोई चालाक आदमी होगा इसलिए यह कुरआन खुदा का बनाया हुआ कदापि नहीं हो सकता ।
आपत्ति का जवाब
समाजियो ! अभी तक स्वामी के नास्तिक ( अधर्मी ) होने में कुछ संदेह है ? फिर क्या कारण है कि अल्लाह की जात और विशेषता के बारे में उनको वही संदेह होते हैं जो उन बेइमानों ( नास्तिकों ) को हुआ करते हैं । इस न 0 का जवाब हम कभी भी न देते क्योंकि कोई एकेश्वर वादी ऐसे सवाल नहीं किया करता मगर यह सोचकर कि शायद हमारा ही विचार सही हो ( अल्लाह करे कि सही ही हो ) कि पंडित जी नास्तिक हैं ।
कुन्जियां खुदा के कब्जे में होने से वही तात्पर्य है जो बेग वेद में परमेश्वर का आदेश है- सुनो ।
” हम उस परमेश्वर को जो समस्त संसार का बनाने वाला इस कायनात का स्वामी बुद्धि को उज्जवल व रोशन करने वाला है अपनी रक्षा के लिए आमंत्रित करते हैं । ” ( ऋग वेद अपटक 1. अध्याय 6 , वरग 15 गन्त्र )
अतः इस आयत का मायना यह हैं कि वह अल्लाह सारी कायनात का मालिक है क्योंकि अरब का बल्कि सारे देशों का मुहावरा है कि फलां के हाथ में फलां की कुंजी है अर्थात वह इसपर ऐसा अधिकार रखता है जैसा मालिक को होता है ।
चूंकि आवागमन असत्य है ( देखो न 0 121 ) इस लिए जो कुछ खुदा देता है मात्र अपनी कृपा और दया से देता है और जो चीज जिसको नहीं देता उसकी हिक्मत का तकाजा है यही है कि वह सर्वबुद्धि है । हां यह भली कही कि ” जो कुछ चाहता है पैदा करता है तो दूसरे खुदा को भी पैदा कर सकता है । ठीक इसी तरह किसी बेसमझ मूर्ख ने पंडित जी पर सवाल किया था उसका क्रोध हम मुसलमानों पर निकालते हैं । हम स्वामी जी के इस सवाल के जवाब में उस सवाल व जवाब को नकल कर देना ही काफी समझते हैं । सुनो ।
सवाल
हम तो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जो चाहे वह करे क्योंकि उसके ऊपर कोई दूसरा नहीं है ।
जवाब
” वह क्या चाहता है यदि कहो कि वह सब कुछ चाहता है और सब कुछ कर सकता है तो हम तुम से पूछते हैं कि क्या परमेश्वर अपने आपको मार सकता है । बहुत से ऐसे ईश्वर बना सकता है स्वयं अज्ञानी हो सकता है चोरी व्यभिचार आदि पाप के काम कर सकता है और दुखी भी हो सकता है ? ये काम यदि ईश्वर के गुण और आदत के विरुद्ध हैं तो तुम्हारा यह कथन कि वह सब कुछ कर सकता है कभी सही नहीं हो सकता ।
इस स्थिति में शब्द ” सर्व शक्तिमान के मायना जो हमने बयान किए वही ठीक है ( वे यह है ) ईश्वर अपने काम में अर्थात जन्म , लालन पालन और अन्त आदि करने और सारे प्राणियों को पुन पाप के बारे में , विधान को सुचारू रूप से चलाने में किसी की कण भर भी मदद नहीं लेता अर्थात अपनी अपार कुदरत व शक्ति से अपनी इस कयानात की व्यवस्था को चला रहा है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 235 , समलास 7 , 10 12 )
पडित जी ने तो इस बयान को मात्र कहकर छोड़ दिया कि ये काम उसकी विशेषताओं के विरुद्ध है इसलिए नहीं कर सकता जिस पर किसी वेद मंत्र का हवाला भी नहीं दिया बल्कि मन गढ़त बात बनायी है मगर हम इसे स्पष्टीकरण से कुरआनी आयतों के हवालों से साबित करते हैं ।
असल बात यह है कि अल्लाह सारी वस्तुओं का कर्ता है सब में प्रभावी है । किसी चीज़ से वह प्रभावित नहीं होता अर्थात किसी वस्तु का प्रभाव कुबूल करना उसकी विशेषता में नहीं । यह उसूल हमें कुरआन की उस आयत से मिलता है जो हजरत इबराहीम अलै 0 की तहकीक व जांच के बारे में है कि उन्होंने सितारे , चांद , सूरज आदि को डूबते हुए देखकर यह कहा था । ”
मैं डूबने वालों से मुहब्बत नहीं करता ” ( सूरह अनआम -76 )
अर्थात उनको ईश्वर बनाने के लिए पसन्द नहीं करता । इस आयत में कुरआन शरीफ ने हमें इस उसूल तक पहुंचाया है कि जो चीज़ दूसरे से प्रभाव कुबूल कर लें या दूसरे से प्रभावित हो जाए वह ईश्वरत्व होने के योग्य नहीं । अतः जितनी इस मूर्ख प्रश्न कर्ता के जवाब में स्वामी जी ने खुदा की शान को खिलाफ बातें प्रस्तुत की हैं या कुरआनी आयतों पर सवाल किए हैं सबका जवाब यही है कि ये काम सब के सब ऐसे हैं कि इनसे अल्लाह का दूसरे से प्रभावित होना साबित नहीं होता ।
प्रिय पाठकों ! पंडित जी के इस लठमार सवाल से हमें एक हिकायत याद , आयी है जिससे आप लोगों की दिलचस्पी होगी । एक पंडित जी शायद हमारे स्वामी जी के चेले थे किसी राजा के पास लम्बे समय से नौकर थे । अपने घर जाने का बहुत दिनों तक अवसर न मिला । आखिर उनकी पत्नी ने एक प्रस्ताव उनको बुलाने का सोच कर पत्र में लिखा कि बड़े अफसोस की बात है महाराज की स्त्रिी रांड हो गयी । जिस तरह हो सके शीध्र घर का प्रबन्ध कीजिए । पंडित जी तो यह पढ़कर ऐसे हैरान हुए कि सर के बाल नोचते हुए डेरे पर आए । बड़े दुखी सर नीचे डाले हुए बैठे हैं सज्जन प्रार्थना कर रहे हैं महाराज ! सब ठीक तो है ? पंडित जी बड़े क्रोधित हो कर बोले… हां साहब जिस पर गुजरती है वही जानता है तुम्हें क्या ? आखिर महाराज कुछ कहिए तो सही बात क्या है ? पंडित जी ने कहा – बड़े दुख की बात है आज घर से आदमी समाचार लाया कि महारानी ( पंडित जी की पत्नी ) रांड हो गयी । दोस्तों ने बड़े जोर का ठहाका लगाया कि महाराज ! आपके जीते जी वह कैसे रांड हुई ? इतने पर पंडित जी को भी होश आया तो बोले…
तुम भी कहते हो सच ऐ भाई
यह घर से आया है मोतबर नाई
यही हाल हमारे स्वामी दयानन्द जी का है । फरमाते हैं- दूसरे खुदा को पैदा कर सकता है ? और यह नहीं जानते कि जिस खुदा को पैदा करेगा वह तो नवीन होगा और ईश्वरत्व के लिए तो प्राचीन होना जरूरी है । प्राणी कभी पैदा करने वाले के दर्जे पर पहुंच सकते हैं ? असल पूछो तो पंडित जी भी विवश हैं। कुरआन तो पढ़ा नहीं कि ऐसे बारीक मसलों की जानकारी होती ।
समाजियो ! सुनो ! कुरआन बहुदेव वादियों का तोड़ करते हुए कहता है- ” तुम्हारे बनावटी उपास्य कुछ भी नहीं बना सकते बल्कि वे स्वयं बने हुए हैं । ” ( सूरह नहल -20 )
जिससे इस नतीजे पर पहुंचाना मन्जूर है जिसका हमने जिक्र किया कि प्राणी कभी खुदा नहीं हो सकते क्योंकि हर जीव नवीन है और अल्लाह प्राचीन है । स्वामी की तरह लठमार सवाल करने की हमें भी गुंजाइश है । यदि यह काम जिनका उल्लेख स्वामी जी ने सवाल करने वाले के जवाब में किया है जिनको हमने नकल किया है परमेश्वर नहीं कर सकता तो सर्व शक्तिमान कुदरत क्या यहां पर अटक गयी ? किसी वेद मंत्र से जवाब दें ।
हां मुर्ग मछली का भला बयान किया । शायद खाने को मन करता होगा वर्ना अवसर तो कोई न था जिसका जवाब सार में यह है कि आयत में आदमियों का उल्लेख ही नहीं ।
समाजियो । न्याय से कहना कि हम यह कहने का हक रखते हैं या नहीं ?
हां इस बात जवाब आप ही दें कि मर्द व औरत के मिलाप के बिना क्यों नहीं देता ? समाजियो ! बुरा न मानना , बताओ यह किस आस्तिक का सवाल है ? ठीक यही सवाल आर्यन डिबेटिंग कल्ब अमृतसर में खुदा की हस्ती पर बहस करते हुए एक नास्तिक ने किया था कि यदि खुदा है तो क्या उसकी कृपा है कि औरत इस तकलीफ से बच्चा जनती है कि अल अमान । बिना ऐसे मिलाप के क्यों पैदा नहीं होता । जिसका जवाब मैंने दिया था कि पूरी वजह तो इसकी वही जानता है मगर हमें यूं समझ में आता है कि यदि बिना मिलाप के बच्चा पैदा होता तो उसके लालन पालन की ज़िम्मेदारी कौन लेता क्योंकि उससे किसी को खास मुहब्बत ही न होती । मेरे इस जवाब को प्रधान समाज ने बहुत पसन्द किया था मगर उस समय मुझे मालूम न था न प्रधान जी जानते होंगे कि सवाल असल में स्वामी जी ही का पैदा किया हुआ है वर्ना प्रधान भी शायद उस नास्तिक ही की पुष्टि करते । पंडित जी को इतनी भी खबर नहीं कि मैं उस समय इस्लाम पर आपत्ति करने बैठा हूं । ऐसा तो न करूं कि मुझ पर भी वही सवाल आ जाए अतः बेहतर है कि समाजी ही इसका जवाब दें । हम उस पर हस्ताक्षर कर देंगे ।
बांझ आदि के रखने के बारे में जवाब स्वयं इसी आयत में साथ साथ बता दिया है मगर पंडित जी को क्या मतलब था कि वे इसे नकल करते । तो सुनो । ” बेशक अल्लाह बड़ा ज्ञान वाला बड़ी कुदरत वाला है । ” ( सूरह नहल -70 )
आवागमन को झुठलाने के बाद उससे अच्छा जवाब हो तो हमारे भी उस पर हस्ताक्षर करा लो । बेशक पैगम्बर अपना मतलब निकालते हैं । क्या मायना ? अर्थात अल्लाह उनकी निष्ठा और दिल की सफाई की वजह से उनकी दुआओं को कुबूल करता है । यह कुछ इन्हीं की विशेषता नहीं जो कोई इसका हो रहे वह सबकी सुनता । और उचित सवाल भी पूरा करता है । सुनो अल्लाह फरमाता है–
” मैं दुआ मांगने वालों की दुआ कुबूल करता हूं जब वे मुझे पुकारें । ” ( सूरह बकरा- 186 )
खुदा का सर्व व्यापी होना आपके मायना में हमें तसलीम नहीं । देखो ( न 0 41 )
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( 138 )
सूरह जुखरुफ- ” और जब आया ईसा खुली दलीलों के साथ । ” ( आयत -59 )
आपत्ति
यदि ईसा भी खुदा का भेजा हुआ है तो उसकी शिक्षा के विपरीत खुदा ने कुरआन क्यों बनाया ? और कुरआन के विपरीत इंजील है इसलिए ये किताबें अल्लाह की बनाई हुई नहीं हैं ।
आपत्ति का जवाब
न 0 5 में जवाब देखो ।
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( 139 )
सूरह दुखान- ” पकड़ो उसको और घसीटो उसको बीचो बीच जहन्नम के । इसी तरह रहेंगे और ब्याह देंगे हम उनको साथ अच्छी आंखों वाली हूरों के । ( आयत – 43-50 )
आपत्ति
वाह क्या न्याय करने वाला खुदा होकर मनुष्यों को पकड़वाता और घिसटवाता है जब मुसलमानों का खुदा ही ऐसा है तो उसके उपासक मुसलमान यतीम , कमजोरों को पकड़ेंगे । घसीटेंगे तो इसमें क्या अचरज है ? और वह सांसारिक लोगों की तरह शादी भी कराता है अर्थात मुसलमान तो उनका प्रोहित अर्थात काजी निकाह कराने वाला है ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी ! बुरा न मानिए । आर्य समाज के सदस्य बुरे कर्म करें तो कुत्ते , सुअर , बन्दर की जून में उनको डलवाकर दर बदर कौन फिराता है और मुर्दार कुत्ते या गऊ माता भरी हुई को चोहड़ के हाथों कौन घिसटवाता है । वही जिसने यह सजा उन कमबख्तों , बदकारों , असमाजिक तत्वों के लिए निर्धारित की है अतः आगे अपनी तुक बन्दी मिला लें कि आर्यों का परमेश्वर ऐसा है ।
पंडित जी आपको मालूम नहीं कि दुनिया में भी ये नेमतें ( निकाह आदि ) अल्लाह ही की प्रदान की हुई हैं । सुनो ! परमेश्वर आदेश देता–
” मैं सब के सुख व आराम प्राणियों के लिए तरह तरह के आहारों को बांटता हूं सबका लालन पालन करता हूं । ” ( ऋग वेद मंडल , 10 सोकत 48 मन्त्र 1 )
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( 140 )
सूरह मुहम्मद- ” तो जब मुलाकात करो तुम उन लोगों से कि काफिर हुए अतः मारो गर्दनें उनकी यहां तक कि चूर कर दो उनको , पकड़ कर कैद करना । और बहुत बस्तियां थीं कि वे सख्त थी ताकत में बसती तेरी से , जिसने निकाल दिया तुझको विनष्ट किया हमने उनको । अतः न हुआ कोई मदद देने वाला वास्ते उन के विशेषता उस जन्नत की कि वायदे किए गए हैं । अल्लाह का डर रखने वाले नहरों के बीच हैं । पानी नहरें हैं दूध की , न बदला गया स्वाद उसका । और नहरें हैं शराब की मजा देने वाली , वास्ते पीने वालों के और नहरें हैं शहद की और वास्ते उनके है बीच उसके हर तरह के मेवे और उनके पालनहार की तरफ से उनके लिए माफी । ” ( आयत -4,14,16 )
आपत्ति
इसलिए यह कुरआन खुदा और मुसलमानों को शोर मचाने , सबको कष्ट देने और अपना मतलब निकालने वाले जालिम हैं जैसा यहां लिखा है वैसा ही यदि दूसरा कोई गैर धर्म वाला मुसलमानों पर करे तो मुसलमानों को वैसा ही दुख जैसा औरों को देते हैं होगा या नहीं ? और खुदा का भेद भाव देखिए कि जिन्होंने मुहम्मद साहब को निकाल दिया उनको खुदा ने हलाक कर डाला । भला जिस में पाक पानी , दूध , शराब और शहद की नहरें हैं वह दुनिया से ज्याद क्या हो सकता है ? और दूध की नहरें कभी हो सकती हैं ? क्योंकि वे थोड़े ही समय में बिगड़ जाता है इन बातों के कारण अक्ल मन्द लोग कुरआन के धर्म को नहीं मानते ।
आपत्ति का जवाब
कैसा मूर्ख है जो शीशों का घर बनाकर दूसरों पर पत्थर बरसाता है । सारे सवाल का जवाब न 0 2 आदि में देख लें । दूध के खराब होने के बारे में न 0 129 में देखो । हां इतना कह देना कोई बेजा नहीं जबकि यह शिकायत कोई नई नहीं है कि पंडित जी ने इस आयत का उर्दू अनुवाद भी नहीं समझा वर्ना पंडित जी यह सवाल न करते कि…
” खुदा की तरफदारी देखिए कि जिन्होंने मुहम्मद साहब को
निकाल दिया उनको खुदा ने हलाक कर डाला ।
इसलिए कि जिस वाक्य पर आपत्ति की है वह उस बसती के बारे में नहीं है जिसने पैगम्बरे इस्लाम को निकाला था बल्कि वह पहली बस्तियों के बारे में है – सुनो- वे शब्द ये हैं–
” यह बस्ती ( मक्का ) जिसने तुमको घर से निकाल कर छोड़ा कितनी बस्तियां इससे भी बल बूते में बढ़ी चढ़ी थीं कि हमने उनको विनष्ट कर डाला और कोई भी उनकी मदद को खड़ा न हुआ । ” ( सूरह मुहम्मद -13 )
अर्थात यह भी कोई बड़ी बात नहीं कि जो वस्ती खुदा के रसूल का अपमान करके उसे निकाल दे वह हलाक किए जाने योग्य ही है । मगर यहां तो यह मतलब नहीं है । क्या जिस पापी ने स्वामी जी को जहर देकर मारा वह सजा न पाएगा ।
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( 141 )
सूरह वाकिआ- ” जिस समय हिलायी जाएगी धरती हिलायी जाने को और उडाए जाएंगे पहाड़ उड़ाने जाने को , तो हो जाएंगे भुन्गों की तरह बिखरे हुए । तो साहब दायीं के । क्या है साहब दायीं ओर वाले क्या हैं दायीं ओर वाले और बायीं ओर वाले क्या हैं बायी ओर वाले के । ऊपर पलंग सोने के तारों से बुने हुए । तकिया किए हुए ऊपर उनके आमने सामने और फिरेंगे ऊपर उनके लड़के हमेशा रहने वाले आबखोरों के साथ और आफताबों के प्यालों के शराब साफ से । नहीं सर दिखाए जाएंगे और न बेजा बोलेंगे और मेवे इस प्रकार के कि पसन्द करे और मांस जानवरों और परिन्दों का इस तरह का कि चाहेंगे और वास्ते उनके औरतें हैं गोरी बड़ी आंखों वालियों मोतियों की तरह छुपाए हुए और ऊंचे बिछौने । बेशक पैदा किया हम ने औरतों उनकी को पैदा किया । तो क्या है हम ने उनको बाकरा पति वालियां । एक जैसी उम्र की वास्ते दायीं ओर वालों के अतः उसके पेटों को भरने वाले हों । तो कसम खाता हूं मैं साथ तारों के गिरने के । ” ( आयत 4,6,8,9,15 से 23,34.37.53,75 )
आपत्ति
अब देखिए कुरआन के लेखक की कारसाजी , भला जमीन तो हिलती रहती है । उस समय भी हिलती रहेगी । इससे यह साबित होता है कि कुरआन का लेखक जमीन को ठहरा हुआ जानता था । भला पहाड़ों को परिन्दों की तरह उड़ाने की क्या मिसाल । यदि भुन्गे हो जाएंगे तो फिर भी बारीक शरीर वाले रहेंगे । तो फिर उनका दूसरा जन्म क्यों नहीं ? वाह जी ! यदि खुदा ठोस शरीर वाला न होता तो उसके दाएं और बायी ओर क्यों कर खड़े हो सकते हैं ? जब वहां पलंग सोने की तारों से बुने हुए हैं तो बढई , सुनार भी वहां रहते होंगे और खटमल काटते होंगे और उनको रात को भी नहीं सोने देते होंगे । क्या वह ताकिया लगाकर जन्नत में बैठे रहते हैं या कुछ काम भी करते हैं ? यदि बैठे ही रहते होंगे तो उनका खाना हजम न होने की वजह से बीमार होकर जल्द ही मर भी जाते होंगे और यदि काम किया करते होंगे तो जैसी मेहनत मजदूरी यहां करते वैसे ही वहां मेहनत करके गुजर बसर करते होंगे ।
फिर यहां से वहां जन्नत में ज्यादा क्या है ? कुछ भी नहीं । यदि वहां लड़के हमेशा रहते हैं तो बड़ा भारी शहर आबाद होगा और पेशाब पाखाना की बदबू की वजह से बीमारियां भी बहुत सी होती होंगी , क्योंकि जब मेवे खाएंगे , गिलासों में पानी पिएंगे और प्यालों से शराब पिएंगे तो क्या उनका सर न दुखेगा और क्या कोई आलतू फालतू न बोलेगा ?
मेवे और जानवरों और परिंदों का गोश्त भी पेट भरकर खाएंगे ।तब तो नाना प्रकार की बीमारियां होंगी और जब वहां परिन्दे और जानवर होंगे तो बड़ा रक्त पात भी होता होगा और हडडियां इधर उधर बिखरी पड़ी होंगी और कसाबों की दुकानें भी होंगी । वाह क्या कहना । उनकी जन्नत की प्रशंसा कि वह अरब देश से बढ़ कर नज़र आती है और यदि शराब व कबाब पी खाकर मस्त होते तो हूर व गिलमान भी वहां अवश्य रहने चाहिए नहीं तो ऐसा नशा करने वालों में गर्मी चढ़ जाने से पागल हो जाने का खतरा हो जाएगा । बहुत से मर्द व औरतों के बैठने सोने के लिए जरूरी बिछौने बड़े बड़े चाहिए । जब खुदा कुंवारी औरतों को जन्नत में पैदा करता है तब तो कुंवारे लड़कों को भी पैदा करता है भला बाकरा औरतों का विवाह तो यहां से उम्मीदवार होकर गए हैं उनके साथ खुदा ने लिखा ।
लेकिन सदैव रहने वाले लड़कों का किसी भी बाकरा औरत के साथ विवाह होना न लिखा तो क्या वे भी उन्हीं उम्मीदवारों के साथ बाकरा औरतों की तरह दिए जाएंगे । इसका कायदा कुछ भी न लिखा । खुदा से यह इतनी बड़ी भूल क्यों हो गयी । यदि एक जैसी उम्र वाली सुहागन औरतें पतियों को पाकर जन्नत में रहती हैं तो ठीक नहीं है क्योंकि औरतों से मर्दो की उम्र दुगनी या ढाई गुना चाहिए । यह तो मुसलमानों की जन्नत की कहानी है और जहन्नम के पेड़ों को खाकर पेट भरेंगे तो कांटों वाले पेड़ भी जहन्नम में होंगे और कांटे भी लगे होंगे और गर्म पानी का पीना आदि जहन्नम में पाएंगे ।
कसम खाना प्रायः झूठ बोलने जैसा काम है । सच्चों का नहीं । यदि खुदा भी कसम खाता है तो वह भी झूठ से पीछा नहीं छुड़ा सकता । । वाले थूहर ।
आपत्ति का जवाब
भोले स्वामी जी जिस बात को आदमी न समझे उसका इलाज यह है कि किसी विद्वान से पूछ ले न कि मन गढ़त सवाल करके विद्वानों में अपमानित हो । धरती के हिलने का जवाब न 0 110 आदि में हो चुका है । पंडित जी ! दायां हाथ लोगों का तात्पर्य है न कि खुदा का । सुनो । कुरआन स्वयं बता रहा है
” जिसको अपने दाएं हाथ में पर्चा मिलेगा वह दोस्तो से कहेगा आओ मेरा पर्चा पढ़ो । ” ( सूरह हाक्का -19 )
हैरत है यही अनुवाद स्वामी जी स्वयं न 0 145 में नकल कर चुके हैं । पाठक इस न 0 में लिखी इबारत देख सकते हैं ।
कहिए आगे पीछे न देखने वाले कौन होते हैं ? हां भली कही कि सुनार और खटमल आदि भी होंगे । हां अवश्य होंगे लेकिन काफिरों ही से यदि यह काम खुदा ले ले तो कोई हरज की बात नहीं । उन्हीं को बेकार में फंसाए या खुदा मात्र अपनी कुदरत से सब सामान सुख सम्पदा का उपलब्ध कर दे – सुनो–
” परमेश्वर के हाथ नहीं लेकिन अपनी ताकत के हाथ से सबको बनाता और काबू में रखता है । ” ( सत्यार्थ पृ 0 244 अध्याय 7 )
जन्नत में जन्नती सुख वैभव और मनोरंज के अलावा अल्लाह की याद में भी समय बिताएंगे । हां मुझे याद आया कि जीव ( आत्मा ) मुक्ति पाकर परमेश्वर के अन्दर जो चला जाता है जैसा कि आप लिखते हैं । ”
ब्रहम ( खुदा ) हर जगह भरपूर है उसमें मुक्त जीव बे रोक टोक विज्ञान और आनन्द के साथ फिरता है । ” ( सत्यार्थ पृ 0 312 अध्याय 7 न 015 )
खुदा के अन्दर जाता है खुदा कोई कोठा है या तालाब है ?जाकर वहां बेकार बैठा होगा तो उसका भी जी उक्ता जाता होगा । क्या भला सवाल है कि पंडित जी जन्नत को बड़ा शहर समझते हैं । स्वामी जी ! सुनिए हम आपको उसकी लम्बाई चौड़ाई बताते हैं लेकिन दो मेंढकों की बात चीत से हमें खतरा है । एक कुंए में दरिया का मेंढक आ पड़ा तो कुंए के मेंढक ने उससे पूछा कि दरिया कितना बड़ा होता है । वह बोला बहुत बड़ा होता है । कुंए के मेंढक ने एक डुबकी लगाकर आधा कुंआ तैर का पूछा इतना ? वह बोला इससे भी ज्यादा आखिर कुंए के मेंढक ने सारा पाट पूरा कर दिया और पूछा कि इतना ? उसने कहा- तू मूर्ख है दरिया कहीं इतना सा होता है ? कुंए का मेंढक बोलाः तू झूठ बोलता है इससे बढ़कर पानी तो सारी दुनिया में न होगा । तो यदि स्वामी जी हम पर आपत्ति न करें तो हम उनको बताते हैं – सुनो –
” जन्नत की चौड़ाई तमाम आसमानों और मौजूदा जमीनों जितनी होगी । ” ( सूरह इनरान -133 )
खटमल और पेशाब पाखाना का भी जवाब यह है कि वे वहां होंगे ही नहीं क्योंकि वहां का कानून ही और है । न 0 129 देखो । नशा का जवाब न 0 132 में देखो मतलब यह है कि सब कुछ कुरआन ने बताया है । आपने किसी तर्क से इस पर आपत्ति नहीं की । पूर्व नम्बरों में विस्तृत जवाब देखा । बेकार की बकवास करने वाला जवाब का हकदार नहीं होता । ( सत्यार्थ पृ 0 350 )
जन्नत का विषय कई बार आ चुका है पिछले नम्बरों को देख । लिया जाए ।
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( 142 )
सूरह सफफ बेशक अल्लाह दोस्त रखता है उन लोगों को कि लड़ते हैं बीच राह उसके । ” ( आयत -4 )
आपत्ति
वाह ठीक है ऐसी ही निकम्मी बातों की हिदायत करके बेचारे अरब देश के लोगों को सब से लड़ाकर दुश्मन बनाया फिर आपस में कष्ट पहुंचाया और धर्म का झंडा ऊंचा करके लड़ाई फैलाई । ऐसे को कोई बुद्धिमान खुदा कभी नहीं मान सकता जो कौम में दंगा फसाद बढ़ा दे । वही सब के लिए कष्टदायक होता है ।
आपत्ति का जवाब
न 0 2 व न 0 31 देखो । सच पूछो तो आप से ज्यादा किसने दंगा फसाद मचाया । अकारण ना समझी में वेदों को नष्ट किया । भला वेदों पर तो कोई हक का सिफारिशी होगा । कुरआन और बाइबिल से यूं मुंह आने लगे ।
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( 143 )
सूरह तहरीम- ” ऐ नबी क्यों हराम करता है उस वस्तु को कि तेरे वास्ते जो खुदा ने हलाल की । तू अपनी पत्नियों की रजा मन्दी चाहता है और अल्लाह माफ करने वाला कृपालू है ।
संरक्षक है पालनहार उस का यदि तलाक दे तुम को तो बदल दे उन पत्नियों से जो तौबा करने वालियां , उपासना करने वालियां , रोजा रखने वालियां , पति को देखने वालियां और पति को न देखने वालियां । ” ( आयत 1-5 )
आपत्ति
ध्यान से सोच विचार करना चाहिए कि खुदा क्या हुआ । मुहम्मद साहब के घर का अन्दर व बाहर की व्यवस्था करने वाला नौकर ठहरा । पहली आयत पर दो कहानियां हैं एक तो यह कि मुहम्मद साहब को शहद का शर्बत पसन्द था और उनकी कई पन्तियां थीं उनमें से एक के घर पीने लगे तो यह बात दूसरी पत्नियां को अप्रिय लगी । उसके कहने सुनने के बाद मुहम्मद साहब कसम खाकर गए कि हम न पिएंगे । दूसरी यह कि उनकी कई पलियों में से एक का नम्बर था । उसके यहां रात को गए तो वह वहां न थी अपने बाप के यहां गयी थी । मुहम्मद साहब ने एक लौंडी अर्थात कनीज को बुलाकर पाक किया । जब पत्नी को इसकी खबर मिली तो नाराज़ हो गयी । तब मुहम्मद साहब ने कसम खायी कि मैं ऐसा न करूंगा और पत्नी से कह दिया कि तुम किसी से यह बात मत कहो । पत्नी ने मान लिया कि न कहूंगी ।
फिर उन्होंने दूसरी पत्नी से जाकर कहा । इस पर यह आयत अल्लाह ने उतारी कि जिस चीज़ को हमने तेरे ऊपर हलाल किया उसे तू हराम क्यों करता है । बुद्धिमान लोग सोचें कि भला कहीं खुदा भी किसी के घर का फैसला कराता फिरता है ? और मुहम्मद साहब का चरित्र इन बातों से स्पष्ट ही है क्योंकि जो कई औरतों को रखे वह खुदा का भक्त या सन्देष्टा कैसे हो सकता है और जो एक औरत की तरफदारी से डर कर दूसरी का सम्मान करे तो वह तरफदार होकर पापी क्यों न होगा और जो कई औरतों से भी सन्तुष्टि न पाकर कनीज़ों के साथ फंसे उसके निकट लज्जा व भय और धर्म कैसे फटक सकता है ।
किसी ने कहा है कि जो जानी ( व्यभिचारी ) हैं उनको पाप से डर या लज्जा नहीं आती । इनका खुदा भी मुहम्मद साहब की पत्नियों और पैगम्बर के झगड़े का फैसला करने में मानो सरपंच बना है । अब समझदार लोग सोच विचार करें कि यह कुरआन किसी विद्वान का बनाया हुआ है या खुदा का या किसी जाहिल का या किसी स्वार्थी का ? और दूसरी आयत से मालूम होता है कि मुहम्मद साहब से उसकी कोई पत्नी नाराज हो गयी होगी । उस पर अल्लाह ने यह आयत उतार कर उसे धमकाया होगा कि यदि तू गड़बड़ करेगी और मुहम्मद साहब तुझे तलाक दे देंगे तो उनको उनका खुदा तुझ से अच्छी पत्नियां देगा कि जो पति से न मिली हों । जिस आदमी को थोड़ी सी भी अक्ल है वह सोच विचार कर सकता है कि ये अल्लाह के काम हैं या अपना मतलब पूरा करने के वास्ते अल्लाह की ओर से मुहम्मद साहब कह देते थे । जो लोग अल्लाह की तरफ ध्यान लगाते हैं उनको हम तो क्या सारे बुद्धिमान लोग यही कहेंगे कि खुदा क्या ठहरा मानो मुहम्मद साहब के लिए पत्नियां लाने वाला कोई नाई ठहरा ।
आपत्ति का जवाब
घरेलू मामलों की बातें बताने से खुदा नौकर ठहरता है तो परमेश्वर का आदेश सुनो–
” ऐ विवाहित मर्द औरतों ! तो दोनों रात कहां ठहरे थे और दिन तुमने कहां बसर किया था तुमने खाना आदि कहां खाया था ? तुम्हारा वतन कहां है जिस प्रकार विधवा औरत अपने देवर ( दूसरे पति ) के साथ रात गुजारती है या जिस प्रकार विवाहित मर्द अपनी विवाहित औरत के साथ सन्तान के लिए रात में मिलाप करता है इसी तरह कहां रात गुजारे थे ? ” ( ऋगवेद अषटक 7 , अध्याय , वरग मन्त्र 2 )
और सुनो–
” ऐ विधवा औरत तू अपने असली पति के मरने पर किसी ऐसे मर्द नियोग के तौर पर हासिल करके सुख भोग जिसकी ब्याहता औरत मर गयी हो और इस प्रकार सन्तान प्राप्त कर । ” ( वृग वेद मंडल -10 सौकत , 18 , मन्त्र -8 )
और सुनिए–
” ऐ देवर ( दूसरे पति ) की सेवा करने वाली औरत और ब्याहे हुए पति की आज्ञापालक पत्नी तू नेक गुणों वाली हो . तू घर के कारोबार में अच्छे उसूल पर अमल कर और अपने पाले हुए जानवरों की रक्षा कर और अच्छे कार्य और गुण व ज्ञान एवं प्रशिक्षण हासिल करके शक्ति शाली सन्तान पैदा कर और सदैव सन्तान में सतर्क रह । ऐ नियोग द्वारा दूसरे की इच्छा करने वाली तू सदैव सुख देने वाली हो घर में हवन आदि की आग का इस्तेमाल और घर के काम काज व कारोबार को दिल लगा कर बड़ी सावधानी के साथ कर । ” ( अथर वेद कांड 14 , अनुवादक -2 मन्त्र 18 )
स्पेशल डयूटी के बारे में भी वेद की बात सुनो
” ऐ मनुष्यो ! जिस प्रकार जबान से स्वाद हासिल किया जाता है उसी तरह पढ़ी लिखी औरत को चाहिए कि वह अपने पति के अंगों के साथ अपने अंगों को मिलाए और एक सुखमय स्थिति में होकर सर के साथ सर और मुंह के साथ मुंह को पाक करे । इसी तरह दोनों पति पत्नी मिलाप किया करें । जिस मर्द का लिंग सही और पूर्ण होता है जो बड़े वेग से यह क्रिया ( संभोग ) करने वाला हो उसे चाहिए कि वह यह सब कुछ ऐसे तरीके से करे जिस से न केवल राहत व आराम हासिल हो बल्कि सन्तान पैदा करने का भी कारण हो । ” ( यजुरवेद अध्याय 19 , मंत्र 88 )
समाजी मित्रों ! यह वेद है या कोक शास्त्र ? तो क्या इसी तरह , नहीं नहीं… तौबा तौबा ऐसे असभ्य नहीं- बल्कि अत्यन्त निर्लज्जता और सभ्यता से गिरे हुए अन्दाज से इस आयत में खुदा ने पैगम्बर साहब की पत्नियों को निर्देश दिए हैं ।
असल बात यह है कि पैगम्बर साहब को किसी बीवी ने शहद पीने पर कहा कि आपके मुंह मुबारक से गंध आती है । अतएव पंडित जी ने इसे नकल किया है और यही रिवायत बहुत सही है इस पर आपने शहद का पीना छोड़ दिया और कसम खा ली कि आगे कभी न पियूंगा । मगर चूंकि नबी का काम अपने अनुयायियों और लोगों के लिए दलील और तरीका होता है इसलिए खतरा था कि आपके बाद के तमाम लोग इसी प्रकार हलाल चीजों को हराम कर लेंगे तो मानो यह एक धार्मिक समस्या बन जाती । इस लिए खुदा ने यह आदेश उतारा जिसका मतलब यह है कि पत्नियो की खुशी यहां तक न चाहो कि हलाल चीज़ को हराम समझने लगो । हरेक चीज़ की एक हद है ऐसा न करो बल्कि अपनी कसम का परायचित देकर पहले की तरह हलाल चीज को खाओ ।
हां ! यदि आप को यह आपत्ति सूझे कि पत्नियों की खुशी पैगम्बर साहब को ऐसी क्यों जरूरी हुई कि यहां तक नौबत पहुची तो सुनो–
” जिस परिवार में औरत से पति और पति से औरत अच्छी तरह खुश रहते हैं उसी परिवार में पूरी तरह खुश नसीबी शालीनता के साथ ठहरा करती है । जहां लड़ाई झगड़ा होता है वहां बदबख्ती और गरीबी डेरा जमाती है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 123 , अध्याय4 न०46)
शेष पाक पत्नियों के बारे में सवाल का जवाब न 0 127 में देखो ।
अफसोस कि पंडित जी को काफी तलाश के बाद भी पैगम्बर साहब की पवित्र जीवनी में एक भी घटना ऐसी न मिली जिसे बुद्धिमानों के सामने प्रस्तुत कर सकते । हमें भी स्वामी जी की इस विफलता पर दुख है अतः हम उनके और उनको समाज के दुख दर्द में बराबर के साथी हैं और उनसे हमदर्दी रखते हैं । ” केवल यही एक घटना मिलती है कि आप अधिक पत्नियां रखते थे ? तो इसका संक्षिप्त जवाब यह है कि आप भी मनुष्य थे और नेचरल नियम के पावन्द थे । कुदरत के कानून ने मर्द औरत की इच्छा दी है । पंडित जी की तरह सदैव ब्रहम्चारी रह कर कुदरत के कानून के खिलाफ नहीं करते थे । इसके बारे में विस्तृत बहस रिसाला ” मुकद्दस रसूल ” में देखिए ।
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( 144 )
” ऐ नबी झगड़ा कर काफिरों और कपटियों से और सख्ती कर ऊपर उनके । ” ( आयत -8 )
आपत्ति
देखिए मुसलमानों के खुदा की कारसाजी । दूसरे धर्म वालों से लड़ने के लिए पैगम्बर और मुसलमानों को भड़काता है । इसी वजह से मुसलमान लोग दंगा करने में तैयार रहते हैं । परमात्मा मुसलमानों पर दया दृष्टि रखे जिससे ये लोग दंगा फसाद छोड़ कर सबके साथ मिल जुल कर रहें ।
आपत्ति का जवाब
न 02 , न 0 31 आदि देखो । हमारी भी दुआ है कि अल्लाह समाजियों को हिदायत करे कि वे अपने गुरू की तरह दूसरे धर्म वालों को सामान्यता और हिन्दुओं को विशेष रूप से बुरा भला कहकर देश में उत्पात न मचाए ।
नोट
पहले तो जवानी फसादात करते थे 1923-24 ई 0 में तो आर्यों ने हाथों से भी दंगा फसाद किए । देश में हर तरफ उनके दंगा फसाद की आग भड़क रही है जिसके लिए सबसे बड़ी गवाही हिन्दुस्तान के प्रसिद्ध सदाचारी नेता महात्मा गांधी की है जो इस पुस्तक के अन्त में मौजूद है ।
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( 145 )
सूरह हाक्का- “ फट जाएगा आसमान तो वह उस दिन सुस्त होगा और आठ फरिश्ते होंगे तेरे रब का अर्श उठाए ऊपर किनारों से । उस दिन सामने लाए जाओगे तुम न छुपी रहेगी तुम में से कोई बात छुपी हुई । अतः जो कोई दिया गया कर्म पत्र दाहिने हाथ उसके तो कहेगा पढ़ो अपना कर्मपत्र अपना और जिसे दिया गया कर्म पत्र उसका बीच बाएं हाथ में उसके तो कहेगा काश न दिया गया होता कर्म पत्र मेरा । ” ( आयत – 14-17-23 )
आपत्ति
वाह क्या फलासफी है क्या न्याय की बात है । भला आकाश भी कभी फट सकता है ? क्या वह कपड़े की तरह है जो फट जाएगा ? यदि आकाशीय मंडल तारों आदि को आसमान कहते हैं तो यह बात ज्ञान के विपरीत है । अब कुरआन के खुदा के ठोस होने में कोई संदेह नहीं रहा क्योंकि अर्श पर बैठना आठ कहारों से उठवाना बिना किसी ठोस वस्तु के कभी हो नहीं सकता और सामने या पीछे भी आना जाना ठोस वस्तु के होते ही संभव हो सकता है । जब वह ठोस आकार है तो सीमित स्थान वाला होने से सर्वज्ञान और सर्व शक्तिमान नहीं हो सकता और सब आत्माओं से कर्मों की बात कभी नहीं जान सकता । हैरत की बात है कि शरीफ लोगों के दाएं हाथ कर्म पत्र देना पढ़वाना , जन्नत में भेजना और बुरे लोगों के बाएं हाथ में कर्म पत्र का देना , जहन्नम में भेजना और कर्म पत्र पढ़कर न्याय करना भला यह काम होश मन्दी का हो सकता है ? कदापि नहीं ? यह सब कार्रवाई लड़कपन की है ।
आपत्ति का जवाब
आसमान का जवाब न 07 व न 0 88 व न 0 129 में आ चुका है । अर्श उठाना एक सांकेतिक उपमा है ईश्वर की महानता एवं प्रताप को व्यक्त करना है न यह कि वह अर्श पर यूं बैठा होगा जैसे कोई राजा पालकी में बैठा होता है और पालकी कहारों ने उठायी होती है बल्कि आयत का मतलब केवल इतना है कि शासन और ईश्वर के तेज का वह हाल होगा कि किसी से बोल न सकेगा नही मदद ले सकेगा । अतएव उससे आगे शब्दों में बताया है जिनको आप ने भी नकल किया है उस दिन सब अल्लाह के दरबार में उपस्थित होंगे । कोई उनकी करतूत अच्छी व बुरी छुपी न रहेगी और मारे भय के सब चकित होंगे । सुनो कुरआन शरीफ बताता है ” सारी आवाजें नीची हो जाएगी । ( सूरह ताहा -108 )
मगर अफसोस कि इन उसूलों से आप सदैव अपना ही फायदा लिया करते हैं दूसरों का नहीं कि जहां वेद अल्लाह के अंगों को बता दे कहां तो आप उसी उसूल से उसे सही ठहरा जाएं और जहां कुरआन या कोई और किताब इस प्रकार की सांकेतिक उपमा द्वारा बोले चाहे वहां तथ्य भी कई प्रकार के हों वहां पर सारा साधुपना गंगा में डुबो कर नंगे हो बैठे और आएं बाएं शाएं बगलें झांकना शुरू कर दें । समाजियों ! सुनो –
दाएं बाएं हाथ में कर्म पत्र मिलने पर आपत्ति नहीं की गयी केवल मामूली से उपहास से काम लिया गया इसलिए सत्यार्थ अध्याय 10 न 0 3 पृ 0 350 भी देख डालो ।
हमारी ओर से जवाब खामोशी है हां इतना अवश्य बताते हैं कि कर्म पत्र लोगों की तसल्ली के लिए होंगे । अल्लाह को उनकी जरूरत नहीं । सुनो ! कुरआन स्वयं बताता है ” लोगो ! अपना कर्म पत्र पढ़ लो । तुम स्वयं ही हिसाब करने को काफी हो । ” ( सूरह इसरा -14 )

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( 146 ) सूरह मआरिज- ” चढ़ते हैं फरिश्ते और आत्मा उसकी तरफ । उस दिन के बीच वह यातना होगी कि उसकी मात्रा पचास हजार साल की है जिस दिन निकलेंगे कब्रों में से दौड़ते मानो कि वे बुतों के मकानों की ओर दौड़ते हैं । ” ( आयत 40-42 )
आपत्ति
यदि पचास हजार साल के दिन का अन्दाजा है तो पचास हजार- बरस की रात क्यों नहीं । यदि इतनी बड़ी रात नहीं है तो इतना बड़ा दिन कभी नहीं हो सकता । क्या पचास हजार बरस तक अल्लाह फरिशते और कर्म पत्र वाले खड़े या बैठे या जागते ही होंगे । यदि ऐसा है तो बीमार होकर मर भी जाएंगे । क्या कब्रों से निकल कर अल्लाह की कचहरी की ओर दौड़ेंगे । उनके पास समन कब्रों में क्योंकर पहुंचेंगे ? और उन बेचारों को जो अच्छे या बुरे आचरण वाले हैं उतनी अवधि तक कब्रों में क्यों रखा ? और आजकल अल्लाह की कचहरी बन्द होगी और अल्लाह और फरिशते निकम्मे बैठे होंगे ? या कुछ काम करते होंगे । अपने अपने मकानों में बैठे होंगे इधर उधर घूमते सोते नाच तमाशा देखते और सुख वैभव करते होंगे । ऐसा अंधेर किसी राज्य में न होगा । ऐसी ऐसी बातों को सिवाए बर्बर लोगों के दूसरा कौन मानेगा ?
आपत्ति का जवाब
जी तो चाहता था कि पंडित जी की आज्ञा उल्लिखित सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 350 , अध्याय 10 पर अमल करें मगर अपने पाठकों के लिए न 0 125 का हवाला देते हैं ।
हां यह बात प्रकट करने योग्य है कि स्वामी जी का नकल किया गया अनुवाद यद्यपि अनुवादित कुरआन में है मगर थोड़े से सुधार व स्पष्टीकरण की जरूरत है और शब्द ” थी ” ठीक नहीं है ” सही है । अनुवादक साहब ने भी गलती नहीं की क्योंकि ” थी ” जिस शब्द का अनुवाद है वह ” कान ” है कान का मायना कभी तो मुरादिफ ( अर्थात विकल्प ) ” बुवद ( होना ) ” के होते हैं । इस समय इसका मायना ” है ” का होता है जैसे कानल्लाहु अलैहिमा ( अल्लाह ज्ञान वाला है ) इसी तरह न 0 125 में भी ” थी ” सही नहीं ” है ” सही है ।
अतएव शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने फारसी अनुवाद में” दस्त ” और शाह अब्दुल कादिर साहब ने उर्दू अनुवाद में ” है ” लिखा है । स्वामी जी को और हमें तो ज़रूरी है कि उचित स्थान व अवसर और आगे पीछे को देखकर मायना किया करें । वर्ना भूमिका पृ 0 52 वाला फतवा जड़ा जाएगा अतः आयत का अनुवाद यह है
” फरिशते और आत्मा अर्थात जिबरील अल्लाह की तरफ चढ़ते हैं एक दिन में जिसका अन्दाजा पचास हजार साल का है । ” व्याख्या न 0 125 में देखो
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( 147 )
सूरह नूह- ” और बेशक पैदा किया तुम को तरह तरह से क्या नहीं देखा तुमने क्यों कर पैदा किया अल्लाह ने सात आसमानों को ऊपर तले और क्या चांद को बीच उसके रोशन किया और सूरज को चराग । ” ( आयत 4 , 15 , 16)
आपत्ति
यदि आत्माओं को अल्लाह ने पैदा किया तो वे सर्व कालिक अन्तहीन नहीं हो सकती ? फिर जन्नत में सदैव कैसे रह सकेंगी ? जो चीज पैदा होती है वह अवश्य समाप्त हो जाने वाली है । आसमान को ऊपर नीचे क्योंकर बना सकता है ? क्योंकि वह बे शक्ल और हर जगह मौजूद है । यदि दूसरी चीज़ का नाम आसमान रखते हो तो भी उसका नाम आसमान रखना बेकार है यदि ऊपर तले आसमान को बनाया है तो इस सब के बीच में चांद सूरज कभी नहीं रह सकते । यदि बीच में रखा जाए तो एक ऊपर और एक नीचे की चीज ही रोशन रहे । दूसरे से लेकर बाकी सब में अंधेरा रहना चाहिए । ऐसा नहीं मालूम होता इस लिए यह बात बिल्कुल झूठी है ।
आपत्ति का जवाब
निस्सन्देह आसमान एक ठोस चीज है । शरीर होने का बयान न 07 व न 0 88 व न 0 129 आदि में देखो । नीचे ऊपर इस तरह हैं जिस तरह बिल्लौर ( शीशे ) पर बिल्लौर ( शीशा ) रखा जाए । हां यह भला कहा कि यदि चांद सूरज बीच में रखे जाएं तो ऊपर अंधेरा होगा । क्या ही भली लाजिक है । भला पंडित जी ! यदि हम आसमानों को बिल्लौर के तख्तों की तरह स्वच्छ चमकीले शरीर माने और उन सब से ऊपर चांद सूरज को गड़ा हुआ समझें तो क्या खराबी ? बताइए चौथे उसूल को याद रखकर बताइए । लीजिए हम यह भी नहीं कहते बल्कि हम यूनान के हुकमा ( बुद्धिजीवियों ) का धर्म लेते हैं जिसके लिए लेने की हमें कोई विशेष जरूरत नहीं कि चांद पहले आसमान पर है और सूरज चौथे आसमान पर है मगर चूंकि दोनों गोले या गेंद की तरह हैं जिसका रुख किसी विशेष ओर नहीं होता । अतएव पंडित जी न 0 152 में मानते हैं कि सूरज गोल ग्रह है । इसलिए ऊपर भी रोशनी है और नीचे भी ।
समाजियो ! यदि आज़माना चाहो तो कपड़े का एक गोला बनाओ और लोहे के हुक में बांधकर छत से लटकाओ और उस पर तेल डालकर आग लगा दो और सत्यार्थ प्रकाश को हाथ में लिए रहो । जब उसके जलने से चारों ओर ऊपर नीचे तमाम रोशनी हो तो जो कुछ उस समय हाथ में लिए हो । इसमें झोंक दो और हमें इस माजरा का एक सूचना या कार्ड लिखो ।
बेशक आत्माएं खुदा की पैमाइश हैं यदि वह चाहे तो फना कर सकता है लेकिन खुदा यदि किसी प्राणी को सदैव के लिए रखना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता । स्रष्टि का आरंभ हुआ तो अवश्य है क्योंकि इसका गुण पैदा करना ही उसके लिए जाना पहचाना है मगर फना जरूरी नहीं । हां समाप्त होने योग्य बेशक है । यदि कर्ता चाहे तो फना कर दे । शायद आपको यह मालूम नहीं कि मुसलमान अल्लाह को स्रष्टि के लिए केवल अल्लाह ही सब कुछ है या जैसे चराग रोशनी के लिए । सुनो कुरआन इस बारीक मसले की ओर इशारा करता है तनिक ध्यान से सुनो ! ईट की नहीं बल्कि पत्थर की ऐनक लगाकर पढ़ो ।
“बेशक खुदा आसमानों और जमीनों को विनष्ट होने से थामे हुए है यदि समाप्त होने लगें तो उसके ( अल्लाह के ) सिवा इन्हें कोई बचा नहीं सकता । ” ( सूरह फातिर -41 )
इसे इस तरह समझए कि जैसे कपड़े को तैयार होने के बाद दर्जी की ज़रूरत नहीं होती या बन्दूक की गोली को चला देने के बाद बन्दूकची की जरूरत नहीं होती यहां तक कि यदि गोली चलाने के तुरन्त बाद बन्दूकची मर जाएं तो भी गोली की हरकत में कोई खराबी नहीं आती । इसी तरह रूहों को या जिन चीजों को खुदा समाप्त नहीं करना चाहेगा उनका समाप्त होना जरूरी नहीं बल्कि मौजूद रहना ज़रूरी है ।
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( 148 )
सूरह जिन्न- ” और मस्जिदें अल्लाह के वास्ते हैं तो मत पुकारो अल्लाह के साथ किसी को । ” (आयत -18 )
आपत्ति
यदि यह बात सच है तो मुसलमान लोग- ” ला इला ह इल्लल्लाह मुहम्मदर्रसूलुल्लाह ” इस कलिमा में खुदा के साथ मुहम्मद साहब को क्यों पुकारते हैं ? यह बात तो कुरआन के खिलाफ है और जो खिलाफ नहीं करते तो इस बात को झूठ ठहराते हैं । जब मस्जिदें खुदा का घर हैं तो मुसलमान बड़े मूर्ति पूजक हुए क्योंकि जैसे पुराने जैनी छोटे सी मूर्ति को खुदा का घर मानते हैं मूर्ति पूजक ठहरते हैं तो ये लोग क्यों नहीं ?
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी को शिर्क से नफरत है हिन्दू का बेटा होकर ऐसी नफरत थोड़ा गनीमत है । पंडित जी को इतनी भी खबर नहीं कि पुकारने और पुष्टि करने में अन्तर होता है । स्वामी जी पुकारना ऐसा होता है जैसे आप के भाई हिन्दू कहा करते हैं । ऐ डंडोत देवता । ऐ राम चन्द्र जी महाराज ! समाजी पापियों को नष्ट करो जो हमारे अवतारों को पानी पी पी कर कोसते हैं । और पुष्टि इसे कहते हैं जैसे आर्य समाजी आपके बारे में कहते हैं कि स्वामी जी महाराज बड़े विद्वान हैं ऐसे हैं वैसे हैं । समाजियो ! इन दोनों में अन्तर है या नहीं ? अपने चौथे उसूल को याद करो और बताओ कि ला इलाह के साथ मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह का मिलाप दूसरी तरह से है जिसे आपके गुरुजी महार्षि पहली तरह का समझते हैं अतः तुम उनकी प्रशसा करो । शेष जवाब न ० 21 , व न 053 4 55 में देखें ।
हां यह बात भी समाजियों से मालूम करनी है कि मस्जिदों को खुदा का घर कहना किस आयत का अनुवाद है । पंडित जी के उल्लिखित अनुवाद पर सोच विचार करो कहीं मस्जिदों को बैतुल्लाह लिखा हो तो हमें दिखा दो । हम मुसलमान मस्जिदों को बैतुल्लाह कहते हैं मगर आप तो कुरआन पर आपत्ति कर रहे हैं हम पर नहीं जैसा कि भूमिका में अध्याय 14 में लिख आए हैं । लीजिए हम आपको बताते हैं कि बैत और अल्लाह के बीच क्या फर्क है देखो न. 61
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( 149 )
सूरह कयामतः ” इकट्ठा किया जाएगा सूरज और चांद । ” ( आयत -8 )
आपत्ति
भला सूरज और चांद कभी इकट्टा हो सकते हैं ? देखो यह कितनी भारी वे अक्ली की बात है और सूरज चांद को इकट्ठा करने में क्या तर्क है ? ऐसी ऐसी असंभव बातें खुदा की बनायी हुई कभी नहीं हो सकती है सिवाए जाहिलों के और किसी विद्वान की भी नहीं हो सकती ।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी वे दलील बात कहने के तो इतने शौकीन हैं कि मा शा अल्लाह हम पहले भी लिख चुके हैं कि पंडित जी यह मुनाजरा का मैदान है आपका समाज मन्दिर नहीं कि जो मन में आया कह दिया ।
संभल कर पांव रखना मयकदा में सरस्वती साहब
यहां पगड़ी उछलती है इसे मयखाना कहते हैं
समाजियो ! पंडित जी से दलील रह गयी तो तुम ही बता दो कि चांद सूरज के जमा न होने की क्या दलील है ? चांद और सूरज के जमा करने से तात्पर्य यह है कि उनको बे नूर करके हरकत से रोक दिया जाएगा क्योंकि जन्नत में सूरज चांद की जरूरत न होगी । सुनो कुरआन बताता है ।
” जन्नत में न तो सूरज देखेंगे और न उसके न होने से सर्दी पाएंगे । ” ( सूरह दहर 13 )
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( 150 )
सूरह दहर- ” और फिरेंगे ऊपर उनके लड़के सदैव रहने वाले जिस समय देखेगा तू उनको सोचेगा तू उनको मोती बिखरे हुए । और पहनाए जाएंगे कंगन चांदी के और पिलाएगा उनको पालनहार उनका पवित्र शराब । ” ( आयत – 19-21 )
आपत्ति
क्यों जी मोती के रंग वाले लड़के किस लिए वहां रखे जाएंगे । जवान लोग उनकी सेवा या औरतें उनकी सन्तुष्टि नहीं कर सकती ? क्या हैरत की बात है कि जो यह सब से घृणित कार्य लड़कों के साथ बदमाशी का करना है उसका आधार यही कुरआन की आयत हो और जन्नत में आका और गुलाम होने से आका को आराम और नौकर को मेहनत होने से दुख । यह तरफदारी क्यों पायी जाती है ? और जब खुदा ही शराब पिलाएगा तो वह भी सेवक के जैसा ठहरेगा फिर खुदा की महानता कैसे रह सकेगी ? और वहां जन्नत में मर्द व औरत के संभोग करने से गर्भ होने से लड़के और बाले भी होते हैं तो वे आत्माएं कहां से आयीं ? और बिना खुदा की उपासना के जन्नत में कैसे पैदा हुई ? यदि पैदा हुई तो उनको बिना ईमान लाने और खुदा की उपासना करने से क्यों कर मुफ्त मिलेगा ? कुछ बेचारों को ईमान लाने से और कुछ को बिना धर्म किए सुख मिल जाए इससे बढ़कर अन्याय क्या होगा ?
आपत्ति का जवाब
सच है- बर्तन में जो होता है वही टपकता है । यह अरबी कहावत है । आज मालूम हुआ कि स्वामी जी ब्रहमचर्य में कैसे गुज़ारा करते थे । समाजियो ! कहो जी यह कौन धर्म है ? पंडित जी ! ये बच्चे स्वयं उन्हीं जन्नतियों की नाबालिग सन्तानें होंगी । अतएव दूसरी आयत में गिलमान का शब्द है अर्थात उन्हीं के बच्चे उनके पास फिरेंगे । इस पर आप कहेंगे कि जन्नत में बे अमल क्यों जाएंगे तो सुनिए ! जन्नत उन लोगों के लिए है जो कुफ्र व शिर्क की हालत में न मरें । सुनो –
बेचारे ना बालिग बच्चों को तो इसका पता भी नहीं कि कुफ्र व शिर्क क्या होता है इसलिए वे जन्नत में जाने से रोके नहीं जाएंगे यदि किसी काफिर बल्कि किसी समाजी की सन्तान ना बालिग भी क्यों न हो , यह वेदिक मत नहीं है कि चार साल के मुसलमान बच्चे के हाथ से भी न खाया जाए ।
खुदा के शराब पिलाने के यह मायना है कि अल्लाह के से पिएंगे , दुख की बात है कि आप इस बात से परिचित नहीं कि वाक्य में कब कौन सी बात किस प्रकार कही जाती है । बेशक मर्द व औरत यदि चाहेंगे तो उनके दिल बहलाने को खुदा सन्तान भी प्रदान करेगा । हदीस शरीफ में यह बात पायी जाती है और कुरआन में यूं है- सुनो–
” उन जन्नतियों को जो चाहेंगे मिलेगा । ” ( सूरा –जुमर -34 )
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( 151 )
सूरह नबा- ” अच्छे कर्म का बदला दिया जाए और प्याले भरे हुए हैं । उस दिन खड़ी होंगी आत्माएं और फरिशते पांक्ति बद्ध होकर । ” ( आयत -25,32 , 36 )
आपत्ति
यदि कर्मों के अनुसार फल दिया जाता तो सदैव जन्नत में रहने वाली हूरों , फरिश्तों और मोती की तरह लड़कों को किस कर्म के बदले सदैव के लिए जन्नत मिली ? जब प्याले भर भर कर शराब पियोगे तो मस्त होकर क्यों न लड़ेंगे । यहां आत्मा एक फरिश्ते का नाम है जो सारे फ़रिश्तों से बड़ा है क्या अल्लाह आत्मा या फरिशतों को पंक्ति बद्ध खड़ा करके पलटन बांधेगा ? क्या पलटन से सारी आत्माओं को सजा दिलाएगा ? और खुदा उस समय खड़ा होगा या बैठा होगा ? यदि कयामत तक खुदा अपनी पलटनें जमा करके शैतान को पकड़ ले तो उसकी हुकूमत को कोई भय व डर न रहे क्या इसका नाम खुदाई है ?
आपत्ति का जवाब
न 0 150 में हम बता आए हैं कि जन्नत उन लोगों के लिए है जो शिर्क और कुफ्र से बचे होंगे तो फरिश्तों और आत्माओं को उसी के बदले में कि उन्होंने शिर्क कुफ्र नहीं किया था जन्नत मिलेगी ।
सफ्फ बांधकर इसलिए होंगे कि जिस काफिर को जहन्नम में डालने के बारे में हुक्म हो तुरन्त माना जाए । शैतान को तो पकड़ लेता मगर धार्मिक मामलों में अल्लाह किसी पर जबर दस्ती नहीं किया करता इसके अलावा चूंकि सत्यार्थ प्रकाश के बनने से शैतान बेकार है इसलिए उसका पकड़ना कुछ फायदे वाली बात न रही । शेष जवाब न 0 32 में देखो ।
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( 152 )
सूरह तकवीर- ” जिस समय कि सूरज लपेटा जाए और जिस समय की तारे गदले हो जाएं और जिस समय कि पहाड़ चलाए जाएं और जिस समय कि आसमान की खाल उतारी जाए । ” ( आयत 2.3.11 )
आपत्ति
यह बड़ी नादानी की बात है कि गोल सूरज का ग्रह लपेटा जाएगा और तारे गदले किस तरह हो सकेंगे और पहाड़ ये जान होने से कैसे चलेंगे और आसमान को क्या जानवर समझा कि उसकी खाल निकाली जाएगी । यह बड़ी नादानी और जंगली पन की बात है ।
आपत्ति का जवाब
सूरज के लपेटे जाने का यह मतलब है कि उसको प्रकाश हीन कर दिया जाएगा और जब वह प्रकाश हीन हो गया तो सितारे जो उसी से लाभान्वित हैं आप से आप गदले हो जाएंगे । आसमान की खाल उतारने का यह मतलब है कि फटकर सुर्ख हो जाएगा । सुनो कुरआन बताता है ।
” आसमान फट कर सुर्ख रंग गुलाब की तरह हो जाएगा । ” ( सूरह रहमान -37 )
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( 153 )
सूरह इन्फितार- ” जिस समय कि आसमान फट जाए और जिस समय कि तारे झड़ जाएं और जिस समय कि दरिया चीरे जाएं और जिस समय कि कत्र जिन्दा करके उठायी जाएं । ” ( आयत 1-4 )
आपत्ति
वाह जी कुरआन के लेखक फलासफर ! आकाश को क्यों कर कोई फाड़ सकेगा और तारों को क्यों कर झाड़ सकेगा और दरिया क्या लकड़ी है जो चीर डालेगा और कत्रे क्या मुर्दे हैं जो जिन्दा कर सकेगा ? ये सारी बातें लड़कों की तरह हैं ।
आपत्ति का जवाब
आसमान चूंकि ठोस है ( देखो न 0 7. न 0 88 , न 0 129 ) इसलिए उसका फटना संभव है । तारों के झड़ने से वही मुराद है कि सारी जमीन पर पानी हो जाएगा अतएव आजकल के फलासफर भी इस बात के कायल है कि ज़मीन सुकड़ती जाती है और समन्द्र किनारों से बढ़ता चला आता है । ये तीनों घटनाएं तो उस समय की हैं जो कयामत का पहला दौर है जिसको ” फना ‘ या प्रलय कहते हैं चौथी घटना अर्थात कब्रों वालों का उठना उस समय की घटना है जिसको महशर अर्थात असल कयामत कहते हैं ।
पंडित जी ! कब्रों के उठने से तात्पर्य है कब्र वालों का उठना । क्योंकि ” यदि कोई कहे कि मचान बोलते हैं तो यहां पर यह तात्पर्य समझा जाएगा कि मचान पर बैठे हुए मनुष्य बोलते हैं । ” ( भूमिका पृ 0 10 )
समाजियो ! यही स्वामी जी की समझ और ईमानदारी है ? कि व्याकरण संबंधी बातें भी नहीं समझते बल्कि अपनी पुस्तक की भूमिका भी भूल जाते हैं ।
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( 154 )
सूरह बुरुज “ कसम है आसमान बुरुजों वाले की , बल्कि वह कुरआन है बुजुर्ग बीच लोहे महफूज के । ” ( आयत –21 )
आपत्ति
कुरआन के लेखक ने भूगोल शास्त्र और खगोल विज्ञान कुछ भी नहीं पढ़ा था नहीं तो आसमान को किले की तरह बुर्जी वाला क्यों कहता ? यदि हमल आदि बुों को बुर्ज कहता है तो और बुर्ज क्यों नहीं है ? इसलिए ये बुर्ज नहीं है बल्कि सब गृह लोक के तारे हैं । क्या कुरआन खुदा के पास है ? यदि यह कुरआन उसका लिखा हुआ है तब तो खुदा भी ज्ञान एवं तर्क से अनभिज्ञ होगा ।
आपत्ति का जवाब
कुरबान जाइए ऐसी समझ पर स्वामी जी ! बुरुज से सितारों की मन्ज़िलें हैं सुनिए कुरआन स्वयं बताता है ।
” चांद के लिए हम ( खुदा ) ने मन्ज़िलें बनायी हैं उन्हीं में फिरता फिरता पतली शाख की तरह हो जाता है । ” ( सूरह यासीन -34 )
क्या चांद और अन्य सितारों की मन्ज़िलें यही हैं ? हां हम यह नहीं समझे कि पंडित जी क्या कहते हैं कि ” यदि हमल आदि बुरुजों को बुर्ज कहता है तो और बुर्ज क्यों नहीं । ” कोई समाजी दोस्त इसका मतलब हमें समझा दे तो हम आभारी होंगे और एक प्रति इसी किताब की उनको भेंट करेंगे । हमें तो ( अनादर के लिए क्षमा करें ) दीवाने की बड़ मालूम होती है ।
हां स्वामी जी कुरआन अल्लाह के पास से है और उसके पास है सुनो ! परमेश्वर का आदेश है
” जिस उच्च व महान और निराकार कभी न समाप्त होने वाले और आकाश की भान्ति सर्वव्यापी परमेश्वर में वृग आदि चारों वेद स्थापित हैं उसे ब्रहम जानना चाहिए । ” ( ऋग वेद मंडल । सोकत 164 मंत्र 39 )
इसी तरह कुरआन को हम मानते हैं ज्ञानात्मक तरीके से समझना चाहो तो सुनो ! कुरआन मजीद अल्लाह का कलाम जो सदैव से है अल्लाह का है जैसे आपकी निसबत कहते हैं ।
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( 155 )
सूरह तारिक ” बेशक वे मकर करते हैं एक मकर , और मैं भी मकर करता हूं एक मकर । ( आयत 15-16 )
आपत्ति
मकर कहते हैं ठगपने को । क्या खुदा भी ठग है ? और क्या चोरी का जवाब चोरी और झूठ का जवाब झूठ है ? क्यों कोई चोर किसी आदमी के घर में चोरी करे तो भले आदमी को भी चाहिए कि उसके घर में जाकर चोरी करे ? वाह ! वाह । कुरआन के लेखक ।
आपत्ति का जवाब
ब्रहमन होकर गाय के मांस का भाव पूछे । यही उदाहरण पंडित जी का हिन्दू जादे पढे न लिखे नाम मुहम्मद फाज़िल ( अरबी ) से परिचित नहीं और ( कुरआन ) के तोड़ का ठेका । ( तकजीव भाग । पृ 0 86 )
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( 156 )
सूरह फज्र- ” और आएगा पालनहार तेरा , और फरिश्ते पंक्ति बांध कर और लाए जाएंगे उस दिन जहन्नम । ( आयत 21-22 )
आपत्ति
कहो जी जैसे कोतवाल व सेनापति अपनी सेना को लेकर पंक्ति बनाकर फिरा करते हैं वैसा ही उनका खुदा करता है ? क्या जहन्नम को घर की तरह समझा है कि जिसको उठाकर जहां चाहे वहां ले जाएं यदि जहन्नम इतना छोटा है तो असंख्य कैदी इसमें कैसे समा सकेंगे ?
आपत्ति का जवाब
भले आदमी का काम है कि जिस कलाम को न समझे वह पूछ ले क्योंकि बहुत से कलाम ऐसे भी होते हैं कि उनका जाहिरी अनुवाद सुनकर मायना समझ लेने काफी नहीं होते । ( भूमिका पृ 0 52 )
तो आयत के मायना है कि खुदा के हुक्म पहुंचते ही तमाम फरिश्ते पवित बांधे हुए खड़े हो जाएंगे कि जो हुक्म हो उसका पालन किया जाए और जहन्नम को भी अच्छी तरह तपाया जाएगा । अर्थात इसका मतलब साफ है मगर
” नापाक बातिन वाले जाहिलों को ज्ञान कहां ” ( भूमिका पृ 0 52 )
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( 157 )
सूरह शम्सः “ अतः कहा था वास्ते उनके पैगम्बर खुदा रक्षा करो ऊंटनी खुदा की और पानी पिलाना उसको । अतः उनके पालनहार ने उनपर विनाशकारी मार उन पर डाली । ” ( आयत – 13-14 )
आपत्ति
क्या खुदा भी ऊंटनी पर चढ़कर सैर करता है ? नहीं तो किस लिए रखी है ? और बिना कयामत के अपना वचन तोड़ा । उनपर आफत क्यों डाली ? यदि डाली तो उनको सजा दी फिर कयामत की रात में न्याय का करना और उस रात का होना झूठ समझा जाएगा । इस ऊंटनी की बात से यह अनुमान होता है कि अरब देश में ऊंट ऊंटनी के सिवाए दूसरी सवारी कम होती है । इससे साबित होता है अरब देश के रहने वाले ने यह कुरआन बनाया है । ( सत्य वचन महाराज )
आपत्ति का जवाब
ऊंटनी का जवाब न 0 91 में हो चुका है । अल्लाह का यह भी कायदा है कि कभी कभी बदकारों को दुनिया में भी सज़ा दिया करता है और आखिरत में भी देता है और देगा । जैसा कि आर्य वरत के हिन्दुओं को गाजी महमूद गजनवी के हाथ से दुनिया में पराजय दिलायी और परलोक में भी कुछ बनाएगा । अतएव आपने भी इस विषय को सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 298 अध्याय 8 में अदा किया है ।
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( 158 )
सूरह अलक ” यूं यदि न बाज़ रहेगा अलबत्ता घसीटेंगे हम उसको पेशानी के साथ कि वह पेशानी झूठी और दोषी है । हम बुलाएंगे फरिश्तों को जहन्नम के । ( आयत 13,14,16 )
आपत्ति
इस अपमानित चपरासियों के घसीटने के काम से भी खुदा न बचा । भला पेशानी भी कभी झूठी और दोषी हो सकती है ? आत्मा के सिवाय यह कभी खुदा हो सकता है कि जो जेल खाना के दारोगा को बुलाए ?
आपत्ति का जवाब
हाय कैसा पापी है वह मनुष्य जो वाचक की मन्शा के खिलाफ कलाम में मायना करता है और धर्म के अंधेरों में फंस कर बुद्धि भ्रष्ट कर लेता है । ( भूमिका सत्यार्थ पृ 07 )
पंडित जी को खुदाई कामों में सदैव संदेह रहता है यही समझते हैं कि खुदा स्वयं ही आकर अपने हाथ से करता है अतएव पूर्व नम्बरों में पाठक यही सुनते आए हैं । यदि और प्रमाण इस बात का लेना हो तो न 0 53 में मुख्य रूप से समलास न 0 13 की जो इबारत हम ने नकल की है उसे देखें । अफसोस स्वामी जी को खबर नहीं ।
” परमेश्वर के हाथ नहीं लेकिन अपनी शक्ति के हाथ से सबको बनाता और काबू में रखता है पांव नहीं । बल्कि सर्व व्यापक होने के कारण सब से अधिक तीव्र गति वाला है । ” ( सत्यार्थ प्रकाश पृ 0 144 , समलास 7 न 0 36 )
अतः स्वामी जी और उनके चेले चांटे स्वयं ही बताएंगे कि यदि किसी कार्य को अपनी ओर निसबत करे तो उसके मायना यह होते हैं कि वह अपने हाथ से करता है ।
सुनो वेद बताता है ।
” इस जगत के बनने से पहले परमेशवर इस पैदा हुए जगत का एक न्याय करने वाला स्वामी या रक्षक था । उसने धरती से लेकर आकाश तक सारी कायनात को बनाया और वही इसे स्थापित रखता है । ( ऋगवेद अपटक 8 , अध्याय 7 वरग ३ , मंत्र -1 )
कौन ऐसा पाजी नास्तिक है जो इस पवित्र कलाम उल्लिखित वेद पर आपत्ति करे कि परमेश्वर इस अपमानित रचना के काम और बोझ बरदारी से भी न बचा ।
स्वामी जी महाराज ! पेशानी से तात्पर्य साहिबे पेशानी है क्योंकि ” यदि सच्चा कहे कि मचान बोलते हैं तो यहां तात्पर्य समझा जाए गए कि मचान में बैठे हुए आदमी बोलते हैं । ” ( भूमिका पृ 0 10 )
जहन्नम का दारोगा इन्हीं 33 देवताओं में से एक होगा जिनका उल्लेख न 0 21 आदि में हो चुका है । यदि किसी फरिशते से खुदा का काम लेना ईश्वरत्व की शान के विरुद्ध है तो 33 देवताओं से कर्तव्यों का पालन कराना जायज है । ( देखो आगे का न 0 159 )
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( 159 )
सूरह कद्र- ” बेशक उत्तारा हमने कुरआन बीच रात कद्र के और क्या जाने तू क्या है रात कद्र की । उतरते हैं फरिशते और पाक आत्माएं पाक बीच उस पालनहार के आदेश के साथ हर काम ( आयत -1,24 ) के लिए ।
आपत्ति
” यदि एक ही रात में कुरआन उतारा तो यह बात कि फलां समय में उतरा कैसे ठीक हो सकती है ? और रात अंधेरी होती है उसके बारे में क्या पूछना है । हम लिख आए हैं कि ऊपर नीचे कुछ भी नहीं हो सकता और यहां लिखते हैं कि फरिश्ते और आत्माएं खुदा के आदेश से दुनिया का प्रबन्ध चलाने के लिए आते हैं । इससे साफ हो गया कि खुदा भी मनुष्य की तरह सीमित स्थान वाला है । अब तक मालूम होता था कि खुदा फरिशते और पैगम्बर तीन की कहानी है अब एक राहुल कुदुस चौथी निकल पड़ी ।
अब न जाने यह चौथी रूहुल कुदूस क्या है ? यह तो ईसाइयों के धर्म अर्थात बाप बेटा और रूहुल कुदस तीन के मानने के अलावा चौथी वस्तु निकल आयी । यदि कहो कि हम तीनों को खुदा नहीं मानते । ऐसा ही सही । लेकिन जब रूहुल कुदुस पृथक है तो खुदा के फरिशते और पैगम्बर को रूहुल कुदुस कहना सही है या नहीं।यदि यह भी पाक रूह हैं तो फिर किसी विशेष वजूद को पवित्र आत्मा क्यों कहते हो ? और खुदा घोड़े आदि जानवरों और रात दिन और कुरआन आदि की कसमें खाता है । कसमें खाना शरीफ लोगों का काम नहीं ।

आपत्ति का जवाब
पंडित जी फरिशतों से बड़े घबराते हैं क्यों न घबराएं –
” काफिर जिस दिन फरिशतों को देखेंगे उनकी खैर न होगी । ” ( सूरह फुरकान -22 )
समाजियो ! वेद फरमाता है–
” तैंतीस देवता उस परमात्मा के विभाजित किए हुए कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं या उसकी कुदरत के आंशिक द्योतक हैं । ” ( अथर वेद कांड 10 , पाठक 23 , अनुवादक 4 मंत्र 47 )
क्या कोई है ? जो इस पवित्र कलाम पर आपत्ति करे कि ईसाइयों के तो तीन थे वेद ने ये तैंतीस और परमेश्वर को मिला कर चौंतीस कहां से बना दिए हैं ?
समाजियो ! जो काम इन देवताओं से परमेश्वर लेता है वही फरिश्तों से खुदा लेता है । कुरआन का शब्द समान है उसके दो मायना हैं जैसे आपने भी भूमिका पृ 0 129 पर एक शब्द की दो परिभाषाएं लिखी हैं । इस तरह कुरआन किताबों के संग्रह को भी कहते हैं जो एक खास किताब है और इसके हर अंश को भी कहते हैं । अफसोस आपसे तो प्रोफैसर सेल अनुवादक कुरआन ने ही अच्छा समझा । क्या आपने किसी मुसलमान से भी नहीं सुना था कि आज मैंने कुरआन पढ़ा । आज तूने कुरआन नहीं पढ़ा । अर्थात जितना मैं रोज़ पढ़ा करता हूं उतना आज पढ़ा है यह नहीं कि सारा कुरआन खत्म किया ।
यदि सोच विचार करें तो यह परिभाषा कोई खास कुरआन ही से नहीं । क्या हवन में वेद नहीं पढ़ा जाता ? क्या हवन से आते आपने नहीं सुना कि आज पंडित जी ने हवन में वेद पढ़ा और क्या सारा पढ़ा ? नहीं बल्कि एक भाग पढ़ा । तो सारा कुरआन तो धीरे धीरे उतरता रहा है । कद्र की रात में भी थोड़ा उतारा है अर्थात उसकी प्रशंसा अल्लाह ने कुरआन में बयान की कि वह रात बड़ी महानता व श्रेष्ठता वाली है । उस एक रात की उपासना हजार रात की उपासना से श्रेष्ठ है ।
मेरे निकट यह मायना सही हैं क्योंकि हदीसों में सैंकड़ों जगह यह बात मिलती है । हदीस के रावी कहा करते है । हाजिाहिल आयत हुए कभी नज्जलत फी अबी बकर , नज्जलत फी उमर अर्थात , यह आयत अबु बकर पर उतरी यह उमर पर उतरी है इसका मतलब यह है कि उनकी शान में उतरी है अतः अब किसी प्रकार का विवाद न रहा चाहे कुरआन किसी समय उतरा हो जब इसमें किसी खास समय की श्रेष्ठता या प्रशंसा हो तो कह सकते हैं । यह सब न समझना केवल स्वामी जी की समझ का नतीजा है ।
कसम का जवाब न. 100 में देखो–
अल्लाह का शुक्र है कि स्वामी जी की आपत्त्यिों के जवाबों से तो हम निबटे । एक आपत्ति वायदा के अनुसार हम अपनी ओर से करके पंडित जी के न. 159 को पूरे न. 160 कर देते हैं ताकि हमारे समाजी दोस्त हम से खिंचे खिंचे न हों तो इस उपकार को याद करके नाराजगी को दूर कर लें तो सुनो
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( 160 )

” कह दो अल्लाह एक है और बे नियाज है नहीं जना उसने और न जना गया और नहीं उसकी कोई बराबरी करने वाला । ” ( सूरह इखलास )
आपत्ति
देखो जी देखो , कुरआन कहता है कि अल्लाह ने न जना और न जना गया यद्यपि करोड़ों ईसाई कहते हैं कि ईसा मसीह खुदा का बेटा है । मरयम ने उसको जना है भला जो धर्म दूसरे धर्मों को कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्वालू हों झूठा बताए और अपने को सच्चा बताए उससे बढ़कर झूठा और धर्म कौन सा हो सकता है ? ( देखो आपत्ति का जवाब
न. 73 )
आपत्ति का जवाब
समाजियो ! हमारी उदारता देखो कि हमने तुम्हारे स्वामी जी की कमी को पूरा कर दिया और फिर दूसरा उपकार यह मानो कि ऐसे कठिन सवाल का जवाब भी नहीं दिया ताकि तुमको हमारे उपकार भानने में कोई संकोच न हो । तो उपकार के बदले हमारी एक बात मानो तो तुम्हारा शुक्रिया इसी में अदा हो जाएगा ।
वह यह है कि तुम अपने चौथे उसूल पर अमल करो यदि भूल गए तो लो हम ही तुम्हें बताए देते हैं
” सच के स्वीकार करने और झूठ के छोड़ने में सदैव तैयार रहना चाहिए । ”
अन्त में स्वामी जी ने कुरआन शरीफ के बारे में अपनी राय व्यक्त की है अच्छा है कि इसको नकल करके पाठकों से वाह वाह चाहें और आपत्ति का जवाब देने वाला भी आपत्ति करने वाले के बारे में अपना बगान प्रस्तुत करे ।
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कुरआन के बारे में स्वामी जी की राय
अब इस कुरआन के बारे में लेख लिख कर बुद्धिमानों के सामने प्रस्तुत करता हूं कि यह किताब कैसी है ? मुझ से पूछो तो यह किताब न तो उस ईश्वर की बनायी हुई है और ज्ञान विज्ञान की हो सकती है । यह तो बहुत थोड़ी सी कमियां प्रस्तुत की हैं इसलिए कि लोग धोखे में पड़ कर अपनी उम्र बेकार में बर्बाद करें ।
जो कुछ हमें थोड़ी सी सच्चाई नजर आयी वह वेद आदि ज्ञानात्मक किताबों के अनुसार होने से मुझको स्वीकार है वैसे और भी धर्म के जिद और पक्षपात से मुक्त विद्वानों और बुद्धिमानों को स्वीकार है इसके सिवा जो कुछ इसमें है वह सब अज्ञान की बातें हैं अंधविश्वास है और मनुष्य की आत्मा को जानवरों की तरह मानने ,शान्ति भंग करके दंगा फसाद कराने मनुष्यों के बीच असहमति फैलाने , आपसी कष्ट एवं तकलीफ को बढ़ाने वाले विषयों पर आधारित है और पुनर्व्यक्त दोष[1] का तो मानो यह खजाना है । परमेश्वर सारे मनुष्यों पर दया करे कि सब के सब आपसी प्रेम सहमति और एक दूसरे के सुख की प्रगति करने के इच्छुक हों , जैसे मैं अपना या दूसरे धर्मो की खराबी , तरफदारी छोड़कर कह देता हूं इसी तरह यदि सारे बुद्धिमान लोग करें तो क्या मुश्किल है कि आपस की असहमति छोड़ कर सहमत होकर खुशी से लोग लेखक की मन्शा के अनुसार सोच समझ कर लाभ उठाएं यदि कहीं गलती भूल चूक से हो गयी हो तो उसको सही कर लें । ( सत्यार्थ अध्याय 14 पृ 0 738 )
[1- अर्थात एक बात को कई कई बार दोहराना । मगर पंडित जी ऐसे नहीं कि एक सवाल को दोबारा पेश करें पाठक ध्यान से देखें ।]
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आपत्ति कर्ता के बारे में जवाब देने वाले की राय

यह आपत्ति कर्ता हुक्का पीने वाला , शोध के अयोग्य , बड़ा पक्षपाती ज्ञान विज्ञान एवं विद्या से कोरा , अन्दर से नास्तिक दिखावे को आर्य दूसरे धर्मों पर बेजा हमले करने वाला , जबान का तेज , देखने में साधू खुफ़िया कुछ और , इधर उधर की मिलाकर मूर्यो और बेवकूफों को फांसने वाला । सब से बढ़कर यह कि वेदों को बदनाम और उनमें हेरफेर करने वाला ।
कुरआन , इंजील , तौरात और अन्य ईश्वरीय किताबों की परिभाषाओं और अर्थों से अनभिज्ञ । इस दावा पर एक तो यही किताब गवाह है इसके अलावा इसके हामियों और विरोधियों की गवाही । इसके हामियों बल्कि अनुयायियों की गवाही बड़ी ही विचारणीय है यद्यपि इसमें इनका नाम नहीं मगर चूंकि उसूली तौर पर वह सब लोगों में शामिल है इसलिए गवाही कामिल का हुक्म रखती है ।
पंडित लेख राम लेखक ” तकजीब ” जिसकी निष्ठा एवं ईमानदारी स्वामी जी के पक्ष में किसी से छुपी नहीं लिखता है
पढ़े[1] न लिखे नाम मुहम्मद फाजिल अरबी क ख से भी परिचित नहीं कोरा जाहिल और कुरआन के अध्ययन का ठेका , आंखे चमगादड़ की और सूरज से लड़ाई झगड़ा । ( तकजीब भाग 1, प्रष्ट 86 )
[1- इस वाक्य में हमने केवल दो शब्दों में हेर फेर किया है संस्क्रत की बजाए अरबी और वेद की बजाए कुरआन लिखा है । लेखक तकजीब ने बुरहान के सम्पादक के बारे में लिखा है कि संस्क्रत से तो परिचित नहीं और वेदों पर आलोचना करते है । आगे बराबर हमने हेर फेर किया है उसूली तौर पर चूंकि सही है इसलिए यह बयान आपत्ति कर्ता के बारे में शहादत ठहराया जा सकता है पाठक न्याय के साथ हमारी सराहना करें ।]
पंडित जी के विरोधियों का बयान है पहले तो हम अतिश्योक्त्ति समझा करते थे मगर अफसोस तजुरबे ने इसकी पुष्टि करा दी ।
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पहला गवाह [रिसाला सनातन धर्म गजट लाहौर] 
आचरण में दयानन्द के बराबर शायद ही कोई हुआ हो । एक सिरे से आपने सब पर गालियों की वर्षा की है चेले चांटे भी इसी रास्ते पर लग गए हैं । कोई कैसा ही पाजी बदमाश आवारा क्यों न हो आर्य में दाखिल हुआ और फरिश्ता बना । बूढ़े से बुढ़े से वृषि की तरह हिन्दू पंडित को गाली देने में भी इन लोगों को शर्म नहीं आती । ( रिसाला सनातन धर्म गजट लाहौर अगस्त 1897 )
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दूसरा गवाह ( अखबार आम लाहौर प्रकाशन 4 मार्च 1897 ई)
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मुसलमानों में खुदा न करे यदि ऐसा सम्प्रदाय हो जो कुरआन को सर पर लिए फिरे और कहे कि नमाज , रोजा , हज , जकात सब के सब बेकार हैं बल्कि इनके करने कराने वाले सब के सब जाहिल हैं और स्वार्थी हैं और इस दावे पर कुरआनी आयतों को अपने कर्मों की तरह सियाह करे तो उस समय हमारे मुसलमान भाई और अन्य धर्मों वाले ( आर्यों के कारण ) हिन्दुओं की बेबस हालत महसूस करेंगे । ( अखबार आम लाहौर प्रकाशन 4 मार्च 1897 ई)
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तीसरा गवाह [महात्मा गांधी अपने अखबार ” यंग इन्डिया में लिखते हैं–]

हिन्दुस्तान के राजनीतिक एक मात्र नेता सूफीवाद के मानने वाले दुबले पतले सादगी के नमूने महात्मा गांधी अपने अखबार ” यंग इन्डिया में लिखते हैं–
” मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है में सोचा करता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की भारी सेवा की है । उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है जब मैं बर्दवा जेल में आराम कर रहा था । मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं । मैंने इतने बड़े रिफार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी । स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म , इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को गलत रूप से प्रस्तुत किया है । जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन गलतियों को मालूम कर सकता है जिनमें इस उच्च रिफार्मर को डाला गया है । उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है यद्यपि मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोल बाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है । मेरी राय में आर्य समाज सत्यार्थ।प्रकाश की शिक्षाओं की विशेषता के कारण प्रगति नहीं कर रहा है बल्कि अपने संस्थापक के उच्च आचरण के कारण कर रहा है आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगर्मी मौजूद होगी । तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मो के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं । ( अखबार प्रताप बजून 1924 , अखबार यंग इंडिया अहमदाबाद 29 मई 1920 )
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निष्पक्ष और भले लोगों के लिए यही गवाही काफी है
समाजी सज्जनों से प्रार्थना।
यद्यपि जमाना में ऐसे उत्साही और तेज स्वभाव या अनुभवी भी हैं जिन के अनुभव ने उनको यहां तक पहुंचाया है कि उन्होंने अपना उसूल ही यह निर्धारित कर रखा है और इसी उसूल की लोगों को भी हिदायत किया करते हैं –
मगर खुदा की सच्ची किताब कुरआन शरीफ उसूली तौर पर ऐसे उत्साही उसूलों से निराली और न्याय पर आधारित है । अतएव इर्शाद है –
” मुनाजरा में सबसे अच्छे ( बेहतर ) उसूलों को सामने रखा करो।” ( सूरह नहल- 125 )
इसीलिए हमने स्वामी जी के जवाब में इस उत्साही उसूल को तर्क करके यथासंभव अल्लाह की किताब के पाक उसूलों को सामने रखा है लेकिन एक मनुष्य के नाते कहीं यदि कोई शब्द निकल गया हो जिससे हमारे समाजी दोस्तों को दुख हो तो वह पंडित जी की किताब में इस तरह का शब्द तलाश करेंगे तो आशा है कि इससे कई दर्जा वज़नी उनको मिल जाएगा । मिलने के बाद हमें माफी का एक कार्ड लिखें क्योंकि जो आदत स्वामी जी से साधू व योगी होने के बावजूद होने से न छूटी वह किसी कदर हम गुनहगारों में आ जाए तो आप ही बताएं कि हम कहां तक विवश हैं । हां यदि भरम हो कि स्वामी जी ने जो कुछ दूसरी कौमों के बुजुर्ग बल्कि संयुक्त ईश्वर को बुरा भला कहा है वह इन लोगों के लाखों से नतीजे के तौर पर बताया है तो सुनो- यदि हम यह मान भी लें कि वह नतीजा वास्तव में सही है और स्वामी जी की गलत फहमी को इसमें कुछ दखल नहीं फिर भी पंडित जी को यह तरीका शोभा नहीं देता था क्योंकि उनका स्वयं कहना है
” हर समय मनुष्य को चाहिए कि वह मृद भाषा को काम में लाए , किसी अंधे को ” ऐ अंधे ‘ कहकर पुकारना सच तो अवश्य है लेकिन कठोर स्वर के कारण अधर्म है । ” ( उपदेश मंजरी पृ 0 20 )
समाजी दोस्तो ! क्या यह हाथी के दांत हैं जो दिखाने में और हैं खाने में और ? क्या तुम्हारे सातवें उसूल का यही मतलब है जो स्वामी जी ने कर दिखाया ?
” क्यों ऐसी बातें कहते हो जो स्वयं नहीं करते । ” ( सूरह सफ्फ -2 )
इसके अलावा हमारी मजबूरी एवं विवशता की एक और सही वजह है कि हमारा बचाव है और पंडित जी का हमला अर्थात इस ‘ तरीका को पंडित जी ने ही आरंभ किया और बहुत बुरी तरह हुई । इस पर भी हमारे समाजी दोस्त बुरा मनाएं तो अपने आर्य मुसाफिर के कथन पर जो सोने से लिखने योग्य है । अच्छी तरह सोच विचार करें । सुनो –
हिफाजत[1],अपने बचाव में कानूनी व धार्मिक तौर पर जायज है जबकि यहां इस हिफाजत या बचाव के नाम पर हमारी ओर से खंडन में किताबें लिखी गयी है – तो–
जरा इन्साफ से देखो निकाला किसने यह शर पहले ( हुज्जतुल इस्लाम पृ 0 11 दूसरा एडीशन )
[1- पंडित लेख राम ब जवाब मौलवी शैख उबैदुल्लाह मरहूम लिखता है ।]

अबुल वफा सनाउल्लाह
मौलवी फाजिल अमृतसर


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